
दुनिया में बढ़ता प्लास्टिक अपने साथ नई चुनौतियां भी पैदा कर रहा है। आज धरती पर शायद ही ऐसी कोई जगह बाकी होगी जहां इसकी मौजूदगी के निशान न मिले हों। हिमालय की ऊंचे पहाड़ों से लेकर समुद्र की गहराइयों तक में वैज्ञानिकों को प्लास्टिक की मौजूदगी के सबूत मिले हैं।
इसी कड़ी में टेक्सास विश्वविद्यालय, अर्लिंग्टन (यूटीए) से जुड़े शोधकर्ताओं ने अपने एक नए अध्ययन में खुलासा किया है कि हवा में मौजूद प्लास्टिक के महीन कण पक्षियों के फेफड़ों में भी पैठ बना रहे हैं।
वैज्ञानिकों ने इस बात को भी लेकर चिंता जताई है कि आज हम जिस हवा में सांस ले रहे हैं, जो खाना खा रहे हैं और पानी पी रहे हैं, उसमें भी यह हानिकारक कण बेहद आम होते जा रहे हैं। इस अध्ययन के नतीजे जर्नल ऑफ हैजर्डस मैटेरियल्स में प्रकाशित हुए हैं।
यूटीए में जीव विज्ञान के प्रोफेसर और अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता शेन डुबे का कहना है अध्ययन में पक्षियों को इसलिए चुना गया, क्योंकि यह दुनिया के हर कोने में पाए जाते हैं और अक्सर इंसानों के साथ वातावरण को साझा करते हैं। यह शहरों की चहल पहल से जंगलों के शांत वातावरण तक में देखें जा सकते हैं।
शोधकर्ताओं के मुताबिक चूंकि यह पक्षी दूर-दराज तक यात्रा भी करते हैं, ऐसे में इनकी मदद से यह समझा जा सकता है कि प्रदूषण कैसे फैलता है।
पक्षियों के फेफड़ों में मौजूद प्लास्टिक का अध्ययन करने के लिए, शोधकर्ताओं ने 51 प्रजातियों के 56 जंगली पक्षियों की जांच की है। यह सभी पक्षी पश्चिमी चीन के चेंग्दू तियानफू अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के आसपास मौजूद थे, जहां वे मानव निर्मित वातावरण के संपर्क में भी थे।
इन पक्षियों के फेफड़ों से लिए नमूनों में प्लास्टिक के महीन कणों की मौजूदगी की जांच के लिए वैज्ञानिकों ने दो अलग-अलग तरीकों का उपयोग किया है। इनमें एक विधि, लेजर डायरेक्ट इंफ्रारेड तकनीक थी, जिसकी मदद से वैज्ञानिकों ने फेफड़ों के ऊतकों में फंसे माइक्रोप्लास्टिक की गिनती की।
दूसरी, पायरोलिसिस गैस क्रोमैटोग्राफी-मास स्पेक्ट्रोमेट्री, ने प्लास्टिक के और भी महीन कणों की मौजूदगी को उजागर किया जो सांस के जरिए रक्तप्रवाह में प्रवेश कर सकते थे।
फेफड़ों के प्रति ग्राम टिश्यू में मिले प्लास्टिक के 416 कण
देखा जाए तो पक्षियों के फेफड़ों में प्लास्टिक के इन महीन कणों की मौजूदगी गंभीर चिंता का विषय है, जो दर्शाता है कि प्लास्टिक का इकोसिस्टम की कितनी गहराई तक प्रवेश कर चुका है।
इस अध्ययन के जो नतीजे सामने आए हैं, वो बेहद हैरान कर देने वाले थे। वैज्ञानिकों को पक्षियों के फेफड़ों में बड़ी मात्रा में प्लास्टिक के महीन कण मिले थे, जिन्हें माइक्रोप्लास्टिक के रूप में जाना जाता है। औसतन पक्षियों की हर प्रजाति के फेफड़ों में प्लास्टिक के करीब 221 कण मिले थे। इतना ही नहीं वैज्ञानिकों को फेफड़ों के प्रति ग्राम टिश्यू में प्लास्टिक के 416 कणों की मौजूदगी का पता चला।
अध्ययन में यह भी सामने आया है कि इनमें सबसे आम प्लास्टिक क्लोरीनेटेड पॉलीइथिलीन था, जिसका उपयोग आमतौर पर तार और पाइप की कोटिंग में किया जाता है, और ब्यूटाडाइन रबर, जो कार के टायरों में पाया जाता है।
इसका मतलब है कि प्लास्टिक सिर्फ पानी, मिट्टी को ही प्रदूषित नहीं कर रहा, यह हवा में भी तैर रहा है। ऐसे में अगर पक्षी प्लास्टिक के इन महीन कणों को सांस के जरिए निगल रहे हैं, तो चिंता की बात यह है कि इंसानों के साथ क्या हो रहा होगा।
बता दें कि प्लास्टिक के अत्यंत महीन टुकड़ों को माइक्रोप्लास्टिक के नाम से जाना जाता है। इन कणों का आकार एक माइक्रोमीटर से पांच मिलीमीटर के बीच होता है। प्लास्टिक के इन महीन कणों में भी जहरीले प्रदूषक और केमिकल होते हैं जो स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान पहुंचा सकते हैं।
गौरतलब है कि इससे पहले वैज्ञानिकों इंसानी फेफड़ों में प्लास्टिक की मौजूदगी के सबूत मिले थे। जर्नल साइंस ऑफ द टोटल एनवायरनमेंट में प्रकाशित एक शोध के मुताबिक माइक्रोप्लास्टिक्स के यह कण फेफड़ों के उत्तकों की गहराई के साथ-साथ फेफड़ों के हर हिस्से में मिले थे। इनमें पॉलीप्रोपाइलीन और पीईटी यानी पॉलीइथाइलीन टेरेफ्थेलेट सबसे आम थे।
इंसानों सहित दूसरे जीवों में भी मिले हैं प्लास्टिक की मौजूदगी के सबूत
बता दें कि इंसानी रक्त, नसों, फेफड़ों, गर्भनाल और अन्य अंगों के साथ-साथ दिमाग में भी माइक्रोप्लास्टिक्स की मौजदूगी के सबूत मिले हैं।
इसी तरह 2024 में वैज्ञानिकों को डॉल्फिन की सांसों में माइक्रोप्लास्टिक्स की मौजूदगी के साक्ष्य मिले थे। जो इस बात की पुष्टि करते हैं कि दुनिया भर के करीब-करीब सभी पारिस्थितिकी तंत्रों में मौजूद प्लास्टिक के यह महीन कण अब इंसानों सहित दूसरे जीवों के फेफड़ों में भी राह बना रहे हैं।
इसी तरह वैज्ञानिकों को इंसानी मस्तिष्क के उस हिस्से में माइक्रोप्लास्टिक की मौजूदगी के साक्ष्य मिले थे, जो सूंघने की क्षमता को नियंत्रित करता है। यहां तक की इंसानों के अंगों के साथ रक्त, दूध, सीमन और यूरीन में भी इसकी मौजूदगी के सबूत मिले हैं।
यह इस बात का भी सबूत है कि इंसानी शरीर में प्लास्टिक के इन महीन कणों की मात्रा अनुमान से कहीं ज्यादा हो सकती है। यह महीन कण शरीर के भीतर कैसे पहुंचे इस बारे में शोधकर्ताओं का मानना है की हवा में मौजूद माइक्रोप्लास्टिक के यह कण शायद इन लोगों की सांस के जरिए मस्तिष्क में पहुंचे होंगें।
एक अध्ययन के मुताबिक हम इंसान अपनी सांस के जरिए हर घंटे माइक्रोप्लास्टिक्स के करीब 16.2 कण निगल सकते हैं। निगले गए इस माइक्रोप्लास्टिक्स की यह मात्रा कितनी ज्यादा है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यदि हफ्ते भर निगले गए इन प्लास्टिक के महीन कणों को जमा किया जाए तो इनसे एक क्रेडिट कार्ड बनाने जितना प्लास्टिक इकट्ठा हो सकता है।
गौरतलब है कि फेफड़ों में प्लास्टिक के लिए कोई सुरक्षित सीमा नहीं है। लेकिन शोध से पता चला है कि प्लास्टिक के महीन कणों को सांस के जरिए अंदर लेना हानिकारक हो सकता है। वैज्ञानिकों के मुताबिक सांस के जरिए शरीर में पहुंच प्लास्टिक के यह महीन कण फेफड़ों की बीमारी, दिल की समस्या और यहां तक कि कैंसर की वजह भी बन सकते हैं।
इतना ही नहीं लंबे समय तक प्लास्टिक के संपर्क में रहने से प्रजनन क्षमता पर भी असर पड़ सकता है और प्रतिरक्षा प्रणाली कमजोर हो सकती है।
प्लास्टिक एक बार शरीर के अंदर पहुंच जाए, तो यह ऊतकों में जमा हो सकता है, जिससे सूजन या लम्बे समय में नुकसान हो सकता है। प्लास्टिक में हानिकारक रसायन भी होते हैं जो शरीर के काम करने के तरीके को प्रभावित कर सकते हैं।
अध्ययन से एक बात तो स्पष्ट हो जाती है, प्लास्टिक अब सिर्फ लैंडफिल या समुद्र में ही जमा नहीं हो रहा। यह हवा, पानी मिट्टी हर जगह फैल चुका है। यहां तक की पक्षियों और इंसानों के फेफड़ों में भी पैठ बना रहा है। ऐसे में बढ़ते प्लास्टिक प्रदूषण को सीमित करना न केवल महत्वपूर्ण बल्कि बेहद जरूरी भी है।
हवा में कितना प्लास्टिक मौजूद है? समय के साथ वो किस हद तक नुकसान पहुंचा सकता है? यह कुछ ऐसे सवाल है जिनके उत्तर जानने के लिए अभी ओर शोध किए जाने की आवश्यकता है। ऐसे में जब तक इन सवालों के जवाब नहीं मिल जाते तब तक वैज्ञानिकों के मुताबिक इसका सबसे सरल पर प्रभावी समाधान है कि इसे फैलने से रोकें।