जलवायु परिवर्तन: 57 फीसदी तक बढ़ जाएगा मकई की फसल के विफल होने का खतरा

अनुमान है कि इन चरम मौसमी घटनाओं के चलते एक ही वर्ष में दुनिया के तीन प्रमुख मक्का उत्पादक क्षेत्रों में फसल के विफल होने का खतरा दोगुना हो जाएगा
2012 में सूखे के चलते अमेरिका के आयोवा में विफल हुई मकई की फसल; क्रेडिट: यूएसडीए
2012 में सूखे के चलते अमेरिका के आयोवा में विफल हुई मकई की फसल; क्रेडिट: यूएसडीए
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कहावत है कि मुसीबतें कभी अकेले नहीं आतीं, वो अपने साथ अन्य समस्याओं को भी साथ लाती हैं। ऐसा ही कुछ नासा के एक नए अध्ययन में भी सामने आया है, जिसके अनुसार समय के साथ बढ़ते तापमान के चलते बाढ़, सूखा, लू जैसी चरम मौसमी घटनाएं कहीं ज्यादा विकराल रूप ले लेंगी और कृषि तथा स्वास्थ्य पर व्यापक असर डालेंगी।

अनुमान है कि मौसम की इन चरम घटनाओं के साथ फसलों के विफल होने, जंगल की आग और अन्य विपत्तियों का खतरा भी बढ़ जाएगा। जर्नल एनवायर्नमेंटल रिसर्च लेटर्स में प्रकाशित इस नए अध्ययन से पता चला है कि सदी के अंत तक लू, सूखा और भारी बारिश जैसी घटनाओं के संयुक्त प्रभाव से दुनिया के छह प्रमुख मक्का उत्पादक क्षेत्रों में से तीन में मकई की फसल पर जलवायु संबंधी विफलताओं का जोखिम किसी एक वर्ष में दोगुना हो जाएगा। जो एक साथ इन तीनों क्षेत्रों में फसल पैदावार में भारी गिरावट की वजह बन सकता है।

गौरतलब है कि इससे पहले भी कई अध्ययनों में जलवायु में आते बदलावों का मॉडल तैयार किया है। जैसी की एक निश्चित क्षेत्र में तापमान में 38 डिग्री सेल्सियस से ऊपर के दिनों की संख्या में कितनी वृद्धि होगी। लेकिन शोधकर्ताओं के मुताबिक इन घटनाओं का सबसे ज्यादा असर तब पड़ता है जब यह चरम घटनाएं एक साथ या निकट क्रम में घटती हैं।

उदाहरण के लिए अमेरिका के पश्चिमी राज्यों में जहां अत्यधिक गर्मी के साथ सूखा पड़ता है जिसकी वजह से जंगल की आग विकराल रूप ले लेती है। इसके बाद हुई भारी बारिश भूस्खलन जैसे खतरों को पैदा कर देती है। 

इन खतरों के सम्मिलित प्रभाव को समझने के लिए शोधकर्ताओं ने मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट के ग्रैंड एन्सेम्बल नामक एक प्रसिद्ध जर्मन जलवायु मॉडल का उपयोग किया है। इसमें उन्होंने 1991 से 2100 के बीच 100 से भी ज्यादा सिमुलेशन का उपयोग किया है।

यह समझने के लिए कि क्या भविष्य के लिए किया गया पूर्वानुमान सटीक होगा। शोधकर्ताओं ने पहले 1991 से 2020 के बीच घटी भारी बारिश और सूखे जैसी घटनाओं का सिमुलेशन किया है। निष्कर्षों के मेल खाने के बाद उन्होंने सदी के अंत तक घटने वाली इन चरम घटनाओं का विश्लेषण किया है, इसमें विशेष रूप से उन खतरों पर ध्यान केंद्रित किया गया है जो भविष्य में एक साथ घट सकते हैं।

इस विश्लेषण की मदद से कॉलिन रेमंड और उनके सहयोगियों ने यह समझने का प्रयास किया है कि कैसे तापमान और बारिश यह दोनों मिलकर मकई की पैदावार को कैसे प्रभावित कर सकते हैं। मक्का एक ऐसी खाद्य फसल है जो पूरी दुनिया में उगाई जाती है। जिन छह प्रमुख उत्पादक क्षेत्रों में प्रभावों का अध्ययन किया गया है वो लगभग इसकी कुल वैश्विक पैदावार का दो-तिहाई हिस्सा पैदा करते हैं।

गौरतलब है कि अमेरिका दुनिया का प्रमुख मक्का उत्पादक देश है, जिसने 2021 में लगभग 41.9 करोड़ टन मक्के की पैदावार की थी। यदि भारत की बात करें तो मक्का उत्पादन में उसका सातवां नंबर आता है जो विश्व का करीब 2 फीसदी मक्का पैदा कर रहा है। अनुमान है कि 2018-19 में देश में इसकी कुल पैदावार करीब 2.78 करोड़ मीट्रिक टन थी।   

300 फीसदी तक बढ़ सकती हैं भीषण गर्मी और लू की घटनाएं

शोधकर्ताओं को इस मॉडल सिमुलेशन से पता चला है कि सदी के अंत तक दुनिया भर में आमतौर पर तीन से चार दिनों तक चलने वाली गर्मी की इन लहरों के घटने की सम्भावना 100 से 300 फीसदी तक बढ़ जाएंगी। इसी तरह सभी क्षेत्रों में भारी बारिश की घटनाओं में भी वृद्धि हो जाएगी, कुछ क्षेत्रों में तो तीन से चार दिनों तक चलने वाली यह घटनाएं दोगुनी तक हो सकती है। 

इसके साथ ही शोधकर्ताओं ने यह भी विश्लेषण किया है कि यह बढ़ी हुई घटनाएं, समय और स्थान पर कैसी एक साथ आघात करेंगी और यह मिलकर मक्के की फसल को कैसे प्रभावित कर सकती हैं।

शोधकर्ताओं द्वारा निकाले गए निष्कर्षों के मुताबिक किसी एक ही वर्ष में कम से कम दुनिया के तीन प्रमुख मक्का उत्पादक क्षेत्रों में इन चरम मौसमी घटनाओं के चलते मक्के की फसल के विफल होने की सम्भावना सदी के अंत तक दोगुनी हो जाएगी। जोकि वर्तमान में 28.7 फीसदी से बढ़कर भविष्य में 57.3 फीसदी तक जा सकती है।

वहीं यदि पांच प्रमुख उत्पादक क्षेत्रों की बात करें तो इनमें किसी वर्ष में फसल के एक साथ विफल होने की सम्भावना 0.6 फीसदी से बढ़कर 5.4 फीसदी तक हो  सकती है। अनुमान है कि इसका सबसे ज्यादा खामियाजा अमेरिका के मिडवेस्ट इलाके में फसलों को भुगतना पड़ सकता है। जबकि उसके बाद यूरोप के सबसे ज्यादा प्रभावित होने की सम्भावना है। 

इस अध्ययन में इस बात की भी जांच की गई है कि आने वाले समय में जंगल में बढ़ती आग की घटनाएं, मानव स्वास्थ्य के लिए कितनी घातक हो सकती हैं। प्रमुख शोधकर्ता रेमंड कॉलिंस का कहना है कि यह सब घटनाएं आपस में जुड़ी हुई हैं। यह मामला सिर्फ लू या गर्मी और सूखे का ही नहीं है। जब हम इन बड़ी आपदाओं से निपटने की कोशिश कर रहे होते हैं तो यह मुद्दा इन चरम घटनाओं के आपसी अंतर्संबंधों का है, जिनका प्रभाव सबसे ज्यादा गंभीर होता है। 

इससे पहले भी जर्नल नेचर फूड में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में सामने आया था कि जलवायु में आते बदलावों के चलते 2030 तक मक्के और गेहूं की पैदावार प्रभावित हो सकती है। अनुमान है कि जहां अगले 8 वर्षों में मक्के की पैदावार 24 फीसदी तक गिर सकती है वहीं जलवायु में आते बदलावों का फायदा गेहूं को होगा जिसकी पैदावार 17 फीसदी तक बढ़ सकती है।

शोध से इतना तो स्पष्ट है कि उत्तरी गोलार्ध में गेहूं की पैदावार में होने वाली वृद्धि दक्षिण में मक्के की उपज में आने वाली गिरावट की भरपाई नहीं कर पाएगी। इसका असर न केवल खाद्य सुरक्षा पर पड़ेगा।

साथ ही पहले से ही गरीबी के मार झेल रहे छोटे किसानों को इसका खामियाजा भुगतना होगा। नतीजन आय में असमानता व्याप्त है वो पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा बढ़ जाएगी। देखा जाए तो जलवायु में आते इन बदलावों के लिए हम इंसान ही जिम्मेवार हो जो आज बड़ी तेजी से उत्सर्जन कर रहे हैं।

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