धुंधली हुई 1.5 डिग्री सेल्सियस की उम्मीद: सदी के अंत तक 2.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है तापमान

एमिशन गैप रिपोर्ट 2025 के मुताबिक मौजूदा जलवायु वादों से उत्सर्जन में महज 15 फीसदी की कमी संभव, जबकि डेढ़ डिग्री के लक्ष्य को हासिल करने के लिए 55 फीसदी की कटौती की जरूरत। तेजी से हाथ से फिसल रही है समय की रेत
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सारांश
  • पेरिस समझौते के बावजूद इस सदी के अंत तक वैश्विक तापमान 2.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है।

  • यह जलवायु संकट को और गहरा कर सकता है।

  • जलवायु संकट से निपटने के लिए त्वरित और ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है।

  • देशों को उत्सर्जन में तेजी से कटौती करनी होगी, अन्यथा 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य असंभव हो जाएगा।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) ने अपनी नई रिपोर्ट में चेताया है कि कॉप-30 से पहले सरकारों ने जिन नए जलवायु संकल्पों को व्यक्त किया है, उनसे इस सदी के दौरान बढ़ते वैश्विक तापमान में मामूली गिरावट की ही उम्मीद है। इससे दुनिया के सामने मौजूद जलवायु चुनौतियों और उनसे होने वाले नुकसान का खतरा और गहरा सकता है।

संयुक्त राष्ट्र के वार्षिक जलवायु सम्मेलन (कॉप-30) से ठीक पहले जारी “एमिशन गैप रिपोर्ट 2025: ऑफ टारगेट” के मुताबिक, अगर सभी देश पेरिस समझौते के तहत अपने मौजूदा वादों (एनडीसी) को पूरी तरह लागू कर भी दें, तो भी इस सदी के अंत तक पृथ्वी का तापमान 2.3 से 2.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा।

बता दें कि पिछले साल यह अनुमान 2.6 से 2.8 डिग्री सेल्सियस था। इसका मतलब है कि यदि सरकारें अपने जलवायु वादों को पूरा करने पर खरी भी उतरें तो भी बेहद मामूली सुधार होगा।

वहीं रिपोर्ट ने स्पष्ट किया है कि अगर देश अपनी मौजूदा नीतियों पर ही चलते रहे, तो तापमान 2.8 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है, जो मानव जीवन, पारिस्थितिकी और अर्थव्यवस्था पर बेहद भारी पड़ेगा। देखा जाए तो दुनिया अभी भी जिस डगर चल रही है वो जलवायु संकट की खतरनाक राह है।

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गौरतलब है कि अब से करीब दस साल पहले कॉप-21 सम्मलेन में वैश्विक नेताओं पेरिस जलवायु समझौते पर सहमति जताई थी। इस समझौते के तहत औद्योगिक काल से पहले की तुलना में वैश्विक औसत तापमान में हो रही वृद्धि को दो डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने का लक्ष्य रखा गया था।

साथ ही तापमान में हो रही वृद्धि को डेढ़ डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिए हर सम्भव प्रयास किए जाने की बात कही थी।

लगभग तय है डेढ़ डिग्री की लक्ष्मण रेखा का पार होना

संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने रिपोर्ट पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा, "वैज्ञानिकों के मुताबिक अब डेढ़ डिग्री सेल्सियस की सीमा को अस्थाई रूप से पार करना तय है।  संभवतः अगले कुछ वर्षों में, यानी 2030 के शुरुआती दशक में यह सीमा पार हो सकती है।"

उनके मुताबिक हर गुजरते दिन के साथ रहने लायक भविष्य की राह और कठिन होती जा रही है। लेकिन यह हार मानने का वक्त नहीं, बल्कि कदम तेज करने का वक्त है। सदी के अंत तक 1.5 डिग्री के लक्ष्य तक पहुंचना अब भी हमारा ध्रुव तारा है। अगर हम सच में अपनी महत्वाकांक्षा को बढ़ाएं, तो यह लक्ष्य अब भी हासिल किया जा सकता है।

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हालांकि रिपोर्ट के अनुसार, तापमान में आए इस अस्थाई उछाल को पलट पाना बेहद मुश्किल होगा। ऐसा करने के लिए देशों को अपने उत्सर्जन में तेजी से बड़े पैमाने पर कटौती करनी होगी, ताकि नुकसान सीमित रहे और भविष्य में तापमान को दोबारा 1.5 डिग्री सेल्सियस पर लाया जा सके।

अधूरे वादे, लक्ष्य से भटकते देश

संयुक्त राष्ट्र की कार्यकारी निदेशक इंगर एंडरसन का कहना है, “पेरिस समझौते के वादों को पूरा करने के लिए देशों को तीन बार मौके मिले, लेकिन वे हर बार लक्ष्य से चूक गए। देशों की जलवायु योजनाओं से कुछ प्रगति तो हुई है, लेकिन अब भी रफ्तार बेहद धीमी है। ऐसे में हमें अब बेहद कम समय में उत्सर्जन में अभूतपूर्व कटौती करनी होगी जबकि दुनिया में हालात लगातार कठिन होते जा रहे हैं।”

उन्होंने उम्मीद जताते हुए कहा, “फिर भी उम्मीद बाकी है। हमारे पास समाधान मौजूद हैं सस्ती अक्षय ऊर्जा में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है, और मीथेन जैसे गैसों पर नियंत्रण के उपाय भी सामने हैं। अब देशों को पूरी ताकत से आगे बढ़ना होगा और महत्वाकांक्षी जलवायु कार्रवाई में निवेश करना होगा, ऐसी कार्रवाई जो तेज आर्थिक विकास, बेहतर स्वास्थ्य, अधिक रोजगार, ऊर्जा सुरक्षा और मजबूती लेकर आए।”

रिपोर्ट में बताया गया है कि केवल 60 देशों ने ही 2035 तक के लिए नए उत्सर्जन लक्ष्य (एनडीसी) तय किए हैं, जो कुल वैश्विक उत्सर्जन का महज 63 फीसदी हिस्सा कवर करते हैं। लेकिन अधिकांश देश अपने पुराने 2030 लक्ष्यों को भी हासिल नहीं कर पा रहे हैं।

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आपकी जानकारी के लिए बता दें कि देशों ने जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेवार ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती लाने के लिए अपनी योजनाओं, नीतियों को राष्ट्रीय जलवायु कार्रवाई योजनाओं में साझा किया है। इन योजनाओं को हर पांच साल में अपडेट किया जाता है। इन्हीं योजनाओं राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) के तौर पर भी जाना जाता है।

देखा जाए तो यह इन योजनाओं का तीसरा दौर है, जिसमें वर्ष 2035 तक के लिए ध्यान केन्द्रित किया जाएगा।  फिलहाल केवल 60 देशों ने ही सितम्बर तक अपनी इन योजनाओं को प्रस्तुत किया है।

उत्सर्जन में तेजी से करनी होगी कटौती

रिपोर्ट के मुताबिक पेरिस जलवायु लक्ष्यों को हासिल करने के लिए देशों को अपने उत्सर्जन में तेजी से अब तक की सबसे बड़ी कटौती करनी होगी। लेकिन यह काम और मुश्किल हो गया है, क्योंकि 2024 में उत्सर्जन 2.3 फीसदी बढ़कर 57.7 गीगाटन सीओ₂ के बराबर हो गया है।

ऐसे में यदि दो डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को हासिल करने के लिए 2019 की तुलना में 2030 तक उत्सर्जन में कम से कम 25 फीसदी की कटौती करनी होगी। वहीं यदि डेढ़ डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को हासिल करना है तो उत्सर्जन को अगले पांच सालों से भी कम वक्त में 40 फीसदी तक कम करना होगा।

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हालांकि देशों ने अब तक जो वादे किए हैं, वो सभी वादे पूरे हो भी जाएं तो भी 2035 तक उत्सर्जन में 2019 की तुलना में महज 15 फीसदी की गिरावट आएगी, जो जलवायु लक्ष्यों को हासिल करने के लिए की जाने वाली 55 फीसदी की कमी से बेहद कम है।

देखा जाए तो ट्रम्प सरकार ने जिस तरह से पेरिस जलवायु समझौते से अपने हाथ वापिस खींचें हैं, उससे इस दिशा में किए जा रहे प्रयासों को गहरा धक्का लगा है।

मायने रखती है तापमान में मामूली से मामूली वृद्धि

जलवायु विशेषज्ञों ने आशंका जताई है कि पेरिस लक्ष्यों को हासिल करने की राह से देश अब बेहद दूर हैं। यदि दो डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को जीवित रखना है तो देशों को 2035 तक सालाना अपने उत्सर्जन में 35 से 55 फीसदी की कटौती करनी होगी तभी हम डेढ़ और दो डिग्री सेल्सियस के लक्ष्यों को हासिल करने की उम्मीद जीवित रख पाएंगे।

भले ही देखने में यह आंकड़ा बड़ा न लगे लेकिन तापमान में  0.1 डिग्री सेल्सियस की मामूली वृद्धि भी बेहद मायने रखती है। रिपोर्ट का कहना है तापमान में हर 0.1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के साथ बाढ़, सूखा, बीमारियों और आर्थिक नुकसान का खतरा और बढ़ जाएगा, इसका सबसे ज्यादा खामियाजा गरीब और कमजोर देशों को भुगतना पड़ेगा।

रिपोर्ट में इस बात पर भी प्रकाश डाला है कि यदि देशों ने अभी भी कदम न बढ़ाए, तो भविष्य में तापमान को सीमित करने के लिए वर्षों तक कार्बन हटाने की महंगी और अनिश्चित तकनीकों पर निर्भर रहना पड़ेगा।

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वक्त कम, लेकिन अभी भी है मौका

संयुक्त राष्ट्र ने रिपोर्ट में उम्मीद जताते हुए कहा है पिछले दस सालों में तापमान वृद्धि के अनुमान 3 से 3.5 डिग्री सेल्सियस से घटकर 2.5 डिग्री सेल्सियस पर आए हैं। सौर और पवन ऊर्जा जैसी सस्ती स्वच्छ तकनीकें तेजी से दुनिया में बढ़ रही हैं। अगर देश अब भी एकजुट होकर महत्वाकांक्षी कदम उठाएं तो न केवल जलवायु संकट को टाला जा सकता है, बल्कि रोजगार, स्वास्थ्य, ऊर्जा सुरक्षा और आर्थिक विकास में भी बड़ा सुधार मुमकिन है।

रिपोर्ट में जी-20 देशों की भूमिका को भी निर्णायक बताया है, क्योंकि (अफ्रीकी संघ को छोड़कर) यह समूह वैश्विक उत्सर्जन के 77 फीसदी के लिए जिम्मेदार है। लेकिन अब तक इस समूह के महज सात देशों ने 2035 के लिए नए लक्ष्य निर्धारित किए हैं और महज तीन देशों ने इन लक्ष्यों की घोषणा की है। हालांकि रिपोर्ट के मुताबिक, इन वादों में भी पर्याप्त महत्वाकांक्षा नहीं दिखती।

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जी-20 देश सामूहिक रूप से अपने 2030 के लक्ष्यों को भी हासिल करने की राह पर नहीं हैं, और 2024 में उनका उत्सर्जन 0.7 फीसदी बढ़ा है, जो दर्शाता है कि सबसे बड़े प्रदूषक देशों को अब और भी तेज और ठोस कदम उठाने होंगे।

देखा जाए तो संयुक्त राष्ट्र की यह रिपोर्ट याद दिलाती है कि दुनिया अब भी अपने लक्ष्यों से कितना दूर है। अगर देशों ने अब भी हिम्मत न दिखाई और गति न बढ़ाई, तो डेढ़ डिग्री सेल्सियस की उम्मीद महज इतिहास बन कर रह जाएगी।

इसके साथ ही पहले से ही मुंह फैलाए खड़ी जलवायु आपदाओं का आना दुनिया में सामान्य हो जाएगा। ऐसे में हमें किस राह को चुनना है यह हमारे ऊपर है, क्योंकि हमारा आज लिया फैसला मानवता के भविष्य को निर्धारित करेगा।

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