गांव से शहरों में होने वाला पलायन हमेशा से आकस्मिक अथवा दीर्घकालीन आर्थिक आघात का संकेतक रहा है। अधिकांश समय इस आघात के पीछे जलवायु कारक रहे हैं।
उदाहरण के लिए, गंभीर सूखे अथवा चक्रवात के कारण आजीविका खत्म हो जाती है] जो अंतत: पलायन बढ़ाती है। समय के साथ पलायन हालात से जूझने के एक तंत्र के रूप में विकसित हुआ है। आप इसे अनुकूलन प्रतिक्रिया के रूप में भी परिभाषित कर सकते हैं।
जलवायु आपातकाल इसे और तीव्र कर रहा है क्योंकि अधिक से अधिक आपदाएं देशों को प्रभावित कर रही हैं। यह आपातकाल लोगों की सहनशक्ति को भी लगातार कम कर रहा है। इंटरनेशनल ऑर्गनाइजेशन फॉर माइग्रेशन (आईओएम) का कहना है कि जलवायु परिवर्तन से प्रेरित आपदाएं पलायन को नए रूप दे रही हैं।
अब पलायन केवल देश के भीतर ही नहीं] बल्कि देशों के बीच भी हो रहा है। विश्व बैंक के अनुमान के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के कारण देश के भीतर पलायन बढ़ रहा है।
2050 तक 21.6 करोड़ लोग देश के भीतर पलायन करेंगे। यह प्रवृत्ति पहले से ही है कि युद्ध और संघर्षों के मुकाबले जलवायु परिवर्तन से प्रेरित मौसमी आपदाएं विस्थापन के लिए अधिक जिम्मेदार हैं।
समय के साथ बहुत से देश पलायन करने वाले जनसैलाब को शहरों में नहीं खपा पाएंगे और लोगों को अंतत: दूसरे देशों में जाना होगा, भले ही वहां उनका स्वागत हो या न हो।
अब यह भविष्य का परिदृश्य नहीं है, बल्कि इसे हम मौजूदा समय में ही देख सकते हैं। जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (आईपीसीसी) के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के कारण आजीविका के स्रोतों पर संकट मंडराने के परिणामस्वरूप “2050 तक 2.5 अरब अतिरिक्त लोगों के शहरी क्षेत्रों में रहने का अनुमान है।”
दुनिया इस वास्तविकता को जान रही है और जलवायु परिवर्तन के ढांचे के भीतर जलवायु कारकों के कारण होने वाले विस्थापन और पलायन पर चर्चा की जा रही है।
आईओएम के महानिदेशक एंटोनियो विटोरिनो कहते हैं, “जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभाव हर जगह पलायन की प्रवृत्ति को आकार दे रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय समुदाय अब जलवायु परिवर्तन के प्रभावों पर विचार किए बिना पलायन और विकास नीति को लागू नहीं कर सकता।”
पलायन को पहले से एक अनुकूलन उपकरण के रूप में स्वीकार्यता प्राप्त है। भारत के पुराने सूखाग्रस्त क्षेत्रों से दिहाड़ी मजदूरों का देशभर में पलायन हुआ है। यह पलायन उनकी आय का प्रमुख स्रोत बनकर उभरा है। इन क्षेत्रों में एक किसान खेती से अधिक मजदूरी से कमाता है।
एक देश के भीतर काउंटी अथवा राज्यों में ऐसे तंत्र हैं जो न केवल प्रवासियों को सुविधा प्रदान करते हैं बल्कि उनकी आजीविका को आगे बढ़ाने के अधिकार की रक्षा भी करते हैं।
हालिया समय में भारतीय राज्य आपदाग्रस्त क्षेत्रों से लोगों के पुनर्वास के लिए योजनाओं/कार्यक्रमों को अपना रहे हैं। उत्तराखंड में आपदा प्रभावित गांवों के पुनर्वास की योजना है, वहीं ओडिशा समुद्र के कटाव से प्रभावित गांवों का पुनर्वास कर रहा है।
इसके अलावा प्रवासी श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा और सुरक्षा के लिए कई राज्यों में समझौते हैं। संक्षेप में कहें तो ये कदम विवशता भरे पलायन को देखते हुए अनुकूलन रणनीति के तौर पर विकसित हुए हैं।
एक खराब जलवायु युग में हम पूरी धरती पर ऐसी अनुकूलन प्रतिक्रिया को अनुभव करेंगे लेकिन, देशों की अपनी सीमाएं हैं जो इसका सम्मान नहीं करती। इससे दुनिया में पहले से ही व्याप्त आव्रजन संकट और गहराएगा।
न केवल जलवायु, बल्कि जितने भी वैश्विक सम्मेलन हो रहे हैं, उन सबमें जलवायु परिवर्तन के कारण पलायन के संकट पर अलग-अलग तरीकों से बात हो रही है। लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण एक से दूसरे देश में पलायन को सुविधाजनक बनाने के लिए समझौता अभी भी दूर की राजनीतिक कौड़ी है।
जलवायु संकट के खिलाफ लड़ाई में सहयोग के लिए यह अगला सबसे बड़ा वैश्विक आह्वान हो सकता है। आईओएम ने यूएनएफसीसीसी के कॉप 27 की पूर्व संध्या पर अपने आह्वान में जलवायु परिवर्तन और प्रवासन नीतियों पर पेरिस जैसे समझौते की मांग की।
इसके मूल में जलवायु परिवर्तन के कारण पलायन को मान्यता दिलाना है। अगर इसमें सफलता मिल गई तो जलवायु परिवर्तन के कारण पलायन या गतिशीलता को जलवायु ढांचे के भीतर “नुकसान और क्षति” की परिभाषा के तहत स्वीकार करना होगा।
अनुकूलन के लिए पलायन के मामले में राजनीतिक सीमाओं को खत्म करने या भौगोलिक क्षेत्रों में पुनर्वास की आवश्यकता होती है। जरूरी नहीं कि यह पुर्नवास देश के भीतर ही हो। ऐसे मामलों में नुकसान व क्षति की भरपाई की उम्मीद की जा सकती है।
हालांकि यह लंबी प्रक्रिया है, लेकिन भविष्य के लिए इस तरह के अनुकूलन उपायों के बारे में न सोचकर हम जलवायु जनित आपदाओं को और विकराल करेंगे। हमें जहां संभव हो वहां रह सकने, राजनीतिक सीमाओं के भीतर अथवा बाहर रहने के विकल्प खोजने होंगे क्योंकि मौजूदा वक्त में हर कोई जलवायु का शिकार है।