भारत में आवाजाही: सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था का पूरा ढांचा बदलने की जरूरत

ज्यादा किराये और समय लगने की वजह से लोग चुनते हैं निजी वाहनों का विकल्प
फाइल फोटो: विकास चौधरी
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जब तक आप यह वाक्य खत्म करेंगे, देश में बीस से ज्यादा कारें और 70 से ज्यादा दोपहिया वाहन पंजीकृत हो चुके होंगे। ये बीस कारें मिलकर अपने आगे के क्रियाशील दौर में औसतन प्रति किलोमीटर 3.15 किलोग्राम कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन कर चुकी होगी। गौरतलब है कि 2021-22 में कारों के लिए कारपोरेट औसत 157.5 ग्राम कार्बन डाइऑक्साइड प्रति किमी था।

इन तथ्यों का मकसद कार मालिकों या उनकी संपत्तियों को बदनाम करना नहीं है,  न ही इनका मकसद देश में कारों की बिक्री को रोकने की अपील करना है। इनका मकसद उस असंतुलन को उजागर करना है जो यात्रा करने के हमारे विकल्पों में हैं।

शहरी आवाजाही में निजी वाहनों का वर्चस्व है। देश में वित्त वर्ष 2024-25 में 2.55 करोड़ वाहन पंजीकृत किए। इनमें से 88 फीसदी से अधिक वाहन निजी वाहन थे - दोपहिया और कारें। अलग-अलग स्रोतों से उपलब्ध की गई जानकारी का मूल्यांकन करने पर हम पाते हैं कि शहरी आवाजाही में निजी वाहनों का औसतन योगदान 35 से 45 फीसदी के बीच है जबकि सार्वजनिक परिवहन का दस फीसदी के करीब। कुल मिलाकर देश में शहरी सार्वजनिक परिवहन का योगदान 25 फीसदी है।

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सबसे बड़ी बात यह है कि शहरों में यात्रा की मांग और यात्रा की जाने वाली दूरी, दोनों बढ़ रही है। उपलब्ध आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले 10 सालों में शहरों में औसत प्रति व्यक्ति यात्रा-दर में 17.5फीसदी की और औसत यात्रा-अवधि में 28.6 फीसदी की वृद्धि हुई है। कारों और दोपहिया वाहनों की तादाद और निजी परिवहन के इस्तेमाल से यात्रा-दर बढ़ने के चलते एक यात्री औसतन ज्यादा उत्सर्जन भी कर रहा है।

ऐसा इसलिए है क्योंकि निजी वाहन में आमतौर पर एक या दो लोग यात्रा करते हैं जबकि बसों, मेट्रो और अन्य भागीदारी वाले सार्वजनिक वाहनों में निजी वाहनों से कई गुना ज्यादा लोग यात्रा करते हैं। 

अगर वही 20 व्यक्ति, जिन्होंने अपनी कार पंजीकृत करवाई थी, जब आप पहला वाक्य पढ़ रहे थे - गाड़ी न चलाने का फैसला करते हैं और इसके बजाय सीएनजी बस में सवार होते हैं, तो उनका संयुक्त उत्सर्जन घटकर सिर्फ़ 1.06 किलोग्राम कार्बन डाई ऑक्साइड प्रति किलोमीटर रह जाएगा।

यह प्रति व्यक्ति प्रति किलोमीटर लगभग 53.1 ग्राम है, जो गाड़ी चलाते समय उनके द्वारा उत्सर्जित होने वाले उत्सर्जन के एक तिहाई से भी कम है। इसके बावजूद यात्रियों के बीच सार्वजनिक परिवहन लोकप्रिय नहीं है तो इसकी वजह उनमें सार्वजनिक परिवहन से पर्यावरण को हाने वाले फायदों को लेकर जागरुकता की कमी नहीं बल्कि इन सेवाओं का खराब स्तर है।

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सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने इस समस्या की गंभीरता को समझने के लिए देश के ऐसे 19 प्रमुख राज्य परिवहन उपक्रमों (एसटीयू) का अध्ययन किया , जो सार्वजनिक बसें चलाते हैं,  जिनमें 12 राज्य निगम और 7 नगर निगम उपक्रम शामिल हैं। इनमें महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश,  उत्तर प्रदेश,  तेलंगाना, कर्नाटक, गुजरात, दिल्ली, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल और बिहार राज्य शामिल हैं।

2014 से 2019 के दौरान इन राज्य परिवहन उपक्रमों के बसों के बेड़े में मुश्किल से 4.06 फीसदी की वृद्धि हुई। बसों के बेड़े की तादाद, आबादी के अनुरूप न होने से यात्रा की मांग बढ़ती है, जिससे यात्रियों के लिए इंतजार का समय भी बढ़ जाता है, जिससे बसों से यात्रा असुविधाजनक हो जाती है। यही वजह है कि इसी समयावधि में आवाजाही 5.08 फीसदी कम हो गई। इसके चलते सभी एसटीयू को भारी नुकसान उठाना पड़ा। वित्त वर्ष 2014-15 और वित्त वर्ष 2018-19 के दौरान सभी 19  एसटीयू को तीन गुना नुकसान का सामना करना पड़ा।

56 राज्य परिवहन उपक्रमों को 17,932 करोड़ रुपए का संयुक्त घाटा हुआ। इसमें सबसे बड़ा हिस्सा राज्य निगमों का है, जो 57.39 फीसदी है, उसके बाद राज्य के स्वामित्व वाली कंपनियों (23.73 फीसदी ), नगर निगम उपक्रमों (10.33 फीसदी ) और सरकारी विभागीय उपक्रमों (6.56 फीसदी) का नंबर आता है।

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देश में मेट्रो रेल सेवा को दो बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, पहली - अनुमान से कम आवाजाही और दूसरी उसमें एकीकरण और आखिर छोर तक कनेक्टिविटी न होना। इसके अलावा, मेट्रो के अधिकांश सिस्टम, नेटवर्क नहीं बल्कि कारिडोर हैं, जो यात्रा के समय, इंटरचेंज और लागत को बढ़ाते हैं। और तीसरी चुनौती है वित्तीय स्थिरता।

देश के 16 शहरों में मेट्रो रेल सिस्टम चालू है, जिसकी सामूहिक नेटवर्क लंबाई 862 किलोमीटर (2024 तक की रिपोर्ट की गई नेटवर्क लंबाई) है। 2023 में आईआईटी दिल्ली द्वारा किए गए एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि भारतीय शहरों में मेट्रो रेल सिस्टम, केवल अनुमानित सवारियों का लगभग 25-35 फीसदी ही हासिल कर सका है।

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दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन (डीएमआरसी) ने दूसरों की तुलना में सबसे अधिक सवारियां हासिल की हैं लेकिन फिर भी इसका योगदान अनुमानित के आधे से भी कम यानी 47 फीसदी है। इसकी मुख्य वजह यह है कि दिल्ली को अधिकांश अन्य शहरों के सिंगल से डबल कॉरिडोर के विपरीत एक व्यापक नेटवर्क के रूप में बनाया गया है।  इसलिए यह सार्वजनिक परिवहन प्रणाली की योजना के एक महत्वपूर्ण पहलू  के प्रति उत्तरदायी नहीं है। देश के 16 मेट्रो रेल वाले शहरों में 15 कॉरिडोर वाले हैं। केवल दिल्ली ऐसा शहर है, जिसमें मेट्रो का ऑपरेशनल नेटवर्क है, जिसमें दस लाइनें फैली हैं, जो शहर के 395 किलोमीटर के दायरे को कवर करती हैं।

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इसके अलावा मेट्रो रेल सिस्टम के देश में नाकाम रहने की वजह, किराए के अलावा मिलने वाले राजस्व का फायदा उठाने में चूक जाना है। केवल किराए से मिलने वाले राजस्व पर निर्भर रहने के कारण सेवाओं के बाधित हो जाने के दौरान बड़ा नुकसान उठाना पड़ता है, जैसा कि कोविड-19 महामारी के दौरान हुआ। इसलिए राजस्व के गैर-परिचालन स्रोतों से राजस्व कमाना भी महत्वपूर्ण है और मेट्रो सिस्टम में अपने मजबूत पारिस्थितिकी तंत्र दृष्टिकोण के कारण इन स्रोतों का उपयोग करने की पर्याप्त क्षमता भी है।

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हांगकांग की एमटीआर और सिंगापुर की एसएमआरटी विश्व की सर्वश्रेष्ठ मेट्रो सेवाएं हैं, जो गैर-परिचालन स्रोतों से क्रमशः 58 और 28 फीसदी राजस्व कमाती हैं, जिसकी तुलना में बेंगलुरू, मुंबई और चेन्नई से की जाए तो इन शहरों में इसका योगदान (2021 की रिपोर्ट के मुताबिक) क्रमशः महज  6, 11 और 16 फीसदी है ।

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अर्थव्यवस्था खराब होने की वजह से सुधार के रास्ते सीमित हो जाते हैं, जिससे यात्रियों के आत्मविश्वास पर असर पड़ता है, जिससे एक नाकाम सार्वजनिक परिवहन तंत्र बनता है, जिसे छोड़कर लोग फिर निजी वाहनों का रुख करते हैं, जो उनके लिए ज्यादा सुविधाजनक होता है।

इस परिघटना को और ज्यादा समझने के लिए, सीएसई ने अपनी यात्राओं को पूरा करने के लिए परिवहन के विभिन्न साधनों का इस्तेमाल करने वाले दिल्ली भर के यात्रियों की यात्रा डायरियों का अध्ययन किया।

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उत्तरदाताओं से उनकी दैनिक यात्राओं का चरण-दर-चरण विवरण देने के लिए कहा गया था, जिसमें इस्तेमाल किए गए परिवहन के प्रत्येक साधन को सूचीबद्ध किया गया था। इसमें यात्रा के सभी चरण शामिल थे, जैसे बस स्टॉप तक पैदल जाना, बस लेना, मध्यवर्ती पैराट्रांजिट मोड लेना और अपने गंतव्य तक पहुंचने के लिए फिर से पैदल चलना।

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यह नमूना दिल्ली के सभी आय समूहों में समान रूप से फैला हुआ था। इसके पीछे का विचार, केवल निजी परिवहन पर की गई यात्राओं और सार्वजनिक परिवहन या किसी अन्य प्रकार के साझा परिवहन का उपयोग करके की गई यात्राओं के बीच असमानताओं को मापने का था, और इस प्रक्रिया में इस परिकल्पना का परीक्षण करना था कि क्या सार्वजनिक परिवहन, वास्तव में निजी परिवहन से सस्ता है।

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सर्वेक्षण के नमूने में शामिल लगभग आधे (49 फीसदी) लोग निजी परिवहन का उपयोग करते हैं, जिनमें से अधिकांश की पार्किंग घर के पास ही है। निजी वाहन उपयोगकर्ताओं में, 60 फीसदी कार उपयोगकर्ता और 75 फीसदी दोपहिया वाहन उपयोगकर्ता सीधे अपने गंतव्य तक जाते हैं जबकि नमूने का एक छोटा हिस्सा ड्राइविंग के साथ मेट्रो का उपयोग भी करता है।

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मेट्रो, आवाजाही करने वालों के लिए दूसरा विकल्प है, जिसे बीस फीसदी लोग उपयोग करते हैं। मेट्रो तक पहुंचने के लिए सात फीसदी लोग पैदल जाते हैं जबकि इतने फीसदी ही निजी वाहनों या ऑटोरिक्शा का इस्तेमाल करते हैं।

अन्य पांच फीसदी लोग इसका तीसरे विकल्प क तौर पर उपयोग करते हैं और अधिकांशतया पैदल, निजी वाहनों या कनेक्टिंग मेट्रो लाइनों से इस तक पहुंचते हैं। सेवाओं के सीमित होने के चलते अपवादों को छोड़कर कैब का उपयोग करने वाले आमतौर पर अपनी पूरी दूरी कैब से ही तय करते हैं। बसों का उपयोग नौ फीसदी यात्री करते हैं, जो उनके लिए दूसरा या तीसरा विकल्प होती हैं और जिन तक वे पैदल या साइकिल से पहुंचते हैं।

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यात्रा की दूरी के आंकड़ों के विश्लेषण के मुताबिक,जब केवल ईंधन और किराये की कीमत जोड़कर देखा जाए तो सार्वजनिक  वाहन सस्ते पड़ते हैं- जिनका औसतन मूल्य 2.97 रुपये प्रति किलोमीटर है, जो निजी वाहनों की प्रति किलोमीटर लगने वाली कीमत यानी 6 .36 रुपये से काफी कम है।  

इससे हमें पता चलता है कि सार्वजनिक यातायात के लिए यह बुनियादी सिद्धांत ध्यान में रखना चाहिए कि उसका किराया समाज के लोगों के लिए किफायती हो आर ज्यादातर लोगों तक सार्वजनिक वाहनों की पहुंच हो।

हालांकि वे कारक, जो सार्वजनिक वाहन प्रणाली से यात्रा की कीमत बढ़ा देते हैं, वे हैं - पहले और आखिर छोर के बीच इंटरचेंज मोड में लगने वाला किराया और इसमें लगने वाला समय, इसके अलावा बसों की भीड़ के कारण यात्रा पूरी करने  में लगने वाला समय बढ़ गया। 

उदाहरण के लिए - दिल्ली में पचास फीसदी से ज्यादा बस स्टॉप पर बसों के लिए दस मिनट से ज्यादा का इंतजार करना पड़ता है। यह भीड़भाड़ और खराब टाइम-टेबल का परिणाम है, जिसके कारण बसों में भीड़ हो जाती है और ऑपरेटर को राजस्व की हानि होती है।

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भीड़भाड़ की वजह से व्यस्त घंटों के दौरान सार्वजनिक परिवहन में भारी देरी हो सकती है, खासकर बसों में। सप्ताह के दिनों में, दिल्ली में सुबह के व्यस्त घंटों में औसतन 41 फीसदी और शाम के व्यस्त घंटों में 56 फीसदी की कमी देखी जाती है।

सप्ताहांत में, सुबह के समय यातायात 27 फीसदी और शाम के समय 42 फीसदी कम हो जाता है (सितंबर 2024 के लिए विश्लेषण)। गति में कमी की गणना फ्री-फ्लो गति या सुबह के शुरुआती घंटों के दौरान गति के संबंध में की गई,  जब यातायात नगण्य होता है।

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इसलिए, जब यात्रा लागत में इंटरचेंज और सार्वजनिक परिवहन में यात्रा के दौरान लगने वाले समय के घटकों के साथ-साथ पहले और अंतिम छोर के लिए अतिरिक्त किराया शामिल होता है तो तराजू आर्थिक रूप निजी वाहनों के पक्ष में झुक जाता है।

समय लागत की गणना आय, दैनिक कार्य-घंटों और एक वर्ष में कार्य दिवसों के आधार पर की गई है। वार्षिक आय में वार्षिक यात्रा लागत के हिस्से की इकाइयों में, नमूने के लिए सार्वजनिक परिवहन यात्राओं का औसत मूल्य 18 फीसदी था, जिसमें इंटरक्वार्टाइल रेंज या आईक्यूआर (यानी किसी डेटासेट के मध्य के आधे भाग का फैलाव ) 12 से 32 फीसदी के बीच था। निजी परिवहन के लिए, औसत मूल्य 12 प्रतिशत है, जबकि आईक्यूआर 6 से 18 फीसदी है।

दिलचस्प बात यह है कि बसों की तुलना में मेट्रो यात्राएं अधिक महंगी हैं और कुल यात्रा लागत पर विचार करने पर यह सभी साधनों में सबसे अधिक है क्योंकि बस स्टेशनों की तुलना में मेट्रो स्टेशनों की कम कवरेज के कारण पहले और अंतिम छोर की लागत बढ़ जाती है। इसके अलावा भीड़भाड़ वाले प्लेटफार्मों से गुजरना, सुरक्षा चौकियों पर लगने वाली लाइनों आदि के कारण मेट्रो ट्रेन में चढ़ने और उतरने में भी काफी समय लगता है।

किसी भी पहलू से विचार करते समय यात्रियों की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखना महत्वूपर्ण है क्योंकि यही सार्वजनिक परिवहन को लेकर उनकी पसंद या अनिच्छा को तय करती है। अगर वे सार्वजनिक परिवहन को न केवल किराए बल्कि इसमें लगने वाले ज्यादा समय और असुविधा से जोड़कर देखने लगते हैं तो व निजी वाहनों की ओर मुड़ने लगते हैं जिससे सड़कों पर भीड़ और प्रदूषण बढ़ता है और यह चक्र ऐसे ही आगे बढ़ता रहता है।

हमें इस चक्र को तोड़ना है। निजी वाहन खत्म नहीं होने जा रहे। हमें ऐसी महत्वाकांक्षी तकनीक की जरूरत है जो स्वच्छ ईंधन का समर्थन करे और वाहनों के लिए ईंधन अर्थव्यवस्था के सख्त मानकों पर नियंत्रण रखे, जिससे स्रोत पर ही उत्सर्जन में कटौती हो सके।

सार्वजनिक यातायात के लिए सेवा शर्तों के मापदंडों को संशोधित करने और गतिशीलता की योजनाओं में उन पर विचार की जरूरत है। इनमें इस तरह से हस्तक्षेप करना चाहिए कि यात्रियों और वाहनों के आंकड़ों को और वैज्ञानिक सोच को आगे रखा जाए।

इससे आगे बढ़कर पैदल और साइकिल से चलने वालों के लिए आधारभूत ढांचे को मजबूत करना चाहिए, साथ ही अंतिम छोर तक पहुंचने के लिए फीडर सिस्टम का विस्तार करने की जरूरत है। इसके साथ ही पार्किंग सुधार लागू करके, भीड़भाड़ बढ़ने पर जुर्माना लगाकर, कम उत्सर्जन क्षेत्र  बनाकर और उचित टैक्स लगाकर निजी वाहनों की मांग को हतोत्साहित किया जाना चाहिए।

शहरी योजना को इस तरह के ठोस विकास पर ध्यान देना चाहिए, जिसमें लोगों के घर, उनकी नौकरी करने की जगह और सेवायें पास-पास हों, खासकर ट्रांजिट केंद्रों के करीब हों। बजट की प्राथमिकताओं में कारों को केंद्र में रखने की बजाय सार्वजनिक और कम उत्सर्जन वाले वाहनों को रखा जाना चाहिए और इसे भूमि अधिग्रहण और जलवायु के लिए फंड जैसे प्रेरक आर्थिक उपकरणों से सहयोग देना चाहिए।

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