जलवायु परिवर्तन की दौड़ में पीछे छूटते जंगल

पेड़ों को जलवायु में आते किसी भी बदलाव के अनुरूप ढलने में एक से दो सदियां लग जाती है, जो आज के तेजी से बदलते वातावरण के लिए बेहद धीमा है
प्रतीकात्मक तस्वीर: आईस्टॉक
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जंगल जो सदियों से जीवन, सहनशीलता, स्थिरता और संतुलन की मिसाल रहे हैं, वे आज एक नए संकट से जूझ रहे हैं और यह संकट है तेजी से बदलता मौसम। ऊंचे-विशाल पेड़ों से समृद्ध ये हरे-भरे जंगल धरती के इतिहास की जीवित किताबें हैं।

सदियों से अपने अस्तित्व को बचाए रखने में सफल रहने वाले ये जंगल आज जलवायु परिवर्तन की तेज आंधी में अपनी जड़ों को जमाए रखने की जद्दोजहद कर रहे हैं। जलवायु में आता बदलाव इंसानों के साथ-साथ इनकी भी सहनशक्ति की परीक्षा ले रहा है।

जर्नल साइंस में प्रकाशित एक नए अंतरराष्ट्रीय अध्ययन में वैज्ञानिकों ने खुलासा किया है कि दुनिया भर में जंगल जलवायु परिवर्तन की तेज रफ्तार से कदम नहीं मिला रहे और पीछे छूट रहे हैं। अध्ययन के मुताबिक, पेड़ों को जलवायु में आते किसी भी बदलाव के अनुसार ढलने में एक से दो सदियां लग जाती है, जो आज के तेजी से गर्म होते वातावरण के लिए बेहद धीमा है।

बिगड़ रहा प्राकृतिक संतुलन

जलवायु वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि जंगलों की यह धीमी प्रतिक्रिया जारी रही, तो वे न स्वस्थ रह पाएंगे और न ही उपजाऊ। इसका असर पारिस्थितिकी संतुलन पर भी पड़ेगा।

जीवन के लिए यह जंगल बेहद जरूरी हैं, जो सदियों से पृथ्वी को जीवनदायिनी ऑक्सीजन देते आए हैं। अनुमान है कि एक बड़ा पेड़ दिन में इतनी ऑक्सीजन देता है जो चार लोगों के लिए पर्याप्त होती है। इतना ही नहीं जहां एक तरफ यह पेड़ हमें फल, लकड़ी आदि संसाधन देते हैं, वहीं भारी मात्रा में कार्बन को स्टोर कर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को भी धीमा करने में मदद करते हैं। इसके साथ ही अनगिनत प्रजातियों को आवास प्रदान करते हैं।

अपने इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने करीब 6 लाख साल पुराने तलछट के सैंपल्स की मदद से जंगलों में हुए बदलावों का विश्लेषण किया है, जिससे पिछले हजारों वर्षों में पेड़ों की आबादी और विविधता में आए बदलावों का पता चला है।

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अध्ययन से पता चला है कि जब धरती पर हिमयुग आया तो पेड़ गर्म क्षेत्रों की तलाश में दक्षिण की ओर खिसक गए। वहीं जब तापमान बढ़ता है तो वे धीरे-धीरे उत्तर की ओर बढ़ना शुरू कर देते हैं। हालांकि यह बदलाव बेहद धीरे-धीरे होता है, जिसमें हजारों वर्षों का वक्त लगता है। पेड़ तेजी से यात्रा नहीं कर सकते। उनका बीजारोपण सीमित दूरी तक ही हो पाता है।

एक पेड़ सैकड़ों वर्षों तक जीवित रहता है, ऐसे में पूरे तंत्र में बदलाव आने में सदियों का वक्त लग जाता है। मतलब की जब तक एक से दो सदियां नहीं बीततीं, तब तक पूरा वन तंत्र पुराने पेड़ों की मरने और नए पेड़ों के उगने की प्रक्रिया से नहीं गुजरता।

अपने अध्ययन में वैज्ञानिकों ने स्पेक्ट्रल एनालिसिस नामक एक खास तकनीक की भी मदद ली है। इस तकनीक से दशकों से लेकर हजारों वर्षों तक के आंकड़ों का विश्लेषण संभव हो सका। इस तकनीक से पेड़-पौधों में आए बदलाव, मृत्यु और आग लगने जैसी घटनाओं को जलवायु परिवर्तन से जोड़कर समझने में मदद मिली।

अध्ययन में यह भी सामने आया है कि जंगलों में साल-दर-साल या दशकों में बेहद छोटे बदलाव होते हैं, लेकिन असली परिवर्तन सदियों में सामने आते हैं। ये बदलाव गहरे और व्यापक हो जाते हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक करीब आठ सौ साल बाद जंगलों में बड़े बदलाव साफ दिखने लगते हैं और ये अक्सर प्राकृतिक जलवायु चक्रों से जुड़े होते हैं।

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लेकिन आज जिस तेजी से जलवायु में बदलाव आ रहे हैं, जंगल उन बदलावों की रफ्तार से कदम नहीं मिला पा रहे। यह बड़े खतरे की ओर इशारा है।

जरूरत है मानव हस्तक्षेप की

आज जिस तेजी मौसम में बदलाव हो रहे हैं, जंगल खुद को इतनी तेजी से नहीं ढाल सकते। ऐसे में वैज्ञानिकों का मानना है कि "असिस्टेड माइग्रेशन" यानी पेड़ों को इंसानी मदद से नई जगहों पर लगाना, इनको बचाने में मददगार हो सकता है।

इससे जंगलों को नई जलवायु परिस्थितियों में ढलने का मौका मिल सकता है। हालांकि साथ ही शोधकर्ताओं ने यह भी आगाह किया है कि यह कदम आसान नहीं है। इसमें वर्षों की योजना, समझ और जिम्मेदारी की जरूरत होगी।

अध्ययन से यह तो स्पष्ट है कि जंगल भी स्थिर नहीं हैं, वे भी समय के साथ बदलते रहते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि उनका बदलाव हमारी नजरों से छिपा रहता है। हालांकि उनकी यह धीमी चाल अब खतरे में है। ऐसे में यह हमें तय करना है कि हम अपने जंगलों को बचाना चाहते हैं या उन्हें सिर्फ इतिहास के पन्नों में देखना चाहते हैं। आज इन पुरातन वनों को बचाना सिर्फ प्रकृति की ही नहीं, बल्कि हमारी भी जिम्मेदारी है।

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