हाल के दिनों में गुजरात और पूर्वोत्तर भारत खासकर असम में जो बाढ़ आई, वो दक्षिणी-पश्चिमी मानसून पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के मजबूत संकेत देते हैं। भारत की कुल बारिश का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा मानसून के सीजन में बरसता है। हजारों साल से मानसून की बारिश का यही पैटर्न रहा है। हालांकि प्राकृतिक तौर पर बहुत मामूली बदलाव दिखे, पर कमोबेश मानसून की बारिश ऐसी ही रही है। लेकिन, अब मानवजनित कार्बन उत्सर्जन के चलते हो रही ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव से इस पैटर्न में बदलाव आ रहा है।
सच तो यह है कि दोनों क्षेत्रों में आई बाढ़ की वजह ग्लोबल वार्मिंग है। गौरतलब हो कि निम्नस्तरीय जेट-स्ट्रीम, जो आसपास के महासागरों से भारत में नमी लाता है, वह पिछले तीन दशकों में उत्तर की तरफ स्थानांतरित हो गया है। जेट स्ट्रीम उन हवाओं को कहा जाता है जो वायुमंडल की निचली परत में होती हैं। जुलाई 2014 में क्लाइमेंट डायनैमिक्स जर्नल में प्रकाशित हुए एक शोधपत्र में कहा गया है कि ग्लोबल वार्मिंग के गहरे प्रभाव से निम्नस्तरीय जेट स्ट्रीम उत्तर की तरफ शिफ्ट हुआ है।
यह शोधपत्र इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, दिल्ली के संदीप सुकुमारन और न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी, आबूधाबी के आरएस अजयमोहन ने तैयार किया है।
शोधपत्र में आगे कहा गया है, “निम्नस्तरीय जेट-स्ट्रीम के स्थानांतरण के चलते पिछले तीन दशकों में भारत के पश्चिमी तट के दक्षिणी हिस्से में सूखे और उत्तरी हिस्से में नमी का ट्रेंड भी देखने को मिला है।”
जुलाई, 2022 की शुरुआत तक गुजरात में सूखे की स्थिति बनी हुई थी, मगर जेट-स्ट्रीम के लगातार शिफ्ट होने और मानसून के सक्रिय हो जाने के कारण वहां बाढ़ आ गई। आश्चर्यजनक है कि महज 10 दिन पहले जिस राज्य में सूखे की स्थिति थी, वह राज्य बाढ़ से जूझने लगा। मैरीलैंड यूनिवर्सिटी के जलवायु विज्ञानी रघु मुर्तुगुड्डे कहते हैं, “चूंकि हाल के दशकों में हवाएं उत्तर की तरफ स्थानांतरित हो गई हैं, इसलिए भारत के मध्य-पश्चिमी क्षेत्र और अरब सागर के पूर्वोत्तर में बारिश में मौसमी बदलाव बढ़ा है।”
इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेंट चेंज (आईपीसीसी) का पूर्वानुमान है कि भविष्य में ग्लोबल वार्मिंग में इजाफे की सूरत में बाढ़-सूखे की स्थितियां और बढ़ेंगी। अगस्त 2021 की आईपीसीसी की एआर6 वर्किंग ग्रुप-1 रिपोर्ट कहती है, “जलवायु परिवर्तन जल चक्र में तेजी ला रहा है। इससे भारी बारिश बढ़ेगी, जिससे बाढ़ आएगी और साथ ही बहुत सारे क्षेत्रों में सूखे की स्थिति भी बनेगी।” रिपोर्ट आगे कहती है, “मानसूनी बारिश में बदलाव की संभावना है, जो अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग होगा।”
इस साल जून में असम में आई बाढ़ में वैश्विक जलवायु के साथ ही कई स्थानीय मौसमी कारकों की भूमिका रही है। मैरिलैंड यूनिवर्सिटी के मौसम विज्ञानी रघु मुर्तुगुड्डे ने डाउन टू अर्थ को बताया, “हम यह पता लगा रहे हैं कि किस तरह पश्चिम से आने वाली नमी गंगा बेसिन से आने वाली नमी से मिलती है और बंगाल की खाड़ी से क्या आ रहा है।” इस बात के संकेत मिले हैं कि इनमें से कुछ कारक ऐसे हैं, जो इस क्षेत्र में बारिश के पैटर्न को लंबे समय के लिए बदल रहे हैं। वह कहते हैं, “मानसून ट्रफ अच्छे तरीके से आ जाता है, जैसा कि अभी भारत में आया हुआ है, तो दक्षिण पश्चिमी हवा भारी मात्रा में नमी को पश्चिमी घाट के उत्तरी हिस्से की तरफ धक्का देती है और पूर्वोत्तर के पहाड़ों के ऊपर भी नमी लाती है, जिससे भारी बारिश हो सकती है।” इस अल्पावधि में विध्वंसक बारिश से असम और मेघालय में हालात खराब हो गये। केरल में बारिश कम होने के पीछे भी यही कारक जिम्मेदार हैं।
पिछले कुछ सालों में भारत में मानसून की बारिश का पैटर्न काफी बदला है। साल 2021 इसका सबसे अहम संकेतक है। मिसाल के लिए सितंबर में निम्न दबाव सिस्टम में असामान्य गतिविधियां दिखीं। सितंबर महीने में निम्न दबाव के पांच क्षेत्र बने और इनमें से एक गुलाब नामक चक्रवात में तब्दील हो गया। ऐसा तब हुआ जब दक्षिण-पश्चिमी मानसून सक्रिय था। सितंबर में चक्रवात का बनना असामान्य बात है। इसी तरह सितंबर महीने में सामान्य से 35 प्रतिशत अधिक बारिश हुई, जो मानसून में होने वाली बारिश का 26 प्रतिशत था। सितंबर में सामान्य तौर पर मानसून की 19 प्रतिशत बारिश होनी चाहिए। आंकड़ा देखें, तो पिछले 27 वर्षों में सितंबर में इतनी बारिश नहीं हुई थी, जितनी पिछले साल दर्ज की गई।
सितंबर महीने में सबसे अधिक बारिश ओडिशा से गुजरात के बीच दर्ज हुई। हालांकि दिल्ली, हरियाणा, पंजाब और राजस्थान में भी इसका असर देखने को मिला। एक अंतर यह भी देखने को मिला कि अगस्त महीना सामान्यतः अधिक बारिश वाला महीना होता है, लेकिन पिछले साल सामान्य से 24 प्रतिशत कम बारिश हुई। सितंबर में निम्न दबाव और बारिश की वजह कुछ स्थानीय मौसमी गतिविधियां, वैश्विक मौसमी कारक तथा आर्कटिक का गर्म होना हो सकता है। नेचर जर्नल में जून 2021 में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक, आर्कटिक सागर के बर्फ और मानसून के आखिरी हिस्से में भारी बारिश के बीच संबध हो सकता है। नेचर जर्नल में प्रकाशित अध्ययन गोवा के नेशनल सेंटर फॉर पोलर ओसिन रिसर्च ने किया था। मुर्तुगुड्डे कहते हैं, “गर्मी में आर्कटिक सागर, खासकर कारा सागर में बर्फ कम हो जाने से पश्चिमी यूरोप और पूर्वोत्तर चीन के ऊपर समुद्र-स्तरीय उच्च दबाव बढ़ता है, जो ग्रहीय लहरों को पूरब की जगह दक्षिण पूर्व की तरफ भेज देता है। इस वजह से यह लहर भारत में देर से प्रवेश करती है। इससे ऊपरी वायुमंडल में सर्कुलेशन में विसंगतियां उत्पन्न होती हैं और सितंबर महीने में भारी बारिश हो जाती है।”
मानसून के उत्तरार्द्ध में भारी बारिश के विपरीत साल 2021 में मानसून आने से पूर्व के तीन महीनों में बारिश नहीं के बराबर हुई। अलबत्ता, कुछ राज्यों में कम समय में भारी बारिश हो गई जिससे बाढ़ आई। पूर्वोत्तर भारत में अल्प वर्षा चिंता का विषय बनी क्योंकि इस हिस्से में पहले से ही कम बारिश हो रही थी। अगस्त महीने में बारिश सामान्य से 24 प्रतिशत कम हुई थी, जिससे लोगों को यह डर सताने लगा था कि मानसून अवधि में भी सामान्य से कम बारिश होगी, क्योंकि अगस्त महीने तक मानसून की बारिश सामान्य से 9 प्रतिशत कम दर्ज हुई थी। ओडिशा और गुजरात समेत अन्य राज्यों, जहां सितंबर में भारी बारिश हुई, उन राज्यों में शुरुआती महीनों में सूखे के हालत थे। गुजरात में सामान्य से 47 प्रतिशत कम और ओडिशा में 29 प्रतिशत कम बारिश हुई थी।
दरअसल मौसम की शुरुआत ही विस्फोटक मौसमी गतिविधियों से हुई थी। तीन जून को यास चक्रवात आया था और कई राज्यों में इस महीने के शुरुआती तीन हफ्तों में खूब बारिश हुई थी, जिससे बाढ़ आ गई थी। सबसे बुरा असर बिहार पर पड़ा था। बिहार में मानसून की अधिकांश बारिश जुलाई और अगस्त में हो जाती है, लेकिन इस अवधि से पहले हुई भारी बारिश से लोग अचरज में पड़ गए थे। जून महीने के अंत में बारिश में सामान्य से 105 प्रतिशत अधिक बारिश हो चुकी थी, जो देश के किसी भी राज्य के मुकाबले अधिक थी। बिहार के कई हिस्सों में बारिश का यह पानी मानसून सीजन तक जमा रहा था। वहीं, केरल, जहां जून में पर्याप्त बारिश होती रहती है, वहां सामान्य से 39 प्रतिशत कम बारिश हुई। हालांकि केरल में जलवायु परिवर्तन के असर से ऐसा ट्रेंड लगातार देखने को मिल रहा है। राष्ट्रीय स्तर पर मानसून की बारिश सामान्य से 7 प्रतिशत अधिक थी। 13 जून के आसपास मानसून की हवा की रफ्तार धीमी पड़ गई, जिस वजह से दिल्ली समेत उत्तर-पश्चिमी भारत के कई हिस्सों में मानसून का आगमन देर से हुआ। 13 जून से 19 जून के बीच मानसून की हवा की रफ्तार में कमोबेश नहीं के बराबर बदलाव हुआ। इसके बाद मानसून की हवा पूरी तरह रुक गई। लगभग 24 दिनों के ठहराव के बाद 13 जुलाई को मानसूनी हवा दोबारा सक्रिय हुई और इस अवधि में उत्तर की तरफ चली गई।
भारत में मानसून का एक अहम पहलू यह भी है कि यह वैज्ञानिकों द्वारा निर्धारित सात क्लाइमेट टिपिंग प्वाइंट्स में से एक है। फर्ज करिए कि एक पहाड़ पर बोल्डर रखा हुआ है। जब तक कोई व्यक्ति उस बोल्डर को पहाड़ के किनारे की तरफ धक्का नहीं दे रहा है, तब तक उसके गिरने का कोई खतरा नहीं है। लेकिन अगर उसे धक्का देकर किनारे पहुंचा दिया जाता है, तो हल्का धक्का देने पर भी वह गिर सकता है और उसे गिरने से कोई बचा नहीं सकता है। इसे टिपिंग प्वाइंट कहा जाता है। अगर बोल्डर को हम कार्बन उत्सर्जन के चलते पृथ्वी के जलवायु में व्यवधान मान लें, तो पहाड़ का वह बिंदु जहां से बोल्डर के गिरने का जोखिम सबसे अधिक है, उसे पृथ्वी की जलवायु व्यवस्था में टिपिंग प्वाइंट कहा जाएगा।
एक बार जब इस तरह के जलवायु टिपिंग प्वाइंट का उल्लंघन होता है, तो ग्रह की जलवायु प्रणाली का वह हिस्सा पूरी तरह से नई और अत्यधिक अनिश्चित स्थिति में चला जाता है, जिसमें व्यापक और अप्रत्याशित परिणाम होते हैं। यह पहाड़ से लुढ़कने वाले बोल्डर के समान होता है। परिणामों में तेजी से बर्फ का नुकसान, अप्रत्याशित व भीषण बाढ़, गर्मी और चक्रवात जैसी चरम मौसमी घटनाएं, जंगलों के घास का मैदान बनने से जैव विविधता में परिवर्तन, कृषि उत्पादन में भारी कमी और बड़े पैमाने पर आर्थिक नुकसान शामिल हो सकते हैं। हालांकि नुकसान कितना होगा, इसकी भविष्यवाणी करना मुश्किल है।
जलवायु टिपिंग प्वाइंट का प्रस्ताव सबसे पहले साल 1987 में कोलंबिया विश्वविद्यालय के वैली ब्रोकर ने दिया था। इसके बाद वैज्ञानिकों के विभिन्न समूहों ने अलग-अलग समय पर नौ से 14 जलवायु टिपिंग बिंदुओं की पहचान की है। वैली ब्रोकर के तथ्यों से पता चला था कि इस तरह के जलवायु टिपिंग प्वाइंट को पृथ्वी के इतिहास में पहले भी पार किया जा चुका है। यह बात पूर्व के जलवायु आंकड़ों से भी प्रमाणित होती है।
दक्षिण-पश्चिम मानसून सबसे कम अध्ययन किए गए जलवायु बिंदुओं में से एक है, लेकिन हाल के अध्ययनों से साफ है कि यह परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है। सबसे बड़े परिवर्तनों में से एक देश के पूर्वोत्तर क्षेत्र में दिख रहा है। यहां पिछले 21 वर्षों में से 19 में मानसून की बारिश सामान्य से कम हुई है।
भारतीय मौसम विज्ञान विभाग और अन्य स्रोतों से मिले मौसम संबंधी आंकड़े भी इस क्षेत्र में पिछले 100 सालों में मानसून की घटती तीव्रता का संकेत देते हैं। दक्षिण पश्चिम मानसून जमीन के ऊपर बनने वाली हवा के तापमान से प्रभावित होता है, जो समुद्र की तुलना में तेजी से गर्म होता है। तापमान में यह अंतर हवा को जन्म देता है, जो हिंद महासागर से आने के चलते नमीयुक्त होती है। एक बार यह नमी वर्षा के रूप में जमीन पर आ जाती है, तो गर्मी उत्पन्न करती है। यह गर्मी जमीन के ऊपर तापमान बढ़ाती है, जिससे तेज हवाएं बनती हैं और मानसून आता है।
एक्सेटर विश्वविद्यालय के ग्लोबल सिस्टम्स इंस्टीट्यूट से जुड़े पॉल रिची ने डाउन टू अर्थ को बताया कि भूमि इस्तेमाल में परिवर्तन या सल्फर एरोसोल (वायु प्रदूषण) में वृद्धि की वजह से ग्रहीय रोशनी (अधिक सतह क्षेत्र के कारण गर्मी में वृद्धि) में इजाफे से भूमि पर तापमान कम हो जाएगा और इसलिए हवाओं में व्यवधान आएगा। पिछले कुछ वर्षों में मानसून में इस तरह के व्यवधान देखे गये हैं।
2021 में उत्तरी अफ्रीका और सऊदी अरब से आने वाली विषम पश्चिमी हवाओं के कारण 19 जून से 13 जुलाई तक मानसूनी हवाएं रिकॉर्ड 24 दिनों के लिए रुक गईं, जो जून 2021 के अंत में उत्तरी गोलार्द्ध के चारों ओर हीट वेव (लू) से जुड़ी हुई थीं। जेट-स्ट्रीम में व्यवधान के कारण हीट वेव पैदा हुई, जो तेजी से गर्म हो रहे आर्कटिक क्षेत्र से जुड़ी। इसके अलावा मानसून पूर्व की मौसमी गतिविधियों मसलन चक्रवात और जमीन आधारित तूफानों में भी बदलाव आ रहा है, जिसे मानसून के आगमन और इसके प्रभाव को प्रभावित किया है।
जर्मनी के पोट्सडैम इंस्टीट्यूट ऑफ क्लाइमेट इम्पैक्ट रिसर्च की जलवायु विज्ञानी एलिना सुरोव्यटकिना कहती हैं कि मानसून से पहले भारी बारिश मानसून सिस्टम को बर्बाद कर देता है और इससे मानसून का फैलाव देर से होता है। एलिना को दक्षिण-पश्चिमी मानसून पर शोध में विशेषज्ञता हासिल है। उन्होंने आगे कहा कि साल 2021 में उत्तरी पाकिस्तान और मध्य तथा उत्तरी भारत में तापमान सामान्य से 4 डिग्री सेल्सियस कम था। इससे मानसून का प्रभाव धीमा हो गया और समय से पहले बारिश और सूखे की अवधि बदल गई। पिछले पांच सालों से ऐसा देखा जा रहा है।
आईआईटी दिल्ली से जुड़े संदीप सुकुमारन के शोध से पता चलता है कि मानसून का सर्कुलेशन उत्तर की तरफ खिसक रहा है। इसका मतलब है कि देशभर में मानसून की बारिश के वितरण में बदलाव आ सकता है। उल्लेखनीय है कि मानसून में जितनी बारिश होती है, उसके एक बड़े हिस्से खासकर मध्य भारत में होने वाली बारिश में बंगाल की खाड़ी में बनने वाले निम्न दबाव की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। सुकुमारन ने शोध में यह भी पाया कि बंगाल की खाड़ी में निम्न दबाव का बनना घट रहा है और भविष्य में होने वाली उष्णता के चलते घटकर आधा हो जाएगा। वहीं दूसरी तरफ, जमीन आधारित निम्न दबाव तो बढ़ेगा, लेकिन सिर्फ 10 प्रतिशत तक। इससे पता चलता है कि समुद्र और जमीन के तापमान के संतुलन में काफी बदलाव हो चुका है।
पिछले पांच सालों में मानसून के आने और विदाई के समय में भी बदलाव आया है। मध्य भारत में मानसून का पदार्पण 9 से 26 जुलाई के बीच होता है, जबकि सामान्य तौर पर मानसून का आगमन जून के आखिर तक हो जाना चाहिए। वहीं, मानसून की विदाई 3 से 26 अक्टूबर के बीच होती है जबकि सामान्य तौर पर 1 अक्टूबर को विदाई होनी चाहिए। इसी वजह से साल 2020 के लिए भारतीय मौसम विज्ञान विभाग को मानसून के सामान्य आगमन और विदाई की तारीख में बदलाव करना पड़ा।
मौसम विज्ञान विभाग ने इसके पीछे की कई वजहों में एक वजह जलवायु परिवर्तन को बताया। इसका मतलब है कि मानसून के समय और इसकी अवधि में बदलाव हो सकता है जो देश को कई तरह से प्रभावित कर सकता है। रिची कहते हैं भारत में खेती काफी हद तक मानसून पर निर्भर है, ऐसे में मानसून के समय में बदलाव से लाखों लोगों की आजीविका और स्थानीय अर्थव्यवस्था पर गहरा असर पड़ेगा। सुकुमारन के शोध के अनुसार, मानसून में बदलाव के उस बिंदु को निर्धारित करना फिलहाल मुश्किल है, जो बताए कि मानसून अब पुरानी तिथियों में नहीं लौट सकता है, लेकिन ग्लोबल वार्मिंग में 1.5 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी से बड़े स्तर पर बदलाव तो दिख रहा है। भविष्य में ग्लोबल वार्मिंग की स्थिति के मद्देनजर इस सदी के अंत तक मानसून की बारिश में 45 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है।
आईआईटी कानपुर के प्रोफेसर सच्चिदानंद त्रिपाठी बताते हैं कि आने वाले समय में वर्षा की तीव्रता बढ़ने का अनुमान है क्योंकि मानसून और अनुकूलन पर जलवायु परिवर्तन का विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। वह कहते हैं कि भविष्य में सीजन के औसत मान और क्षेत्र-औसत मानसून वर्षा में वृद्धि होने की उम्मीद है। यह भूमि-समुद्र के ताप अंतर (थर्मल कंट्रास्ट) में वृद्धि और हिंद महासागर के गर्म होने के कारण ऐसा हो सकता है क्योंकि भूमि-समुद्र के ताप अंतर और हिंद महासागर के गर्म होने के कारण भारत में नमी का प्रवाह बढ़ेगा।
इसके चलते भारत के कई क्षेत्रों में तीव्र व असमान वितरण वाली वर्षा का अनुभव किया जा सकता है।
हालांकि, सच्चिदानंद यह भी बताते हैं कि जलवायु सिमुलेशन परिवर्तन के कई तरह के पैटर्न प्रदर्शित कर रहे हैं इसलिए यह भविष्यवाणी करना काफी चुनौतीपूर्ण है कि भारत के भीतर वर्षा का रूप कैसे बदल सकता है। भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून वर्षा (आईएसएमआर) की प्रवृत्तियों ने भी महत्वपूर्ण क्षेत्रीय परिवर्तनशीलता का प्रदर्शन किया है, कुछ क्षेत्रों में वर्षा में वृद्धि हुई है जबकि अन्य में कमी देखी जा रही है।
वह बताते हैं कि आने वाले वर्षों में मानसून की अंतर-वार्षिक परिवर्तनशीलता बढ़ेगी, चाहे इसके मुख्य चालक अल नीनो, ट्रोपोस्फेरिक बायेनियल ऑसिलेशेन आदि में कैसा भी परिवर्तन आए। हालांकि, हम इस महत्वपूर्ण उतार-चढ़ाव के अपने अनुमानों में तब तक अधिक आश्वस्त नहीं होंगे जब तक कि हम अपने जलवायु मॉडल में मानसून की दैनिक और अंतर-मौसमी परिवर्तनशीलता का बेहतर अनुमान करने में सक्षम नहीं होते हैं। देश की बढ़ती आबादी और खाद्य सुरक्षा की आवश्यकता को देखते हुए इन क्षेत्रों में वैज्ञानिक ज्ञान को बढ़ाना महत्वपूर्ण है।