फोटोसिंथेसिस में रुकावट है माइक्रोप्लास्टिक, सालाना 14 फीसदी तक गिर सकती है गेहूं-धान और मक्का की पैदावार

रिसर्च से पता चला है कि माइक्रोप्लास्टिक वैश्विक स्तर पर पौधों में प्रकाश संश्लेषण की क्षमता को 12 फीसदी तक कम कर सकता है, जो बेहद हैरान कर देने वाला है
अपनी गेहूं की फसल की जांच करता ग्रामीण किसान; फोटो: आईस्टॉक
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क्या आपने कभी सोचा है कि प्लास्टिक के महीन कण जिन्हें माइक्रोप्लास्टिक के नाम से जाना जाता है वो पौधों को किस हद तक प्रभावित कर सकते हैं। पौधों पर इसके प्रभावों का कृषि पैदावार और हमारे जीवन पर क्या असर पड़ेगा? इन सवालों के जवाब की खोज में किए एक नए हैरान कर देने वाले अध्ययन से पता चला है कि माइक्रोप्लास्टिक पौधों में प्रकाश संश्लेषण यानी फोटोसिंथेसिस को बाधित कर रहे हैं। 

अंतराष्ट्रीय शोधकर्ताओं द्वारा किए इस अध्ययन से पता चला है कि वैश्विक स्तर पर माइक्रोप्लास्टिक पौधों की प्रकाश संश्लेषण की क्षमता को 12 फीसदी तक कम कर सकता है, जो बेहद हैरान कर देने वाला है। शोध के मुताबिक इसका सीधा असर कृषि पैदावार पर भी पड़ रहा है, जो दुनिया भर में खाद्य सुरक्षा के लिए भी गंभीर खतरा पैदा कर सकता है।

बता दें कि प्रकाश-संश्लेषण (फोटोसिंथेसिस) वह प्रक्रिया है जिसके जरिए पौधे सूर्य की रोशनी से कार्बन डाइऑक्साइड और पानी को ग्लूकोज में बदलते हैं। इस तरह पौधे अपना भोजन बनाते हैं। इस प्रक्रिया में जहां पौधें कार्बन डाइऑक्साइड को ग्रहण करते हैं, वहीं ऑक्सीजन भी बनती है, जिसे पौधे वातावरण में मुक्त कर देते हैं।

प्रकाश-संश्लेषण को ‘फोटोकेमिकल प्रोसेस’ भी कहा जाता है। यह न केवल पौधों बल्कि शैवालों और कुछ बैक्टीरिया को भी अपना भोजन हासिल करने में मदद करती है। इस प्रक्रिया में पत्तों में मौजूद क्लोरोफिल नामक हरे रंग का पिगमेंट भी मदद करता है। इस दौरान पौधे अपनी जड़ों के जरिए मिट्टी से पानी भी ग्रहण करते हैं।

ऐसे में इस प्रक्रिया के दौरान जहां पौधों को भोजन मिलता है साथ ही ऑक्सीजन भी पैदा होती है, जो जीवन के लिए बेहद आवश्यक है। इतना ही नहीं यह प्रक्रिया पृथ्वी पर कार्बन डाइऑक्साइड के स्तर को नियंत्रित करने में भी मदद करती है।

यह अध्ययन नानजिंग विश्वविद्यालय, चाइनीज, यूनिवर्सिटी ऑफ चाइनीज एकेडमी ऑफ साइंसेज, यूनिवर्सिटी ऑफ मैसाचुसेट्स के साथ-साथ चीन, अमेरिका और जर्मनी के शोधकर्ताओं के एक दल द्वारा किया गया है। इस अध्ययन के नतीजे जर्नल प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज (पनास) में प्रकाशित हुए हैं।

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माइक्रोप्लास्टिक से पौधों में घट रहा प्रकाश-संश्लेषण

अध्ययन में यह भी सामने आया है कि प्लास्टिक के यह महीन कण न केवल धरती पर बल्कि समुद्रों और मीठे पानी के पारिस्थितिकी तंत्र में भी प्रकाश संश्लेषण को बाधित कर रहे हैं। इसका मतलब है कि न केवल जमीन पर पाए जाने वाले पौधों पर इसका असर पड़ रहा है, बल्कि समुद्रों और मीठे पानी में उगने वाले पौधें भी इसकी वजह से प्रभावित हो रहे हैं।

पिछले शोधों से भी पता चला है कि माइक्रोप्लास्टिक पौधों को कई तरह से नुकसान पहुंचा सकते हैं। वे पत्तियों तक पहुंचने वाली सूरज की रोशनी को रोक सकते हैं, यह मिट्टी को नुकसान पहुंचा सकते हैं और पौधों में पोषक तत्वों और पानी के अवशोषण को बाधित कर सकते हैं। इतना ही नहीं ये कण पौधों के अंदर विषाक्त पदार्थ भी छोड़ सकते हैं, जो हानिकारक बन सकते हैं और क्लोरोफिल को कम कर सकते हैं। यह क्लोरोफिल प्रकाश संश्लेषण के लिए बेहद आवश्यक होता है।

अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 150 से अधिक अध्ययनों में किए गए 3,286 अवलोकनों का विश्लेषण किया है। इन अध्ययनों में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि माइक्रोप्लास्टिक्स पौधों को कैसे प्रभावित कर रहे हैं।

अध्ययन के जो नतीजे सामने आए हैं, उनसे पता चला है कि माइक्रोप्लास्टिक पौधों में औसतन सात से 12.12 फीसदी तक प्रकाश संश्लेषण को कम कर सकते हैं। इससे पौधों द्वारा क्लोरोफिल के उत्पादन में भी कमी आ रही है। देखा जाए तो ये गिरावट माइक्रोप्लास्टिक के मौजूदा प्रदूषण स्तरों पर आधारित मशीन लर्निंग मॉडल के अनुमानों से भी मेल खाती है। मॉडल से पता चला है कि माइक्रोप्लास्टिक के संपर्क में आने से पौधों में क्लोरोफिल 10.96 से 12.84 फीसदी तक कम हो जाता है।

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हालांकि जमीन, समुद्रों और पानी में पाए जाने वाले पौधों और शैवालों पर इसका प्रभाव कहीं कम तो कहीं ज्यादा होता है।

अध्ययन के मुताबिक माइक्रोप्लास्टिक्स की वजह से जहां जमीनी पौधों के प्रकाश संश्लेषण में छह से 18 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई। वहीं समुद्री पौधों (जैसे समुद्री शैवालों) में यह गिरावट 12 फीसदी तक थी। इसी तरह मीठे पानी में पाए जाने वाले शैवालों के प्रकाश संश्लेषण में 4 से 14 फीसदी की गिरावट देखी गई। शोधकर्ताओं के मुताबिक पौधों के माइक्रोप्लास्टिक के संपर्क में आने से ज्यादा उसका पड़ रहा प्रभाव हैरान कर देने वाला था।

अध्ययन में यह भी सामने आया है कि माइक्रोप्लास्टिक की वजह से जिस तरह से पौधों में प्रकाश संश्लेषण की क्षमता में गिरावट आ रही है। उसका सीधा असर गेहूं, धान और मक्का जैसी प्रमुख फसलों पर भी पड़ रहा है।

किसानों के लिए पैदा हो रहा नया खतरा

मौजूदा समय में जिस दर से प्लास्टिक का उत्पादन हो रहा है, उसके आधार पर वैज्ञानिकों ने गणना की है कि माइक्रोप्लास्टिक की वजह से अगले 25 वर्षों में किसानों को सालाना मक्का, धान और गेहूं की पैदावार में 4.1 से 13.52 फीसदी की गिरावट का सामना करना पड़ सकता है।

मौजूदा समय में जिस दर से प्लास्टिक का उत्पादन हो रहा है, उसके आधार पर वैज्ञानिकों ने गणना की है कि माइक्रोप्लास्टिक की वजह से अगले 25 वर्षों में किसानों को सालाना मक्का, धान और गेहूं की पैदावार में 4.1 से 13.52 फीसदी की गिरावट का सामना करना पड़ सकता है। मतलब की इससे पैदावार में सालाना 36.1 करोड़ मीट्रिक टन का नुकसान हो सकता है। देखा जाए तो दुनिया पहले ही खाद्य असुरक्षा का सामना कर रही है।

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रिसर्च में यह भी सामने आया है कि बढ़ते माइक्रोप्लास्टिक्स की वजह से समुद्री खाद्य उत्पादन में 7.24 फीसदी तक की कमी आ सकती है, क्योंकि प्रकाश संश्लेषण में आती बाधा से जलीय खाद्य जाल के आधार शैवाल कम हो रहे हैं। मतलब की इसकी वजह से सी-फूड पैदावार में 2.43 करोड़ मीट्रिक टन की गिरावट आ सकती है। इससे न केवल वैश्विक अर्थव्यवस्था को नुकसान होगा, साथ ही लाखों लोगों को भोजन की किल्लत से भी जूझना पड़ सकता है।

बढ़ सकता है कुपोषण

“द स्टेट ऑफ फूड सिक्योरिटी एंड न्यूट्रिशन इन द वर्ल्ड 2024” रिपोर्ट के मुताबिक धरती का हर 11वां इंसान आज भी खाली पेट सोने को मजबूर है। मतलब की दुनिया में 73.3 करोड़ लोग ऐसे हैं, जिन्हें भरपेट खाना नसीब नहीं हो रहा है। यदि 2019 की तुलना में देखें तो इन लोगों की संख्या में 15.2 करोड़ का इजाफा हुआ है।

ऐसे में जिस तरह से दुनिया में प्लास्टिक प्रदूषण बढ़ रहा है, वैज्ञानिकों के मुताबिक भोजन की कमी की यह समस्या कहीं ज्यादा विकराल रूप ले सकती है। 

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प्रकाश संश्लेषण में इस गिरावट का असर केवल पौधों और पैदावार पर ही नहीं पड़ेगा। पौधे हवा से कार्बन डाइऑक्साइड को सोख लेते हैं, इस तरह इस हानिकारक गैस को स्टोर करके वो जलवायु परिवर्तन से लड़ने में भी मदद करते हैं। लेकिन अगर वे माइक्रोप्लास्टिक के कारण ऐसा नहीं कर पाते हैं, तो इसका असर हमारी जलवायु पर भी पड़ेगा। इसकी वजह से पृथ्वी को बहुत ज्यादा गर्म होने से रोकना कठिन हो जाएगा।

बता दें कि वातावरण में मौजूद यह माइक्रोप्लास्टिक इंसानों और दूसरे जीवों के स्वास्थ्य को भी प्रभावित कर रहा है। वैज्ञानिकों शोधों में पहले ही इस बात की पुष्टि हो चुकी है कि प्लास्टिक के यह महीन कण मानव रक्त से लेकर फेफड़ों, दिमाग सहित अन्य महत्वपूर्ण अंगों तक में अपनी पैठ बना चुके हैं। इनकी वजह से न केवल दिल के दौरे और स्ट्रोक का खतरा बढ़ रहा है साथ ही यह कई प्रजातियों में वृद्धि और प्रजनन जैसी महत्वपूर्ण प्रक्रियाओं को भी बाधित कर रहे हैं।

प्लास्टिक के यह महीन कण आज धरती पर करीब-करीब हर जगह मौजूद हैं। अंटार्कटिका की बर्फ से महासागरों की अथाह गहराइयों में भी इनकी मौजूदगी किसी से छिपी नहीं है। यह कण बादलों, पहाड़ों, मिट्टी यहां तक की जिस हवा में हम सांस लेते हैं, उसमें भी मौजूद हैं। हमारा खाना-पानी भी इनसे अनछुआ नहीं रह गया है।

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ऐसे में इस बढ़ते खतरे को कहीं ज्यादा गंभीरता से लेने की जरूरत है, क्योंकि जो प्लास्टिक कभी वरदान समझा जाता था, आज अभिशाप बनता जा रहा है।

यह सही है कि मौजूदा समय में प्लास्टिक का उपयोग को पूरी तरह से बंद नहीं किया जा सकता, लेकिन पर्यावरण अनुकूल विकल्पों और समझदारी से किया गया उपयोग इसकी निर्भरता को सीमति कर सकता है। इसी तरह कचरे का उचित प्रबंधन बढ़ती समस्या से निपटने में मददगार साबित हो सकता है।

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