भारत में आवाजाही: मैसूर की साइकिल शेयरिंग योजना, कितनी सफल?

आठ साल पहले शुरू की गई थी साइकिल शेयरिंग योजना
मैसूर में सार्वजनिक साइकिल शेयरिंग के तहत प्रति वर्ग किलोमीटर चार साइकिलें हैं। फोटो: शगुन
मैसूर में सार्वजनिक साइकिल शेयरिंग के तहत प्रति वर्ग किलोमीटर चार साइकिलें हैं। फोटो: शगुन
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कर्नाटक के शहर मैसूर स्थित रबिन्द्रनाथ टैगोर नगर में रहने वाली इंदिरा डी रोज सुबह अपने घर से एक चमकीली हरी साइकिल लेती हैं और लगभग 5 किलोमीटर की यात्रा मणसागंगोत्रि परिसर, यूनिवर्सिटी ऑफ मैसूर के लिए करती हैं, जहां वह पोस्टग्रेजुएट छात्रा हैं।

इंदिरा ने कहा, “लगभग एक साल पहले तक मैं अपना दैनिक सफर बसों का इंतजार करने या ऑटो बुलाने से शुरू करती थी, लेकिन 2024 में मैंने एक सरल बदलाव किया। मैंने सार्वजनिक साइकिल साझा प्रणाली आजमाने का निर्णय लिया। शुरुआत के कुछ सप्ताहों तक मैंने दैनिक सदस्यता ली और फिर मासिक पास ले लिया।”

’ट्रिन ट्रिन’, मैसूर की सार्वजनिक साइकिल साझा प्रणाली, 2017 में लॉन्च की गई थी, ताकि शहर के यात्रियों के लिए एक वैकल्पिक और पर्यावरण के अनुरुप परिवहन का विकल्प प्रदान किया जा सके। इसे भारत की पहली सार्वजनिक साइकिल साझा प्रणाली माना जाता है।

यह परियोजना कर्नाटक सरकार के निदेशालय, अर्बन लैंड ट्रांसपोर्ट (डीयूएलटी ) और मैसूर सिटी कॉरपोरेशन ने शुरू की थी, जिसका उद्देश्य शहर में इको-फ्रेंडली ‘पहली और आखिरी मील’ कनेक्टिविटी प्रदान करना था।

वर्तमान में, शहर में 48 डॉकिंग हब हैं और कुल 500 साइकिलें उपलब्ध हैं, जो मुख्यतः शैक्षणिक संस्थानों, पर्यटक क्षेत्रों और शहर के केंद्रीय भाग में स्थित हैं। यात्री मोबाइल ऐप के जरिए प्रति घंटा, दैनिक, साप्ताहिक या मासिक आधार पर साइकिल किराए पर ले सकते हैं — पहले घंटे के लिए 30 रुपए, अतिरिक्त घंटे के लिए 10 रुपए प्रति घंटे की दर से, पूरे दिन के लिए 99 रुपए, सात दिनों के लिए 499 रुपए और मासिक पास के लिए 1,699 रुपए साथ ही प्रोत्साहन के लिए अतिरिक्त छूट भी उपलब्ध हैं।

इंदिरा के पास पास मासिक पास है और वह साइकिल को रातभर अपने पास रखती है। हर सुबह इसे चलाकर परिसर के किसी हब पर डॉक कर देती है और फिर कक्षा के लिए जाती है।

पर्यटकों के लिए भी ये साइकिलें एक लोकप्रिय विकल्प बन गई हैं। अनुराग त्रिपाठी और ओम प्रकाश पांडा, जो भुवनेश्वर से शहर घूमने आए हैं, कहते हैं कि पिछले तीन दिनों में उन्होंने किसी भी उबर या ओला टैक्सी या ऑटो का उपयोग नहीं किया और साइकिल ही इस्तेमाल की है।

त्रिपाठी ने कहा, “आज हमने इन साइकिलों पर लगभग 13 किलोमीटर की दूरी तय की। मोबिलिटी (गतिशीलता) के नजरिए से यह अच्छा विकल्प है। साइकिलें अच्छी डिजाइन की गई हैं और इस योजना में बहुत संभावनाएं हैं।”

लेकिन लोग शहर के बुनियादी ढांचे की समस्याओं और ऐप से जुड़ी परेशानियों, इंटरनेट कनेक्टिविटी की दिक्कतें और साइकिल अनलॉक या राइड समाप्त करने में कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं।  

पांडा ने कहा, “ऐप एक दुःस्वप्न जैसा है। मैं कल डॉकिंग हब भूल गया और काफी देर तक गलत जगह पर साइकिल ढूंढ़ता रहा। सभी साइकिलें एक जैसी दिखती हैं और ऐप में लोकेशन यूजर्स के लिए होती है, साइकिल के लिए नहीं।”

त्रिपाठी ने कहा, “यहां कोई साइकिल के लिए अलग से ट्रैक नहीं है और हमें हमेशा सावधान रहना पड़ता है और अन्य वाहनों के गुजरने का इंतजार करना पड़ता है।”

5 जून को, जब डाउन टू अर्थ ने चेथना एस एन और मञ्जुनाथ गौड़ा से नगर निगम कार्यालय में मुलाकात की, तो वे डैशबोर्ड पर दैनिक प्रगति की निगरानी कर रहे थे। कुल 500 साइकिलों में से दोपहर 1:30 बजे तक 255 साइकिलें शहर की सड़कों पर चलाई जा चुकी थीं, और यात्रियों ने कुल 256 किलोमीटर की दूरी तय की थी।

गौड़ा बताते हैं कि माह में औसतन लगभग 33,462 सवारी होती हैं, जिनमें कुल 15,640 किलोमीटर की दूरी तय की जाती है। अब तक 15,303 यूजर्स बने हैं और लगभग 17,000 लोग एप्लिकेशन पर पंजीकृत हैं।

मैसूर की चौड़ी सड़कों को देखकर साइकिल इंफ्रास्ट्रकचर के लिए आदर्श माना जा सकता है, लेकिन जमीन पर लागू करने में स्थिति अलग है। 2017 में 500 साइकिलों के साथ परियोजना शुरू हुई थी और तब से संख्या बढ़ी नहीं है। आठ साल बाद भी इसका उपयोग निगम की उम्मीद से कम है।

चेथना एस एन ने कहा, “फिलहाल साइकिलें ज़्यादातर छात्र और पर्यटक ही उपयोग कर रहे हैं। ऑफिस जाने वाले या स्थानीय निवासी कम इस्तेमाल करते हैं, वे अपने निजी वाहनों से यात्रा करते हैं।”

कम प्रतिक्रिया के कई कारण हैं, लेकिन मुख्य कारण यह है कि शहर में साइकिल के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर इतना विकसित नहीं है कि लोग निजी या मोटरयुक्त वाहन छोड़कर साइकिल की ओर बढ़ें।

गौड़ा के मुताबिक शहर में 8.7 किलोमीटर लंबा साइकिल ट्रैक था, लेकिन रेट्रो रिफ्लेक्टिव बोलार्ड क्षतिग्रस्त होने के बाद वह काम नहीं कर पा रहा है। ट्रैक बनने के बाद स्ट्रीट वेंडरों ने इन्हें हटाना शुरू कर दिया। दुकानदारों ने ग्राहकों के लिए पार्किंग स्पॉट बनाने के लिए बोलार्ड्स हटा दिए।

मूल योजना ट्रैक बढ़ाने की थी, लेकिन अब यह ट्रैक उपयोग में नहीं है और लोग इसे अपने दोपहिया वाहन पार्किंग के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं।

2021 में जीआईजेड द्वारा ‘स्मार्ट शहरों के लिए एकीकृत सतत शहरी परिवहन प्रणाली’ परियोजना के तहत जारी रिपोर्ट के अनुसार, मैसूर में पीबीएस के तहत प्रति वर्ग किलोमीटर चार साइकिलें हैं।

रिपोर्ट के अनुसार, प्रति वर्ग किलोमीटर साइकिल लेन की लंबाई शहर में साइकिल नेटवर्क की सघनता को दर्शाती है।

साइकिलों की उपलब्धता भी कम है, क्योंकि प्रति 1,000 जनसंख्या पर केवल 0.5 साइकिलें हैं और प्रति साइकिल दिन में केवल दो यात्राएं होती हैं। जिन शहरों में बाजार पहुंच अधिक है, वहां यात्राओं की संख्या भी अधिक होती है।

रिपोर्ट के मुताबिक, कोपेनहेगन में प्रति वर्ग किलोमीटर 53 साइकिलें हैं, एंटवर्प में 20, न्यूयॉर्क में 15 और लंदन में 7.3। कोपेनहेगन और एंटवर्प में प्रति 1,000 जनसंख्या पर क्रमशः 6.5 और 8.1 साइकिलें हैं और वे प्रति साइकिल दिन में 7 और 5.6 यात्राएं दर्ज करते हैं।

इसके अलावा मैसूर के लोगों को सार्वजनिक परिवहन में भी कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। शहर में 438 डीजल बसें चल रही हैं।

प्रधान मंत्री ई-बस सेवा योजना के तहत 160 इलेक्ट्रिक बसें जोड़ी जानी हैं, लेकिन बढ़ती आबादी और 2023 में बेंगलुरु-मैसूर एक्सप्रेसवे के बाद यह संख्या कम पड़ सकती है।

एक महिला यात्री ने कहा, “बस की फ्रिक्वेंसी कम है और रास्ते भी समस्या हैं। लेकिन सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि बस ड्राइवर कॉलेज के छात्र और महिलाओं को देखकर बस स्टॉप पर नहीं रुकते।”

वह आगे बोलीं, “यह कर्नाटक सरकार की मुफ्त बस योजना की वजह से होता है। कई बार मैं एक घंटे तक बस का इंतजार करती रही, लेकिन बस मेरे बस स्टॉप पर नहीं रुकी और आगे निकल गई, जिससे मुझे बस पकड़ने के लिए तेज दौड़ना पड़ा।”

मैसूर नगर निगम के आयुक्त शेख तनवीर आसिफ ने कहा, “अभी मैसूर अपने सार्वजनिक परिवहन की जरूरतें पूरी कर रहा है और अंतिम मील कनेक्टिविटी ऑटो और बाइक की वजह से ठीक है, लेकिन क्या यह टिकाऊ है; इसका जवाब नहीं है।”

आसिफ ने कहा, “निजी वाहनों की संख्या, खासकर कारों की, तेजी से बढ़ रही है, जो सतत शहरी गतिशीलता के लिए एक बड़ी चुनौती है। एक्सप्रेसवे बनने के बाद शहर में रहने वाले और घरों की संख्या बढ़ी है।”

संयुक्त राष्ट्र के वर्ल्ड पॉपुलेशन रिव्यू के अनुसार, मैसूर की आबादी 2025 में 13,45,720 होने का अनुमान है, जो 1950 में 2,36,572 थी। पिछले वर्ष शहर की आबादी में 29,260 की वृद्धि हुई है। यानी सालाना  2.22 प्रतिशत वृद्धि हुई।
केंद्र सरकार के वाहन डैशबोर्ड के मुताबिक 25 जून तक शहर में 13 लाख निजी वाहन सड़क पर हैं, जिनमें सबसे ज्यादा हिस्सेदारी दोपहिया (मोटरसाइकिल और स्कूटर) की है।

आसिफ कहते हैं, “शहर में कार्बन उत्सर्जन बढ़ रहा है और हम लोगों को ग्रीन मोबिलिटी के विकल्पों की ओर प्रेरित करना चाहते हैं। मैसूर की सड़कों और चौराहों की चौड़ाई सार्वजनिक साइकिल साझा परियोजना को बढ़ावा देने के लिए उपयुक्त है। लेकिन भारत में, कोई साइकिल चलाने की संस्कृति नहीं है।”

आसिफ ने कहा, “विकसित देशों जैसे नीदरलैंड, फ्रांस, जर्मनी में उच्च आय वर्ग ने स्वास्थ्य कारणों से ऑटोमोबाइल से साइकिल की ओर रुख किया है।”

आसिफ ने कहा, “भारत में कार चलाना एक सामाजिक प्रतिष्ठा माना जाता है और साइकिल चलाना गरीबी का प्रतीक। हर कोई ऊपर की ओर बढ़ना चाहता है। इसलिए कार और सार्वजनिक परिवहन को सामाजिक और आर्थिक स्थिति से अलग करना होगा। फिर लोग खुद साइकिल चलाना चाहेंगे और यह एक जन आंदोलन बन जाएगा।”

आसिफ के मुताबिक पहले साइकिल के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर बनाना होगा। हम जीआईजेड के सहयोग से चामुंडी हिल्स से शहर के केंद्र तक एक सतत साइकिल पथ बना रहे हैं। इसमें फुटपाथ विस्तार और सुरक्षात्मक बोलार्ड शामिल हैं। योजना यह है कि शहर के केंद्र में मजबूत साइकिल अवसंरचना हो और साइकिलों की संख्या बढ़े। एक विस्तृत परियोजना रिपोर्ट तैयार हो रही है।

चेथना ने कहा, “इस बार योजना बेहतर होगी और सड़क विक्रेताओं को ट्रैक बनने से पहले किसी और स्थान पर स्थानांतरित किया जाएगा।”

आसिफ ने कहा कि ’ट्रिन ट्रिन’ का दूसरा चरण जल्द आ रहा है, जिसमें 500 और साइकिलें जोड़कर कुल संख्या 1,000 कर दी जाएगी। 52 हब भी जोड़े जाएंगे, जो कुल 100 हो जाएंगे।

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