भारत जैसे देशों में लोग लम्बे समय से खेती-बाड़ी छोड़ शहरों की ओर पलायन करते रहे हैं। हालांकि इस पलायन के पीछे की बड़ी वजह जीविका के बेहतर अवसर और शहरी चकाचौंध रहे हैं, जो लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते रहे हैं।
लेकिन इन सबके बीच जलवायु परिवर्तन भी प्रभावित आबादी को अपने देश में ही दूसरे क्षेत्रों की ओर पलायन करने को मजबूर कर रहा है। इसका प्रभाव विशेषरूप से कृषि पर निर्भर ग्रामीण क्षेत्रों में कहीं ज्यादा स्पष्ट है, जहां जीविका जलवायु में आते बदलावों के प्रति बेहद संवेदनशील है।
पिछले एक दशक में जलवायु परिवर्तन की वजह से प्रवासन पर पड़ने वाले प्रभावों ने आम जनता और नीति निर्माताओं का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। इसी दिशा में इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट फॉर एप्लाइड सिस्टम्स एनालिसिस (आईआईएएसए) से जुड़े शोधकर्ताओं के नेतृत्व में एक नया अध्ययन किया है।
यह अध्ययन इस बात का पहला विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत है कि कैसे सूखा और शुष्कता आंतरिक प्रवास को प्रभावित करते हैं।
देखा जाए तो अक्सर इस विषय में होने वाली चर्चाएं अंतर्राष्ट्रीय प्रवास पर केंद्रित होती हैं। लेकिन इस नए अध्ययन से पता चला है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से लोग अक्सर अपने ही देश के आसपास के इलाकों में चले जाते हैं। मतलब की इस तरह का प्रवास देशों की सीमाओं के भीतर छोटी यात्राओं के रूप में भी होता है।
जर्नल नेचर क्लाइमेट चेंज में प्रकाशित इस नए अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 72 देशों के जनगणना संबंधी आंकड़ों का का विश्लेषण किया है, ताकि यह समझा जा सके कि सूखे जैसे पर्यावरण से जुड़े तनाव देशों की सीमाओं के भीतर लोगों के प्रवास को कैसे प्रभावित करते हैं।
शोधकर्ताओं के मुताबिक जब सूखा और शुष्क परिस्थितियां गहराती हैं तो लोग देश के भीतर ही अपने घरों को छोड़ दूसरे क्षेत्रों की ओर ज्यादा पलायन करते हैं। खासकर जो क्षेत्र बेहद शुष्क होते हैं, वहां इस तरह का पलायन बेहद आम होता है।
ग्रामीण, कृषि पर निर्भर क्षेत्रों में आम है इस तरह का पलायन
अध्ययन से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता रोमन हॉफमैन ने प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से कहा है कि, "इस तरह का पलायन ग्रामीण और कृषि प्रधान क्षेत्रों में बेहद स्पष्ट होता है, जहां लोगों की जीविका बदलती जलवायु परिस्थितियों के प्रति बेहद संवेदनशील होती हैं।" उनके मुताबिक इनमें से कई प्रवासी शहरों की ओर रूख करते हैं, जिससे कई देशों में शहरी विकास में तेजी आती है।
अध्ययन से पता चला है कि सूखे और शुष्क परिस्थितियों का सबसे ज्यादा असर अफ्रीका, मध्य पूर्व, दक्षिण अमेरिका, दक्षिण एशिया और दक्षिणी यूरोप जैसे क्षेत्रों पर पड़ता है। ये क्षेत्र काफी हद तक कृषि पर निर्भर हैं और जलवायु पहले से ही शुष्क है। इन क्षेत्रों में आर्थिक कठिनाई और पर्यावरणीय चुनौतियों के मिश्रित प्रभावों के चलते लोगों के पलायन की आशंका कहीं ज्यादा होती है।
नतीजे दर्शाते हैं कि लोग समृद्ध क्षेत्रों की ओर ज्यादा रूख करते हैं, जहां पलायन करना आसान होता है। देशों के भीतर, जलवायु की मार झेलने के बाद कमजोर और गरीब इलाकों से ज्यादा लोग समृद्ध क्षेत्रों की ओर पलायन करते हैं।
अध्ययन में यह भी सामने आया है कि समूहों के बीच पलायन के पैटर्न भी अलग-अलग होते हैं। जहां कमजोर देशों में जिन युवाओं ने थोड़ी बहुत शिक्षा हासिल की है उनके सूखे की वजह से पलायन की आशंका ज्यादा होती है। वहीं दूसरी तरफ समृद्ध देशों में बुजुर्गों के पलायन की आशंका कहीं ज्यादा होती है।
इस बारे में आईआईएएसए के माइग्रेशन और सस्टेनेबल डेवलपमेंट रिसर्च ग्रुप के शोधकर्ता गाय एबेल ने जानकारी देते हुए कहा है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से सूखे और पानी की कमी बढ़ रही है, इसकी वजह से ज्यादा से ज्यादा लोगों पर बेहतर जीवन की तलाश में पलायन का दबाव बढ़ेगा। यह अध्ययन ऐसी नीतियों की आवश्यकता पर प्रकाश डालता है जो पलायन के कारणों और लोगों के गंतव्य स्थानों पर पड़ने वाले प्रभाव दोनों को संबोधित करती हो।"
उनके मुताबिक पर्याप्त बुनियादी ढांचा, स्वास्थ्य सेवाएं और सामाजिक सहायता प्रणालियां उन शहरी क्षेत्रों के लिए बेहद मायने रखती हैं, जहां जलवायु परिवर्तन की वजह से आने वाले प्रवासियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है।
अध्ययन में उस कमजोर आबादी को सहायता देने पर भी जोर दिया है जो खास तौर पर साधनों की कमी के चलते पलायन नहीं कर सके। इसी तरह ऐसी नीतियां जो इन क्षेत्रों में आय के नए अवसर पैदा करती हैं, सामाजिक सहायता प्रदान करती हैं वो प्रभावित समुदायों को जलवायु से जुड़ी इन परिस्थितियों से निपटने में मदद कर सकती हैं।
यह नीतियां न केवल जबरन पलायन और विस्थापन को कम करने में मदद कर सकती हैं, साथ ही उन लोगों के लिए भी मददगार हो सकती हैं जो पीछे छूट गए हैं।