"मैं केले के खेतों में लाखों रुपये की दवाई डाल चुका हूं, मुश्किल से दो महीने तक ही संक्रमण रुकता है। इसके बाद केलों के पेड़ों में संक्रमण का फैलाव फिर शुरु हो जाता है। इस संक्रमण में केले के पेड़ ही सूख और सड़कर गिर जाते हैं। यह सिलसिला बीते कई वर्षों से चल रहा है। लखनऊ और गोरखपुर से डॉक्टर आए, लेकिन इस बीमारी का कोई इलाज नहीं निकला। वैज्ञानिक कहते हैं कि यह केले का कैंसर है, जिसकी कोई दवाई नहीं है। मैं तीस वर्षों से केले की खेती कर रहा हूं लेकिन जैसी बर्बादी इस बार लगातार हुई बारिश और फैलते संक्रमण के बाद हुई है, ऐसी कभी नहीं हुई"।
भारत-नेपाल की सीमा साझा करने वाले उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थनगर जिले में खुनियांव ब्लॉक में बेलवा गांव के किसान सुदर्शन मौर्या ने यह बात डाउन टू अर्थ से साझा की।
केले की खेती के बारे में ग्रामीण अपना अनुभव साझा करते हैं औऱ कहते हैं कि पानी ही केले की खेती को जिंदा करता है और पानी ही केले की खेती को मार देता है। हल्की नमी हो तो केला अच्छा पनपता है जबकि इस बार मई से लेकर जुलाई के बीच गांव वालों ने लगातार बारिश का अनुभव किया है। सुदर्शन कहते हैं कि दो महीनों में शायद ही कोई दिन ऐसा रहा हो जिस दिन बारिश न हुई हो, वे कहते हैं कि उनका अनुभव है कि बारिश के साथ केले के पेड़ों में कवक संक्रमण का तेजी से विस्तार होता है।
सिद्धार्थनगर जिले के खुनियांव क्षेत्र में मुख्य रूप से केले की खेती होती है। लगातार हो रही बारिश ने खेतों की मिट्टी को केले की खेती के प्रतिकूल दलदली बना दिया है। हालांकि, मनरेगा के तहत इस बार ज्यादातर खेतों को जोड़ने वाली कच्ची सड़कों ने किसानों को उनके केला बागानों तक पहुंचने का रास्ता थोड़ा सुगम बना दिया है।
सुदर्शन मौर्या कुल सात भाई हैं और संयुक्त तौर पर 42 बीघे में केले की खेती करते हैं। चारो तरफ केले के खेत ही खेत हैं। वर्षा हुई है लेकिन खेतों के आस-पास बेहद उमस है। कृषक सुदर्शन मौर्य और उनके भाई जब हसे मिलते हैं तो उनकी बुशर्ट और पैंट मिट्टी में सने हुए हैं।
वे कहते हैं “बीते वर्ष जून के पहले सप्ताह में कुल 42 बीघे में 90 हजार रुपए सरकारी अनुदान के सहयोग के साथ केले लगाए थे। अब तक खाद, कीटनाशक, दवाईयां, लेबर चार्ज आदि का खर्चा लगभग 12 लाख रुपए से अधिक लग चुका है, जबकि बर्बादी के कारण यह लागत भी शायद नहीं निकल पाएगी।“
आस-पास के गांव में खेतों में भी केलों के गुच्छे तो लगे हुए हैं जिन्हें बोरों से ढ़का गया है लेकिन तमाम केलों की पत्तियां सूख रही हैं या फिर पेड़ जड़ से ही खराब होकर गिर रहे हैं।
जिला बागान अधिकारी एन राम डाउन टू अर्थ से बताते हैं कि बीते वर्ष कुछ किसानों ने कवक संक्रमण को लेकर शिकायत की थी वहीं, असमय वर्षा और तूफान आदि के कारण होने वाले नुकसान से तमाम किसान हतोत्साहित भी हुए थे, लेकिन स्थिति अब सुधर रही है। जिले में कुल करीब 500 हेकट्येर में केले की खेती होती है।
बेलवा गांव के ही एक अन्य केला किसान खैरू चौधरी भी बारिश और संक्रमण के फैलाव से परेशान हैं। छोटू चौधरी कहते हैं कि करीब 18 महीनों में केले तैयार होते हैं, लगातार बढ़ रहे दवाई और कीटनाशक के प्रयोग के कारण प्रत्येक बीघे में केले की खेती की लागत में काफी इजाफा हुआ है। मसलन अब करीब 25 हजार रुपये तक प्रति बीघे केले की खेती में खाद, लेबर और दवाई आदि की लागत लगती है।
श्रावस्ती के पारेवपुर गांव में दिनेश प्रताप सिंह कुल 13 एकड़ में केले की खेती करते हैं। वे कहते हैं कि पनामा विल्ट जैसी महामारी उनके यहां कभी अनुभव नहीं हुई है लेकिन बीते चार से पांच वर्षों में केले के पत्ते मार्च से अप्रैल महीने के बीच जल जाते हैं। यह कैसा संक्रमण है और इसका कारण क्या है, यह अभी पता नहीं है। आस-पास काफी ईंट-भट्ठे हैं तो एक कारण शायद यह हो सकता है लेकिन यह समस्या अभी इतनी ज्यादा नहीं बढ़ी है।
संक्रमण ने हाल-फिलहाल पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ जिलों में केले के कृषकों को परेशान किया है और कई किसान लागत न निकलने से काफी हताश हो चुके हैं।