कोविड-19 और जलवायु परिवर्तन जितना विनाशकारी है रोगाणुरोधी प्रतिरोध

रोगाणुरोधी प्रतिरोध यानी एंटी-माइक्रोबियल रेजिस्टेंस, एएमआर को एक खामोश महामारी बताता सुनीता नारायण का आलेख-
कोविड-19 और जलवायु परिवर्तन जितना विनाशकारी है रोगाणुरोधी प्रतिरोध
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हम अभूतपूर्व समय में जी रहे हैं। एक आरएनए—यहां तक ​​कि डीएनए—ने विश्व अर्थव्यवस्थाओं को ठप कर दिया है। इन व्यवधानों के बीच, हमें एक और महामारी पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए - जो आज इतनी स्पष्ट नहीं है, लेकिन हमारे स्वास्थ्य प्रणालियों के लिए इस तरह की चुनौती है कि हम कल्पना भी नहीं कर सकते। यह खामोश महामारी रोगाणुरोधी प्रतिरोध (एंटी-माइक्रोबियल रेजिस्टेंस, एएमआर) का उदय है। यह कोविड-19 या जलवायु परिवर्तन जितना ही विनाशकारी है। उस मानव त्रासदी के पैमाने की कल्पना कीजिए, जब हमारे ठीक होने की क्षमता समाप्त हो जाए - जब दवाएं बेअसर होने लगें और बीमारी का इलाज न हो पाये। रोगाणुरोधी प्रतिरोधक की वजह से हम जल्द ही इस अवस्था में पहुंच सकते हैं। 

वास्तविकता यह है कि मौज़ूदा स्वास्थ्य संकट यानी महामारी से हमें कुछ बेहद अहम सबक मिले हैं। इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि इसने जलने से पहले हमें अपने घर को व्यवस्थित कर लेने का अवसर प्रदान किया है।

पहला- स्वास्थ्य आज वैश्विक एजेंडा है। टीके की समुचित और सार्वभौमिक व्यवस्था आज वैश्विक एजेंडे में सबसे ऊपर है। टीके की ज़रुरत और इस पर अपनी निर्भरता को हम कायदे से महसूस कर पा रहे हैं। हमें सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं की निष्क्रियता की कीमत बख़ूबी समझ आ रही है। हम यह भी समझ रहे हैं कि गरीबों को मुनासिब और समावेशी स्वास्थ्य सुरक्षा प्रदान किये बगैर अमीरों को संक्रमण से नहीं बचाया जा सकता।

दूसरा, मौज़ूदा स्वास्थ्य संकट के मद्देनजर हम निवारण की भूमिका और महत्व को पहले से कहीं बेहतर समझ पा रहे हैं। कोविड-19 ने महामारी की रोकथाम में साफ पानी की महत्ता को भी बताया है। भारत सरकार ने स्वास्थ्य पर होने वाले अपने खर्च में स्वच्छ जल और साफ-सफाई पर होने वाले खर्च को भी शामिल किया है। हम स्पष्ट तौर से यह जानते हैं कि मौज़ूदा और भावी महामारियों में रोकथाम निर्णायक साबित होने वाली है। 

हम यह जानते हैं और मानते भी हैं कि दक्षिण के देशों के साथ-साथ पहले से ही समृद्ध उत्तर के देशों को भी यह महसूस करना चाहिए कि पहले पर्यावरण के रासायनीकरण और विषाक्तीकरण और फिर इसके सुधार में निवेश का उनका दृष्टिकोण महंगा और कामचलाऊ है। हमारी दुनिया में, सार्वभौमिक स्वास्थ्य सेवा से लेकर सभी को शिक्षा प्रदान करने तक एक से बढ़कर एक प्राथमिकताएं हैं। सबमें स्पर्द्धा है। लिहाजा यह और भी अहम हो जाता है कि हम चीजों को अलग तरह से करना सीखें; हमें उन मार्गों पर चलना होगा जिन्हें दूसरों ने अभी तक नहीं आजमाया है- हमें प्रदूषण रहित समृद्धि के लिए छलांग लगाना होगा और अभिनव रास्तों की तलाश करनी होगी। यहीं पर रोगाणुरोधी प्रतिरोध के मद्देनजर पर्यावरणीय चुनौती को समझने की जरुरत है।

तीसरा, अब हम जानते हैं कि कोविड-19 और रोगाणुरोधी प्रतिरोध प्रकृति के साथ हमारे बेहद उथले रिश्तों का नतीजा हैं। यह समझना बेहद महत्त्वपूर्ण है किस प्रकार हम अपना भोजन उगाते हैं और किस तरह पर्यावरण का प्रबंधन करते हैं। फसलों से लेकर पशुधन और मतस्य पालन तक - भोजन उगाने में रोगाणुरोधकों और एंटीबायोटिक दवाओं का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होता है। मसला यह है कि तरक्की को प्रोत्साहन और रोग-नियंत्रण के मद्देनजर एंटीबायोटिक दवाओं के उपयोग की इस प्रथा का "आधुनिक" खाद्य उत्पादन प्रणाली में भरपूर दुरुपयोग किया गया है।

यह उत्पादकता बढ़ाने के लिए टूलकिट का हिस्सा बन गया है, जो किसानों की आजीविका सुरक्षा के मद्देनजर मुनासिब भी लगता है, जैसे कि कई वर्षों से कीटनाशकों तथा अन्य रसायनों का इस्तेमाल किया जाता रहा है। पर यह दावा जिस बात को नजरअंदाज करता है, वह है सघन पशुपालन के मामले में रोगाणुरोधकों का बेरहमी से इस्तेमाल। एंटीबायोटिक दवाओं के उपयोग या दुरुपयोग का संबंध हमारी भोज्य-प्रणाली से है - पशुओं को पाला कैसे जाता है; उनके बाहर आने-जाने की व्यवस्था क्या है, पशुशालाओं की व्यवस्था है या नहीं, कितनों के लिए ऐसी व्यवस्था है, और कितनी नायाब और नाज़ुक नस्लें गायब हो रही हैं, क्योंकि यह मामला खाद्य जगत में जैव विविधता से जुड़ा है। इन बातों का असर सीधे-सीधे हमारे आहार पर पड़ता है। लिहाजा, इसे उत्पादकता बनाम स्थिरता जैसे एक साधारण मुद्दे के तौर पर पेश करना मुनासिब नहीं होगा।

भोजन उत्पादन और पर्यावरण प्रबंधन के तौर-तरीकों को कायदे से संबोधित करने की आवश्यकता है क्योंकि रोगाणुरोधी प्रतिरोध (एएमआर) से इसका सीधा संबंध है। इसके लिए ऐसी रणनीतियों की जरुरत है जो सस्ती और प्रतिरोधी हों। आज जो दुनिया उभर रही है उसके सामने कई अहम चुनौतियां है - सब एक पर एक। सभी चुनौतियों से एक साथ मुक़ाबले की आवश्यकता है। हमें अपने लोगों तक स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुँच को व्यापक व सुगम बनाना है, उन तक जीवन रक्षक दवाएं पहुंचानी है। हमें खाद्य उत्पादकता बढ़ानी है और यह सुनिश्चित करना है कि किसानों को आजीविका की सुरक्षा मिले। इसके उलट, मगर हम प्रदूषण के बाद सफाई की उच्च लागत वहन नहीं कर सकते।

लिहाज़ा बदलाव के अगले एजेंडे पर चर्चा जरूरी है। एक, यह सुनिश्चित करने के लिए कि मानव स्वास्थ्य के लिए गंभीर रूप से महत्त्वपूर्ण रोगाणुरोधी दवाओं का प्रयोग पशुओं या फसलों के लिए न किया जाए। आप इसे "संरक्षण एजेंडा" कह सकते हैं।

"विकास एजेंडा" को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हम रोगाणुरोधी दवाओं के अंधाधुंध उपयोग के बिना खाद्य उत्पादन में वृद्धि जारी रखें। और "पर्यावरण एजेंडा" यह सुनिश्चित करना है कि औषधि उद्योग और मछली या पॉल्ट्री फॉर्म जैसे अन्य स्रोतों से निकलने वाले अपशिष्ट का बेहतर प्रबंधन किया जाए और उन्हें नियंत्रित किया जाए। 

हमारी दुनिया में खेती से निकलने वाला कचरा कभी कचरा नहीं होता, बल्कि जमीन के लिए संसाधन होते हैं। लिहाजा हमें रोगाणुरोधी के उपयोग को रोकने की आवश्यकता है, ताकि खाद का पुनर्उपयोग और पुनर्चक्रण मुमकिन हो पाये। हमें 'महत्त्वपूर्ण सूची' का संरक्षण करना चाहिए; हमें इसका उपयोग कम से कम करना चाहिए और रोकथाम में निवेश करना चाहिए ताकि हमें अच्छे स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए रोगाणुरोधी दवाओं का उपयोग न करना पड़े।

साथ ही स्वच्छ पेयजल और साफ-सफाई जैसे महत्त्वपूर्ण बिंदुओं को भी अपने एजेंडे में शामिल करना चाहिए, ताकि रोगाणुरोधी दवाओं के इस्तेमाल को न्यूनतम किया जा सके और जितना मुमकिन हो, रोगाणुरोधी प्रतिरोधक से बचाव हो पाये। यह हमारी दुनिया के लिए 'विध्वंस या निर्माण' का एक और एजेंडा हो सकता है।

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