रोगाणुरोधी प्रतिरोध को बढ़ा सकता है माइक्रोप्लास्टिक, नए अध्ययन में हुआ खुलासा

रिसर्च से पता चला है कि प्लास्टिक के बेहद महीन कणों के संपर्क में आने से बैक्टीरिया एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति कहीं अधिक प्रतिरोधी हो सकते हैं
तेजी से बढ़ता माइक्रोप्लास्टिक; फोटो: आईस्टॉक
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माइक्रोप्लास्टिक हमारे जीवन में इस कदर रच बस गए हैं, उन्हें दूर करना आसान नहीं है। प्लास्टिक के यह महीन कण आज धरती पर करीब-करीब हर जगह मौजूद हैं। अंटार्कटिका की बर्फ से महासागरों की अथाह गहराइयों में भी इनकी मौजूदगी किसी से छिपी नहीं है।

यह कण बादलों, पहाड़ों, मिट्टी यहां तक की जिस हवा में हम सांस लेते हैं, उसमें भी मौजूद हैं। हमारा खाना-पानी भी इनसे अनछुआ नहीं रह गया है। इतना ही नहीं माइक्रोप्लास्टिक मानव रक्त, फेफड़ों, दिमाग सहित अन्य महत्वपूर्ण अंगों तक में अपनी पैठ बना चुके हैं।

यह माइक्रोप्लास्टिक हमारी रोजमर्रा की चीजों जैसे टूथपेस्ट, क्रीम आदि से लेकर हमारे भोजन, हवा और पीने के पानी तक में मौजूद हो सकते हैं।

ऐसे में वैज्ञानिक हमारे आस-पास मौजूद इस प्लास्टिक के अप्रत्याशित प्रभावों का समझने का प्रयास कर रहे हैं। इसी कड़ी में वैज्ञानिकों को एक हैरान कर देने वाली चीज पता चली है कि प्लास्टिक के इन महीन कणों के संपर्क में आने से बैक्टीरिया एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति कहीं अधिक प्रतिरोधी हो सकते हैं।

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तेजी से बढ़ता माइक्रोप्लास्टिक; फोटो: आईस्टॉक

बोस्टन विश्वविद्यालय से जुड़े शोधकर्ताओं को एक चौंकाने वाले अध्ययन में पता चला है कि माइक्रोप्लास्टिक के संपर्क में आने वाले बैक्टीरिया कई प्रकार की एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति प्रतिरोधी हो गए हैं। इन दवाओं का उपयोग आमतौर पर संक्रमण के इलाज में किया जाता है।

शोधकर्ताओं के मुताबिक यह शरणार्थी शिविरों जैसे भीड़भाड़ और आर्थिक रूप से कमजोर क्षेत्रों के लिए विशेष रूप से चिंता का विषय है। इन क्षेत्रों में अक्सर प्लास्टिक कचरे के ढेर लगे होते हैं और संक्रमण आसानी से फैलता है। इस अध्ययन के नतीजे जर्नल एप्लाइड एंड एनवायरनमेंटल माइक्रोबायोलॉजी में प्रकाशित हुए हैं।

बता दें कि प्लास्टिक के बड़े टुकड़े टूटकर जब छोटे कणों में बदल जाते हैं, तो उसे माइक्रोप्लास्टिक कहते हैं। साथ ही कपड़ों और अन्य वस्तुओं के माइक्रोफाइबर के टूटने पर भी माइक्रोप्लास्टिक्स बनते हैं। सामान्यतः प्लास्टिक के एक माइक्रोमीटर से पांच मिलीमीटर के टुकड़े को माइक्रोप्लास्टिक कहा जाता है।

बोस्टन विश्वविद्यालय में बायोमेडिकल इंजीनियरिंग के प्रोफेसर और अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता मुहम्मद जमान ने प्रेस विज्ञप्ति में इस चिंता को उजागर करते हुए कहा "हमारे चारों ओर हर जगह माइक्रोप्लास्टिक मौजूद है, खास तौर पर वे स्थान जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं और जहां साफ सफाई की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है, वहां इनकी मौजूदगी कहीं ज्यादा है। इससे वंचित समुदायों के स्वास्थ्य पर खतरा बढ़ सकता है।"

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तेजी से बढ़ता माइक्रोप्लास्टिक; फोटो: आईस्टॉक

ऐसे में उनके मुताबिक माइक्रोप्लास्टिक और बैक्टीरिया का अधिक बारीकी से अध्ययन करने के साथ-साथ सतर्क रहने की आवश्यकता है।

दुनिया में रोगाणुरोधी प्रतिरोधी एक गंभीर समस्या बन चुका है, जो हर साल करीब 49.5 लाख जानें ले रहा है। आशंका है यदि इससे निपटा न गया तो और 2.4 करोड़ लोग बेहद गरीबी की मार झेलने को मजबूर होंगे।

इतना ही नहीं आशंका है कि अगले 25 वर्षों में रोगाणुरोधी प्रतिरोध से मरने वालों का आंकड़ा बढ़कर दोगुणा हो जाएगा। मतलब की 2050 तक यह एक करोड़ से ज्यादा लोगों की मौत की वजह बन सकता है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने भी अपनी रिपोर्ट "वन हेल्थ एक्शन टू प्रिवेंट एंड कंटेन एएमआर इन इंडियन स्टेट्स एंड यूनियन टेरीटोरिस" में एएमआर को एक 'मूक महामारी' बताया है, जो इंसानों और मवेशियों के स्वास्थ्य के साथ-साथ खाद्य सुरक्षा और विकास को भी गंभीर रूप से प्रभावित कर रही है।

विश्व बैंक द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक रोगाणुरोधी प्रतिरोध के इलाज की भागदौड़ में 2030 तक और 2.4 करोड़ लोग गरीबी के गर्त में जा सकते हैं। इतना ही नहीं बढ़ते प्रतिरोध की वजह से वैश्विक अर्थव्यवस्था को भी भारी नुकसान उठाना पड़ेगा।

क्या है रोगाणुरोधी प्रतिरोध और माइक्रोप्लास्टिक के बीच नाता

देखा जाए तो बैक्टीरिया कई कारणों से प्रतिरोध विकसित करते हैं, जिसमें एंटीबायोटिक दवाओं का बढ़ता दुरुपयोग और बेतहाशा होता उपयोग शामिल है। इसके साथ ही प्रतिरोध को बढ़ावा देने का एक प्रमुख कारक उनका माइक्रोएनवायरनमेंट है, जहां वे बढ़ते अपनी प्रतिकृति बनाते और फैलते हैं।

बोस्टन विश्वविद्यालय में, शोधकर्ताओं ने परीक्षण किया है कि नियंत्रित वातावरण में माइक्रोप्लास्टिक के संपर्क में आने पर एक सामान्य बैक्टीरिया ई. कोली कैसे प्रतिक्रिया करता है।

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इस बारे में अध्ययन से जुड़ी प्रमुख शोधकर्ता नीला ग्रॉस ने प्रेस विज्ञप्ति में जानकारी दी है, "प्लास्टिक बैक्टीरिया को चिपकने और पनपने के लिए एक सतह देता है।" सतह पर चिपकने के बाद, बैक्टीरिया एक बायोफिल्म बनाते हैं, यह चिपचिपा पदार्थ एक ढाल की तरह काम करता है और बैक्टीरिया को आक्रमणकारियों से बचाता है।"

उनके मुताबिक भले ही बैक्टीरिया किसी भी सतह पर बायोफिल्म विकसित कर सकते हैं, लेकिन माइक्रोप्लास्टिक उन्हें और भी मजबूत बनाता है। रिसर्च से पता चला है कि माइक्रोप्लास्टिक ने बैक्टीरिया की बायोफिल्म को इतना अधिक सुपरचार्ज कर दिया कि जब एंटीबायोटिक्स इसके संपर्क में आए तो इस ढाल को नहीं भेद पाए।

शोधकर्ताओं का कहना है कांच जैसी अन्य सतहों की तुलना में माइक्रोप्लास्टिक पर बायोफिल्म बहुत मजबूत और मोटी थी, जैसा कि एक अच्छी तरह से इन्सुलेटेड घर में होता है।

माइक्रोप्लास्टिक पर एंटीबायोटिक प्रतिरोध की दर अन्य सामग्रियों की तुलना में इतनी अधिक थी, शोधकर्ताओं ने इसकी पुष्टि के लिए कई बार प्रयोग किए। इस दौरान उन्होंने एंटीबायोटिक और कई तरह के प्लास्टिक के साथ यह प्रयोग दोहराए, लेकिन हैरानी की बात है कि हर बार परिणाम एक जैसे ही रहे।

जमान के मुताबिक प्लास्टिक की मौजूदगी बैक्टीरिया को चिपकने के लिए सिर्फ सतह प्रदान करने से कहीं ज्यादा काम कर रही है, वास्तव में यह प्रतिरोधी जीवों के विकास में मदद कर रहा है। उनके अनुसार शरणार्थियों और विस्थापित लोगों को भीड़-भाड़ वाले शिविरों और सीमित स्वास्थ्य सेवा के कारण पहले ही दवा-प्रतिरोधी संक्रमणों का खतरा अधिक रहता है।

ग्रॉस के मुताबिक प्लास्टिक बेहद अनुकूलनीय है, उनकी बनावट बैक्टीरिया को बढ़ने में मदद कर सकती है। हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि ऐसा कैसे होता है। एक सिद्धांत यह है कि प्लास्टिक पानी और अन्य तरल पदार्थों को पीछे धकेलता है, जिससे बैक्टीरिया के लिए चिपकना आसान हो जाता है।

समय के साथ प्लास्टिक नमी को सोखना शुरू कर देता है। इसका मतलब है कि माइक्रोप्लास्टिक बैक्टीरिया तक पहुंचने से पहले एंटीबायोटिक्स को सोख लेते हैं। अध्ययन में यह भी सामने आया कि माइक्रोप्लास्टिक को हटाने के बाद भी, बैक्टीरिया मजबूत बने रहे और सुरक्षा के लिए बायोफिल्म तैयार करते रहे।

जमान के अनुसार, अक्सर लोग रोगाणुरोधी प्रतिरोध को रोगी के व्यवहार जैसे दवा को सही तरीके से न लेने से जोड़ते हैं। लेकिन शरणार्थियों का अपने पर्यावरण पर कोई नियंत्रण नहीं होता, फिर भी उन्हें प्रतिरोधी संक्रमणों का जोखिम अधिक होता है। वे इस बात पर जोर देते हैं कि पर्यावरणीय और सामाजिक कारकों को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।

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2024 से जुड़े आंकड़ों को देखें तो दुनिया भर में 12.2 करोड़ लोग विस्थापित हुए थे। ऐसे में माइक्रोप्लास्टिक पहले से ही जूझ रही शरणार्थी स्वास्थ्य सेवा प्रणालियों के लिए और भी अधिक जोखिम पैदा कर सकता है।

जर्नल ऑफ हैजर्डस मैटेरियल्स लेटर्स में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन से पता चला है कि माइक्रोप्लास्टिक्स, बैक्टीरिया में रोगाणुरोधी प्रतिरोध को 30 गुना तक बढ़ा सकते हैं। अनुमान है कि चार लाख लोगों के वेस्ट वाटर को साफ करने की क्षमता वाला एक प्लांट हर दिन माइक्रोप्लास्टिक के करीब 20 लाख कण पर्यावरण में मुक्त कर सकता है जोकि पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए बढ़ा खतरा बन सकते हैं।

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