

वैज्ञानिकों के अनुसार, 2064 तक एशिया में मानसून का मिजाज बदल सकता है, जिससे बारिश और सूखे के चरम दौर सामान्य हो सकते हैं।
यह बदलाव जलवायु परिवर्तन के कारण होगा, जो कृषि, पानी और ऊर्जा प्रणालियों को प्रभावित करेगा।
अध्ययन में चेतावनी दी गई है कि अगर उत्सर्जन नहीं रोका गया, तो यह संकट जीवन की बुनियाद हिला सकता है।
क्या मानसून, जो सदियों से जीवन का सहारा रहा है, आने वाले समय में सबसे बड़ा खतरा बन जाएगा? वैज्ञानिकों की मानें तो आने वाले दशकों में कुछ ऐसा ही देखने को मिलेगा। आंकड़ों भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि दुनिया तेजी से बदल रही जलवायु के खतरनाक दौर में प्रवेश कर रही है। ऐसे में चरम मौसमी घटनाओं का आना बेहद सामान्य होता जा रहा है।
इस बारे में हांगकांग यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी से जुड़े शोधकर्ताओं के नेतृत्व में हुए एक नए अंतरराष्ट्रीय अध्ययन ने चेताया है कि यदि उत्सर्जन ऐसे ही बढ़ता रहा, तो साल 2064 के बाद एशिया और उष्णकटिबंधीय इलाकों में मौसम का चरम संकट शुरू हो सकता है।
अध्ययन से संकेत मिले हैं कि अगले कुछ दशकों में एशिया में बारिश और सूखे के चरम दौर सामान्य हो सकते हैं। मतलब कि यदि हम अभी नहीं संभले तो आने वाले दशकों में मानसून ऐसा झटका देगा जो जीवन की बुनियाद हिला सकता है। इस अध्ययन के नतीजे अंतराष्ट्रीय जर्नल साइंस एडवांसेज में प्रकाशित हुए हैं।
इस अध्ययन के मुताबिक, एशिया और अन्य उष्णकटिबंधीय इलाकों में हर 30 से 90 दिन के भीतर भारी बारिश और लंबे सूखे का खतरनाक उतार-चढ़ाव देखने को मिलेगा। वैज्ञानिकों इसे ‘सब-सीजनल व्हिपलैश’ कह रहे हैं, यानी मौसम का ऐसा झटका जो खेती, पानी और ऊर्जा प्रणालियों को बुरी तरह हिला देगा।
बदलेगा मानसून का मिजाज
इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने दुनिया के सबसे उन्नत जलवायु मॉडलों (सीएमआइपी6) की मदद से मानसून की एक अहम प्रणाली 'बोरियल समर इंट्रा-सीजनल ऑस्सिलेशन (बीएसआईएसओ) के व्यवहार का अध्ययन किया। गौरतलब है कि यही प्रणाली गर्मियों में एशियाई मानसून के दौरान 30 से 90 दिनों के भीतर बारिश और सूखे के दौर तय करती है।
यह तंत्र कभी ज्यादा, तो कभी कम बारिश की चलती हुई पट्टियां बनाता है, जो पूरे मानसूनी क्षेत्र को प्रभावित करती हैं।
अध्ययन में यह भी सामने आया कि भविष्य में बीएसआईएसओ के पैटर्न और भी ताकतवर हो जाएंगे, जिससे दक्षिण और पूर्वी एशिया में कहीं भीषण बारिश होगी, तो कहीं लंबे सूखे की मार पड़ेगी।
सबसे चिंताजनक बात यह है कि बारिश लाने वाली एक लहर, जो पहले इंडोनेशिया तक सीमित रहती थी, अब प्रशांत महासागर तक तेजी से फैल सकती है। इसका मतलब है, मानसून से जुड़ी चरम बारिश और सूखे का असर और बड़े इलाके में महसूस होगा। आशंका है कि उच्च उत्सर्जन की स्थिति में सदी के अंत तक इस बारिश लाने वाली लहर की रफ्तार दोगुनी हो सकती है।
एशिया ही नहीं, पूरी दुनिया पर असर
वैज्ञानिकों ने आशंका जताई है कि इस बदलाव का असर सिर्फ एशिया तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी जोखिम बढ़ेगा। इसकी वजह से ग्रीनलैंड और उत्तरी रूस में बारिश के पैटर्न में बड़ा उतार-चढ़ाव आ सकता है। इतना ही नहीं इसकी वजह से अफ्रीका में सहारा रेगिस्तान से उठने वाली धूल बढ़ सकती है, जिससे अटलांटिक महासागर में बनने वाले उष्णकटिबंधीय चक्रवात प्रभावित हो सकते हैं।
यानी, मानसून में बदलाव की गूंज पूरी दुनिया में सुनाई दे सकती है।
अध्ययन से जुड़ी शोधकर्ता प्रोफेसर मंगकियान लू ने चेताया, “सूखे से अचानक बाढ़ में बदलना सबसे ज्यादा नुकसानदेह होता है। सबूत बताते हैं कि ऐसे झटकों से वैश्विक धान उत्पादन को होने वाला खतरा, सामान्य बारिश या सूखे की तुलना में 43 फीसदी अधिक है।”
उनका यह भी कहना है कि “एशिया और अफ्रीका के कृषि क्षेत्रों में ऐसे सूखे-से-बाढ़ वाले घटनाक्रम बढ़े, तो दुनिया की खाद्य सुरक्षा गंभीर संकट में पड़ सकती है।“
जरूरी है तैयारी
वैज्ञानिकों का कहना है कि इन बदलती चुनौतियों से आगे रहने के लिए मौसम और मौसमी पूर्वानुमान प्रणालियों को मज़बूत करना अब बेहद ज़रूरी हो गया है। इसके लिए सरकार और समाज—दोनों को मिलकर अभी से तैयारी करनी होगी।
शहरों के ढांचे को जलवायु के झटकों के अनुरूप ढालना होगा, पानी–ऊर्जा–खाद्य प्रणालियों को सुरक्षित और टिकाऊ बनाना होगा, और जलवायु से जुड़ी बीमारियों की समय रहते पहचान की क्षमता बढ़ानी होगी, तभी आने वाले खतरों का सामना किया जा सकेगा।
साथ ही इससे सरकारों और निजी क्षेत्र को दीर्घकालिक योजनाएं बनाने और नीतियां तय करने में सोच-समझकर, सही फैसले लेने की ताकत मिलेगी। अध्ययन का सन्देश स्पष्ट है कि अगर बढ़ता उत्सर्जन अभी नहीं रोका गया, तो आने वाली पीढ़ियों का ऐसे मानसून से सामना होगा, जो जीवन देने के बजाय, जीवन की चुनौतियां बढ़ा देगा।