केले की खेती पर संकट: जलवायु परिवर्तन की चपेट में 60 फीसदी उपजाऊ क्षेत्र

रिपोर्ट में आशंका जताई गई है कि 2050 तक भारत और ब्राजील जैसे देशों में जलवायु परिवर्तन की वजह से केले की पैदावार घट सकती है
भारत में भी केले पर मंडरा रहा खतरा; फोटो: आईस्टॉक
भारत में भी केले पर मंडरा रहा खतरा; फोटो: आईस्टॉक
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केला दुनिया के सबसे पसंदीदा फलों में से एक है। लेकिन जलवायु की मार से यह भी सुरक्षित नहीं है। अंतराष्ट्रीय क्रिश्चियन एड ने अपनी नई रिपोर्ट ' गोइंग बनानाज: हाउ क्लाइमेट चेंज थ्रेट्स द वर्ल्ड्स फेवरेट फ्रूट' में आगाह किया है कि कैसे जलवायु में आते बदलावों के चलते केले के उत्पादन पर संकट के बदल मंडरा रहे हैं।

रिपोर्ट के मुताबिक केले की सबसे उपजाऊ जमीन का 60 फीसदी हिस्सा बढ़ते तापमान की वजह से खतरे में है। विश्लेषण में बढ़ते तापमान, बार-बार आने वाली चरम मौसमी घटनाओं, और जलवायु परिवर्तन से कीटों एवं बीमारियों के बढ़ते प्रकोप को लेकर भी आगाह किया है, जिनसे केले का उत्पादन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है।

रिपोर्ट में यह भी आशंका जताई गई है कि 2050 तक भारत और ब्राजील जैसे देशों में जलवायु परिवर्तन की वजह से केले की पैदावार घट सकती है। कोलंबिया और कोस्टा रिका जैसे प्रमुख निर्यातक देश भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे।

बता दें कि दुनिया में गेहूं, चावल और मक्का के बाद केला चौथी सबसे अहम खाद्य फसल है। रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया की एक बड़ी आबादी के लिए केला सिर्फ एक फल नहीं, बल्कि उनके जीवन का आधार है।

आंकड़े दर्शाते हैं कि दुनिया भर में 40 करोड़ से ज्यादा लोग अपने रोजाना की 15 से 27 फीसदी कैलोरी के लिए केले पर निर्भर हैं। ऐसे में यह सिर्फ एक मिठास भरा फल नहीं, बल्कि इन करोड़ों लोगों की थाली का एक अहम हिस्सा है।

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मौजूदा समय में दक्षिण अमेरिका और कैरेबियन देश दुनिया के 80 फीसदी केले का निर्यात करते हैं। यह केला दुनियाभर के सुपरमार्केट से होता हुआ हमारे घरों तक पहुंचता है। हालांकि, रिपोर्ट में कहा गया है कि बढ़ते तापमान और चरम मौसमी घटनाओं के कारण 2080 तक उस क्षेत्र में केले उगाने के लिए सबसे उपयुक्त 60 फीसदी जमीन बेकार हो सकती है।

यह क्षेत्र चरम मौसम और धीमी गति से बढ़ने वाली जलवायु आपदाओं के प्रति सबसे संवेदनशील क्षेत्रों में से एक है।

भारत में भी किसानों पर मंडरा रहा खतरा

गौरतलब है कि भारत दुनिया में केलों का सबसे बड़ा उत्पादक है। हालांकि रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत में यह लोकप्रिय फल जल्द ही जलवायु संकट की मार झेल सकता है। एक तरफ चरम मौसम की घटनाएं और दूसरी तरफ लंबे समय में तापमान बढ़ने और मानसून के बदलते मिजाज से देश में केले की खेती प्रभावित हो रही है।

भारत के केंद्रीय हिस्से में, जिसमें प्रमुख केला उत्पादक राज्य महाराष्ट्र भी शामिल है, 1950 के बाद से भारी बारिश की घटनाएं तीन गुणा बढ़ गई हैं, लेकिन कुल वार्षिक वर्षा में कमी आई है। एक अध्ययन में चेतावनी दी गई है कि अगर किसानों को बदलावों के लिए तैयार नहीं किया गया, तो 2050 तक केले की पैदावार में गिरावट आ सकती है। इसका सीधा असर देश की उस लगभग 43 फीसदी आबादी पर पड़ेगा जो खेती पर निर्भर है। पहले से ही, 2018 के आंकड़ों के अनुसार, 14 फीसदी भारतीय आबादी कुपोषण की शिकार है।

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वहीं पर्यावरण से जुड़ी अन्य समस्याएं भी खेती को प्रभावित कर रही हैं। भारत में केले की फसल पनामा डिजीज जैसी फंगल बीमारी और केले के कीट (वीविल) के हमलों से खतरे में है। जलवायु परिवर्तन से मौसम की अनिश्चितता और बीमारियों एवं कीटों की सफलता बढ़ रही है, जिससे केवल केला ही नहीं, बाकी खाद्य फसलें भी संकट में हैं। इससे देश में पहले से मौजूद कुपोषण की समस्या और गहराने का खतरा है।

ग्वाटेमाला की 53 वर्षीय किसान औरेलिया पॉप, जो केले की खेती पर निर्भर हैं, रिपोर्ट में अपनी परेशानी जाहिर करते हुए कहती हैं, "जलवायु परिवर्तन ने हमारी फसलें बर्बाद कर दी। अब बेचने को कुछ नहीं बचता, आमदनी भी नहीं होती। मेरा बागान धीरे-धीरे मरता जा रहा है। बस, सब कुछ खत्म हो रहा है।"

उनका आगे बताया कि, "पहले कहा गया था कि ये सब भविष्य में होगा, लेकिन यह समय से पहले ही शुरू हो गया है। हम अपनी जमीन और पारिस्थितिक तंत्र की देखभाल नहीं कर रहे। यह हमारे बच्चों और खासकर आने वाली पीढ़ियों के लिए बेहद चिंताजनक है।" "सबसे बड़ी चिंता यह है कि भविष्य में हालात और बिगड़ सकते हैं और पूरे बागान ही खत्म हो सकता है। मेरे लिए यह बहुत बड़ा नुकसान होगा।"

देखा जाए तो यह फसल इंसानों द्वारा पैदा किए जलवायु संकट के कारण खतरे में है। जलवायु में आता यह बदलाव उन समुदायों की जीविका के लिए भी खतरा पैदा कर रहा है जिनका इस संकट को पैदा करने में कोई हाथ नहीं है।

गौरतलब है कि केले की अच्छी फसल के लिए 15 से 35 डिग्री सेल्सियस तापमान जरूरी होता है, लेकिन यह फसल पानी की कमी को बिल्कुल सहन नहीं कर पाती। वहीं तेज तूफानी हवाओं में पत्तियां फट जाती हैं, जिससे पौधों में फोटोसिंथेसिस पर असर पड़ता है। बढ़ते तापमान की वजह से फंगल बीमारियां भी बढ़ रही हैं। ऐसी ही एक बीमारी, फ्यूजेरियम ट्रॉपिकल रेस 4 पूरे के पूरे बागान को ही नष्ट कर सकती है। चिंता की बात है कि यह बीमारी कई देशों में फैल चुकी है।

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रिपोर्ट में यह भी सामने आया है कि 'ब्लैक लीफ' फंगस केले के पौधों में प्रकाश संश्लेषण की क्षमता को 80 फीसदी तक कम कर सकता है। यह फंगस नम और गीले हालात में तेजी से फैलता है, ऐसे में अनियमित बारिश और बाढ़ जैसे हालातों में केले की फसल पर इसका खतरा और बढ़ जाता है।

जलवायु परिवर्तन से हावी होते कीट-बीमारियां

बनाना लिंक की प्रोजेक्ट कोर्डिनेटर हॉली वुडवर्ड-डेवी ने रिपोर्ट में जानकारी दी है, "ज्यादा गर्मी के कारण केले के पौधे बीमारियों और संक्रमण के प्रति कहीं अधिक संवेदनशील हो जाते हैं। अगर हमने कृषि की मौजूदा प्रणाली में बदलाव नहीं किया, तो 'कैवेंडिश' किस्म के केले फ्यूजेरियम ट्रॉपिकल रेस 4 नाम की फंगस से पूरी तरह नष्ट हो सकते हैं।

यह बीमारी पौधों की जड़ों पर हमला करती है और पूरी खेती को खत्म कर सकती है। यह फंगस अब कोलंबिया और पेरू जैसे यूरोपीय बाजारों के प्रमुख सप्लायर देशों में फैल चुका है।"

रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया में केले की कई किस्में हैं, लेकिन निर्यात में कैवेंडिश की हिस्सेदारी सबसे अधिक है। यह दुनिया भर में उगाई जाने वाली केले की सबसे आम किस्म भी है। केले की कुछ खास किस्मों पर बेहद अधिक निर्भरता तेजी से बदलती जलवायु में इसे विशेष रूप से संवेदनशील बना रहा है।

विशेषज्ञों ने भी रिपोर्ट में इस बात पर जोर दिया है कि सिर्फ 'कैवेंडिश' तक सीमित न रहें, बल्कि केले की बाकी सैकड़ों किस्मों की तरफ भी ध्यान दें, जिनमें जलवायु के अनुकूल गुण हो सकते हैं। इनमें से कई किस्में तो ऐसी हैं जिनपर अभी तक ज्यादा शोध नहीं हुआ है।

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ऐसे में केले की खेती को बचाने के लिए क्रिश्चियन एड ने सरकारों से जल्द से जल्द अपने उत्सर्जन को कम करने की अपील की है। संगठन का कहना है कि केले की खेती में लगे किसानों और कृषि समुदायों को अंतरराष्ट्रीय जलवायु फंड से मदद मिलनी चाहिए, ताकि वे जलवायु में आते इन बदलावों का सामना कर सकें। यह वो समस्या है जो इन लोगों के द्वारा पैदा नहीं की गई है।

क्रिश्चियन एड की नीति और अभियान निदेशक ओसाई ओजिघो ने रिपोर्ट में कहा है, "पेरिस समझौते के तहत देश इस साल अपनी नई राष्ट्रीय जलवायु कार्ययोजनाएं पेश करेंगे, जिनमें उत्सर्जन घटाने के नए लक्ष्य शामिल होंगे।

यह बड़ा मौका है कि देश जीवाश्म ईंधनों से हटकर स्वच्छ ऊर्जा की ओर तेजी से कदम बढ़ा सकते हैं। साथ ही उन्हें यह भी सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि जलवायु वित्त उन लोगों तक पहुंचे जिन्हें इसकी सबसे अधिक आवश्यकता है। वैश्विक नेताओं को इस मौके को गंवाना नहीं चाहिए।"

क्रिश्चियन एड ने लोगों से भी अपील की है कि वे फेयरट्रेड वाले केले खरीदें, जिससे किसानों को उनकी मेहनत का सही दाम मिल सके। इसके अलावा, जैविक केले चुनने की भी सलाह दी गई है, क्योंकि इनकी खेती में रासायनिक खादों का इस्तेमाल कम होता है। यह खाद न केवल जलवायु को नुकसान पहुंचाती हैं, बल्कि साथ ही मिट्टी और पर्यावरण की सेहत को भी प्रभावित करती है।

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