बेलेम में शुरू हो रही उम्मीदों की बैठक: क्या कॉप-30 से निकल सकता है जलवायु संकट का समाधान

ब्राजील के बेलेम में हो रही कॉप-30 की यह बैठक तय करेगी कि दुनिया डेढ़ डिग्री के लक्ष्य को बचा पाएगी या नहीं, अब वादों का नहीं कार्रवाई का वक्त आ चुका है।
बेलेम में शुरू हो रही उम्मीदों की बैठक: क्या कॉप-30 से निकल सकता है जलवायु संकट का समाधान
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सारांश
  • बेलेम में आयोजित कॉप-30 बैठक में वैश्विक नेता जलवायु संकट के समाधान पर चर्चा करेंगे। धरती पर बढ़ते तापमान और चरम मौसमी घटनाओं के बीच, यह बैठक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने और जलवायु आपदाओं से निपटने के लिए ठोस कदम उठाने का मंच बनेगी।

  • भारत के लिए यह सम्मेलन जलवायु न्याय और वैश्विक नेतृत्व का अवसर है।

  • मानवता इस समय इतिहास के सबसे गहरे जलवायु संकट के दौर से गुजर रही है। पिछले तीन साल, 2023 से 2025 में धरती ने रिकॉर्ड तोड़ गर्मी झेली है।

  • इस अवधि में वैश्विक औसत तापमान औद्योगिक काल (1850-1900) के मुकाबले डेढ़ डिग्री सेल्सियस से बढ़ चुका है, जो जलवायु इतिहास में पहली बार हुआ है।

  • कॉप-30 में इस बार चर्चा के केंद्र में वे मुद्दे होंगे जो तय करेंगे कि आने वाले दशकों में धरती का भविष्य कैसा होगा। यह सिर्फ एक सम्मेलन नहीं, बल्कि नीति, न्याय और अस्तित्व की लड़ाई का मंच होगा।

  • इसमें हर देश को यह बताना होगा कि वह अपने उत्सर्जन को कितनी तेजी से कम करेगा। इस बार देशों से यह अपेक्षा की जा रही है कि वे 2035 तक के लिए नए और सख्त जलवायु लक्ष्य पेश करें। यानी, अब “वादा” नहीं, “कार्रवाई” दिखाने का समय है। इसके साथ ही मंथन का एक अहम मुद्दा जलवायु वित्त भी होगा।

  • गरीब और विकासशील देशों का सबसे बड़ा सवाल यही है जब जलवायु संकट का कारण अमीर देश हैं, तो नुकसान की भरपाई कौन करेगा?

मानवता इस समय इतिहास के सबसे गहरे जलवायु संकट के दौर से गुजर रही है। पिछले तीन साल, 2023 से 2025 में धरती ने रिकॉर्ड तोड़ गर्मी झेली है। इस अवधि में वैश्विक औसत तापमान औद्योगिक काल (1850-1900) के मुकाबले डेढ़ डिग्री सेल्सियस से बढ़ चुका है, जो जलवायु इतिहास में पहली बार हुआ है।

धरती पर तापमान लगातार बढ़ रहा है, समुद्र तेजी से उबल रहे हैं, ध्रुवों की बर्फ घट रही है और चरम मौसमी घटनाएं जैसे कभी बाढ़, कभी सूखा, कभी जंगलों में धधकती आग, तूफान आदि का आना अब सामान्य होता जा रहा है।

आपदाएं भी ऐसी जैसी पहले सैकड़ों वर्षों में एक बार आठ थी। वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर दुनिया ने अब भी ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर लगाम न लगाई, तो आने वाले दशक में जीवन, खाद्य सुरक्षा और अर्थव्यवस्था तीनों पर भारी असर पड़ेगा।

देखा जाए तो धरती अब चेतावनी नहीं दे रही, बल्कि सीधे संकेत भेज रही है कि समय निकल रहा है। ऐसे समय में जब जलवायु की रोकथाम को लेकर अनगिनत वार्ताएं हो चुकी हैं, वैश्विक नेता एक बार फिर इस मुद्दे पर चर्चा के लिए यूएनएफसीसीसी के नेतृत्व में ब्राजील के बेलेम में एकजुट हो रहे हैं।

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आइए समझते हैं, क्यों महत्वपूर्ण है इस बार यह चर्चा और क्या कुछ लगा है इस पर दांव पर और भारत के क्या हैं इसके मायने साथ ही आम लोगों को इसे गंभीरता से लेने की जरूरत क्यों है।

क्या है कॉप-30, जिस पर टिकी हैं दुनिया भर की निगाहें?

कॉप-30 यानी कॉन्फ्रेंस ऑफ द पार्टीज, संयुक्त राष्ट्र की एक बड़ी वार्षिक बैठक है, जो जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए बनाई गई वैश्विक संधि यूएनएफसीसीसी का हिस्सा है। इस साल यह यूएनएफसीसीसी के अंतर्गत होने वाली यह 30वीं बैठक है।

गौरतलब है कि यह एक वैश्विक मंच है जिसमें दुनिया के करीब-करीब हर देश एकजुट होते हैं और यह तय करते हैं कि वे ग्रीनहाउस गैसों के बढ़ते उत्सर्जन को कैसे कम करेंगे, और जलवायु आपदाओं से निपटने के लिए खुद को कैसे तैयार करेंगे। साथ ही जलवायु संकट को रोकने के लिए कौन-से ठोस कदम उठाए जाएं जैसे कार्बन उत्सर्जन को घटाना, स्वच्छ ऊर्जा को बढ़ावा देना, और जलवायु आपदाओं से प्रभावित देशों की मदद करना।

देखा जाए तो क्योतो सम्मेलन से लेकर शर्म अल शेख तक, जलवायु संकट से निपटने के लिए हर वर्ष संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में संकल्प व्यक्त किए गए हैं। लेकिन इसके बावजूद अब तक तापमान का बढ़ना नहीं रुका है।

कब और कहां हो रहा है इस बार यह सम्मेलन?

कॉप-30 का आयोजन 10 से 21 नवंबर 2025 के बीच ब्राजील के बेलेम शहर में किया जाएगा। बेलेम, ब्राजील के अमेजन वर्षावन क्षेत्र के पास स्थित है। अमेजन जिसे “धरती के फेफड़े” भी कहा जाता है क्योंकि यह बड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड को सोखकर वैश्विक तापमान को संतुलित रखने में मदद करते हैं।

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देखा जाए तो इस बार सम्मेलन का यह स्थान प्रतीकात्मक रूप से बेहद खास है, क्योंकिं दुनिया के सबसे बड़े वर्षावन के बीच बैठकर जलवायु संकट पर चर्चा करना हमें यह याद दिलाता है कि समाधान सिर्फ बैठकों में नहीं, बल्कि धरती के उन हिस्सों में छिपा है जो आज सबसे ज्यादा संकट में हैं।

क्यों अहम है इस बार यह बैठक?

कॉप-30 को अब तक की सबसे अहम जलवायु बैठक माना जा रहा है, क्योंकि यह वह मोड़ है जहां दुनिया को तय करना है कि क्या हम अभी कार्रवाई करेंगे या बहुत देर हो जाएगी। 2015 में हुए पेरिस समझौते के तहत तय किया गया था कि दुनिया तापमान में हो रही वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखेगी।

लेकिन 2023 से 2025 के बीच धरती ने यह सीमा पहली बार पार कर ली है। इसका मतलब है कि अब खतरा केवल भविष्य का नहीं, बल्कि मौजूदा समय का है।

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इस सम्मेलन में देश अपने नए जलवायु लक्ष्य तय करेंगे। यानी हर देश बताएगा कि वह अपने उत्सर्जन में कितनी कटौती करेगा। साथ ही कब तक “नेट जीरो” यानी शुद्ध-शून्य उत्सर्जन तक पहुंचेगा। यह आने वाले दशक की जलवायु नीति को तय करेगा।

कॉप-30 में चर्चा का बड़ा मुद्दा जलवायु वित्त भी रहेगा यह अमीर देशों द्वारा गरीब देशों को जलवायु आपदाओं से निपटने के लिए मिलने वाली मदद है। विकासशील देश लंबे समय से इसकी मांग कर रहे हैं, लेकिन अब तक वादे पूरे नहीं हुए।

यह बैठक ऐसे समय हो रही है जब दुनिया के कई हिस्सों में चरम मौसमी घटनाएं जैसे लू, सूखा, बाढ़ आदि रिकॉर्ड स्तर पर बढ़ गई हैं। वैज्ञानिक चेतावनी दे चुके हैं कि अगर अब भी कदम नहीं उठाए गए, तो अगला दशक मानव इतिहास का सबसे असुरक्षित दौर बन सकता है।

किन मुद्दों पर होगा मंथन?

कॉप-30 में इस बार चर्चा के केंद्र में वे मुद्दे होंगे जो तय करेंगे कि आने वाले दशकों में धरती का भविष्य कैसा होगा। यह सिर्फ एक सम्मेलन नहीं, बल्कि नीति, न्याय और अस्तित्व की लड़ाई का मंच होगा।

इसमें हर देश को यह बताना होगा कि वह अपने उत्सर्जन को कितनी तेजी से कम करेगा। इस बार देशों से यह अपेक्षा की जा रही है कि वे 2035 तक के लिए नए और सख्त जलवायु लक्ष्य पेश करें। यानी, अब “वादा” नहीं, “कार्रवाई” दिखाने का समय है। इसके साथ ही मंथन का एक अहम मुद्दा जलवायु वित्त भी होगा।

गरीब और विकासशील देशों का सबसे बड़ा सवाल यही है जब जलवायु संकट का कारण अमीर देश हैं, तो नुकसान की भरपाई कौन करेगा?

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इस बार बैठक में अमीर देशों से उम्मीद है कि वे 100 अरब डॉलर सालाना की प्रतिबद्धता पूरी करें और साथ ही ‘लॉस एंड डैमेज फंड’ को मजबूत करें, ताकि आपदाओं से पीड़ित देशों को वास्तविक मदद मिल सके। इसके साथ ही कोयला, तेल और गैस पर निर्भरता खत्म करने पर सख्त बहस होगी। कई देश चाहते हैं कि इस बार एक स्पष्ट समयसीमा तय की जाए कि दुनिया कब तक इन ईंधनों को अलविदा कहेगी।

कॉप-30 में यह भी देखा जाएगा कि जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा प्रभावित समुदायों जैसे छोटे द्वीपीय देश, किसान और गरीब आबादी को कैसे सुरक्षित किया जाए। जलवायु न्याय का मतलब यही है कि जो सबसे कम जिम्मेदार हैं, उन्हें सबसे ज्यादा भुगतना न पड़े।

पेरिस समझौते के तहत हर देश को अपनी जलवायु प्रगति के आंकड़े साझा करने होंगे। कॉप-30 में यह तय किया जाएगा कि कौन कितना काम कर रहा है, कौन सिर्फ वादे कर रहा है।

भारत के लिए क्या हैं इसके मायने?

भारत के लिए कॉप-30 सिर्फ एक वैश्विक सम्मेलन नहीं, बल्कि भविष्य की दिशा तय करने वाला अवसर है। क्योंकि जलवायु परिवर्तन का असर सबसे ज्यादा उन देशों पर पड़ रहा है जो इसके लिए सबसे कम जिम्मेदार हैं। लेकिन दूसरी तरफ वे इसके प्रति सबसे अधिक संवेदनशील भी हैं और भारत उन्हीं देशों में से एक है।

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देखा जाए तो भारत को विकास की रफ्तार बनाए रखते हुए अपने कार्बन उत्सर्जन को घटाना है। देश की 75 फीसदी ऊर्जा अभी भी जीवाश्म ईंधनों पर निर्भर है। ऐसे में भारत के सामने दोहरी चुनौती है एक तरफ ऊर्जा सुरक्षा और दूसरी तरफ वैश्विक जलवायु प्रतिबद्धता।

भारत लगातार यह मांग करता रहा है कि अमीर देश अपनी जलवायु वित्त प्रतिबद्धताओं को पूरा करें, ताकि विकासशील देश अक्षय ऊर्जा, पर्यावरण अनुकूल  बुनियादी ढांचा और अनुकूलन योजनाओं में निवेश कर सकें।

कॉप-30 भारत के लिए यह देखने का मौका है कि क्या “जलवायु न्याय” पर दुनिया वास्तव में गंभीर है या नहीं।

भारत पहले से ही सौर ऊर्जा और ग्रीन हाइड्रोजन के क्षेत्र में वैश्विक नेतृत्व दिखा रहा है। कॉप-30 में भारत यह दिखाना चाहेगा कि वह न केवल समस्या का हिस्सा है, बल्कि समाधान का केंद्र भी बन सकता है।

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भारत जैसे देश, जहां हर साल बाढ़, सूखा और लू जैसी आपदाएं बढ़ रही हैं, वहां जलवायु अनुकूलन योजनाएं बेहद जरूरी हैं। कॉप-30 भारत को यह मौका देगा कि वह वैश्विक मंच पर अपनी स्थानीय समाधान रणनीतियों जैसे मिशन लाइफ (LiFE) और जलवायु-अनुकूल कृषि को सामने रखे। देखा जाए तो भारत इस सम्मेलन में एक “ब्रिज बिल्डर” की भूमिका निभा सकता है।

क्या हैं भारत की उम्मीदें

भारत का कहना है कि पेरिस समझौते के 10 साल बाद भी कई देशों की जलवायु योजनाएं कमजोर हैं। जबकि विकासशील देश ठोस कदम उठा रहे हैं, अमीर देशों की महत्वाकांक्षा और कार्रवाई अभी भी कम है। भारत ने जोर दिया कि विकसित देशों को तेजी से उत्सर्जन घटाना चाहिए और पर्याप्त व भरोसेमंद जलवायु वित्त और तकनीकी सहायता देनी चाहिए।

भारत के अनुसार, किफायती वित्त, तकनीक और क्षमता निर्माण के बिना विकासशील देश अपने जलवायु लक्ष्य हासिल नहीं कर पाएंगे। यही न्यायसंगत और प्रभावी जलवायु कार्रवाई की बुनियाद है। भारत ने कहा कि आने वाला दशक केवल लक्ष्यों का नहीं, बल्कि वास्तविक कार्रवाई, लचीलापन और साझा जिम्मेदारी का होना चाहिए।

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आम लोगों के लिए क्यों जरूरी है इसे समझना?

जलवायु संकट अब किसी रिपोर्ट या सम्मेलन की बात नहीं रह गया है, बल्कि यह हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन चुका है। हमारे खान-पान, कृषि, रोजगार, सेहत और जेब सब पर इसका असर दिख रहा है। देखा जाए तो कभी अचानक बेमौसम बारिश, तो कभी महीनों तक सूखा या लू ये सिर्फ “मौसम की गड़बड़ी” नहीं, बल्कि जलवायु परिवर्तन की चेतावनी है।

इसका असर सबसे पहले आम लोगों पर पड़ता है, किसान की फसल से लेकर मजदूर की कमाई, और शहरों में रहने वाले हर इंसान की सेहत पर यह असर डाल रहा है।

गर्मी और सूखे से खाद्य उत्पादन घटता है, जिससे खाने-पीने की चीजे महंगी हो जाती हैं। पानी की कमी और बिजली की मांग बढ़ने से घरेलू खर्च बढ़ता है। मतलब, जलवायु संकट धीरे-धीरे हर परिवार की अर्थव्यवस्था को भी प्रभावित कर रहा है।

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इसी तरह भीषण गर्मी, प्रदूषण और जलवायु से जुड़ी बीमारियाँ जैसे डेंगू, मलेरिया, या सांस लेने में तकलीफ जैसी समस्याएं अब आम होती जा रही हैं। कहीं न कहीं जलवायु संकट स्वास्थ्य के लिए भी चुनौती बन चुका है।

ऐसे में अगर आज हमने कार्रवाई नहीं की, तो आने वाली पीढ़ियां और असुरक्षित, गर्म और असमान दुनिया में रहेंगी। इसलिए जलवायु परिवर्तन को समझना सिर्फ वैज्ञानिकों या सरकारों का नहीं, बल्कि आम लोगों की भी जिम्मेवारी है।

देखा जाए तो हम सब अपनी जीवनशैली में बदलाव लाकर फर्क ला सकते हैं, जैसे ऊर्जा की बचत, प्रदूषण में कमी, स्थानीय उत्पादों का उपयोग, और कचरा कम करना। हमारे यह छोटे कदम मिलकर धरती के लिए उम्मीद की बड़ी किरण बन सकते हैं।

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