
जलवायु परिवर्तन के कारण फसलों की पैदावार में अस्थिरता बढ़ रही है। बढ़ती गर्मी और सूखे के चलते मकई, सोयाबीन और ज्वार की पैदावार में साल-दर-साल उतार-चढ़ाव हो रहे हैं।
यह स्थिति किसानों के लिए आर्थिक तंगी और खाद्य सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा बन सकती है।
अध्ययन में मकई, सोयाबीन और ज्वार पर असर का विश्लेषण किया गया—तापमान बढ़ने पर इनकी पैदावार में 7 से 19% तक अस्थिरता बढ़ सकती है।
अगर उत्सर्जन पर लगाम न लगी, तो सदी के अंत तक सोयाबीन हर 8 साल में विफल हो सकती है।
सबसे ज्यादा खतरे में वे क्षेत्र हैं जो सिंचाई के लिए बारिश पर निर्भर हैं, इनमें उप-सहारा अफ्रीका, सेंट्रल अमेरिका और दक्षिण एशिया शामिल हैं
जलवायु परिवर्तन एक ऐसी कड़वी सच्चाई हैं जो अलग-अलग तरह हमें प्रभावित कर रही है। लेकिन जब बात जीवन के जरुरी पहलु यानी हमारे आहार से जुड़ी हो तो चिंतित होना लाजिमी भी है।
यूनिवर्सिटी ऑफ ब्रिटिश कोलंबिया से जुड़े वैज्ञानिकों के नेतृत्व में किए एक नए वैश्विक अध्ययन से पता चला है कि बढ़ती गर्मी और सूखे ने खाद्य उत्पादन को अस्थिर बना दिया है। साल-दर-साल अनाज की पैदावार में बड़े उतार-चढ़ाव आम हो गए हैं। इसका असर सिर्फ कीमतों पर नहीं, बल्कि खाद्य सुरक्षा और आर्थिक मोर्चे पर भी पड़ रहा है।
स्टडी से पता चला है कि बढ़ती गर्मी और सूखे से फसलों की पैदावार अस्थिर हो रही है और साल-दर-साल पैदावार में ज्यादा उतार-चढ़ाव आ रहे हैं। देखा जाए तो कुछ के लिए इसके मायने यह हैं कि उनके बर्गर महंगे हो सकते हैं, तो दूसरों के लिए यह आर्थिक तंगी और भुखमरी का कारण बन सकता है।
किसानों के लिए यह महज आंकड़े नहीं…
इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने दुनिया की तीन अहम फसलों मकई, सोयाबीन और ज्वार की पैदावार में साल-दर-साल आ रहे बदलाव पर प्रकाश डाला है। वैज्ञानिकों ने खुलासा किया है कि वैश्विक तापमान हर डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के साथ मकई की पैदावार में सात फीसदी, सोयाबीन में 19 फीसदी और ज्वार में 10 फीसदी की अस्थिरता बढ़ जाती है।
किसानों के लिए यह बदलाव महज आंकड़े नहीं हैं। एक बुरा साल उनके लिए परिवार की खुशहाली और बर्बादी के बीच का फर्क पैदा कर सकता है।
वहीं अगर तापमान सिर्फ दो डिग्री सेल्सियस बढ़ता है, तो जो सोयाबीन की फसलें पहले सदी में एक बार खराब होती थीं, वे हर 25 साल में बर्बाद हो सकती हैं। मकई हर 49 साल और ज्वार की फसल हर 54 साल में विफलता का सामना कर सकती है।
सदी के अंत तक आम हो सकता है यह संकट
वहीं अगर उत्सर्जन पर लगाम न लगाई गई और वो इसी तरह बढ़ता रहा तो परिणाम कहीं ज्यादा गंभीर हो सकते हैं। अनुमान है कि सदी के अंत तक सोयाबीन की फसलें हर 8 साल में बर्बादी का शिकार हो सकती हैं।
अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता डॉक्टर जोनाथन प्रॉक्टर का प्रेस विज्ञप्ति में कहना है, “किसान औसत पैदावार पर नहीं बल्कि हर साल होने वाली कटाई पर जीते हैं। एक खराब साल उनके लिए गंभीर आर्थिक नुकसान और भूख का कारण बन सकता है।“
वैज्ञानिकों ने अध्ययन में इस बात की भी पुष्टि की है कि इससे सबसे अधिक खतरे में वे क्षेत्र हैं, जो बारिश पर निर्भर हैं और जिनके पास पर्याप्त वित्तीय सुरक्षा नहीं है। इन क्षेत्रों में सब-सहारा अफ्रीका, सेंट्रल अमेरिका और दक्षिण एशियाई देश शामिल हैं।
लेकिन इसका असर केवल कमजोर देशों तक ही सीमित नहीं है। उदाहरण के लिए, 2012 में अमेरिका के मिडवेस्ट में सूखे और लू के चलते मकई और सोयाबीन की पैदावार में 20 फीसदी की गिरावट आ गई थी, जिससे अमेरिकी अर्थव्यवस्था को अरबों डॉलर का नुकसान हुआ।
साथ ही इसकी वजह से वैश्विक बाजार में खाद्य कीमतें 10 फीसदी तक बढ़ गईं। स्पष्ट है कि फसलों में आई अस्थिरता का असर दुनिया भर के बाजारों पर पड़ता है। डॉक्टर प्रॉक्टर का कहना है, “हर कोई फसलें नहीं उगाता, लेकिन हर किसी को खाना चाहिए। ऐसे में जब पैदावार अस्थिर होगी, तो इसका असर हर किसी पर पड़ेगा।”
गर्मी और सूखे का डबल अटैक
अपने अध्ययन में वैज्ञानिकों ने फसलों के रिकॉर्ड के साथ तापमान और मिट्टी की नमी का भी विश्लेषण किया है। उनके अनुसार, इस अस्थिरता का मुख्य कारण गर्म और सूखी परिस्थितियों का एक साथ होना है। गर्म मौसम मिट्टी को सुखा देता है, सूखी मिट्टी तापमान और लू की आशंका को और बढ़ा देती है।
थोड़े समय के लिए भी गर्म और सूखा मौसम फसल को नुकसान पहुंचा सकते हैं। इससे पौधों के परागण पर असर पड़ता है, नतीजन वृद्धि का समय घट जाता है और पौधे कमजोर हो जाते हैं।
अध्ययन में इस बात पर भी प्रकाश डाला है, जहां सिंचाई की सुविधा है, वहां अस्थिरता कम हो सकती है। लेकिन जो क्षेत्र सबसे ज्यादा जोखिम में हैं वहां या तो पानी की कमी है या सिंचाई के लिए पर्याप्त बुनियादी ढांचा नहीं है।
ऐसे में वैज्ञानिकों का सुझाव है कि इससे बचने के लिए गर्मी और सूखा प्रतिरोधी फसलों के साथ मौसम का सटीक पूर्वानुमान, मिट्टी का उचित प्रबंधन और मजबूत वित्तिय सुरक्षा जाल जैसे फसल बीमा में निवेश जरूरी है। हालांकि उनके मुताबिक इसका सबसे भरोसेमंद उपाय ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के लिए उत्सर्जन को कम करना है।
अध्ययन के नतीजे अंतराष्ट्रीय जर्नल साइंस एडवांसेज में प्रकाशित हुए हैं।