
भारत की कृषि-प्रधान अर्थव्यवस्था के लिए मानसून जीवनरेखा से कम नहीं। हर साल देश में होने वाली कुल बारिश का करीब तीन-चौथाई हिस्सा केवल दक्षिण-पश्चिम मानसून से मिलता है, जो जून से अक्टूबर के बीच सक्रिय रहता है। ऐसे में मानसून की यह अवधि कृषि, अर्थव्यवस्था और आम लोगों के लिए बेहद मायने रखती है।
लेकिन वैज्ञानिकों ने पुष्टि की है कि समय के साथ भारत में मानसून का चरित्र बदल रहा है और इसके पीछे ठोस आंकड़े हैं। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) से जुड़े वैज्ञानिकों द्वारा किए एक विस्तृत विश्लेषण से पता चला है कि मानसून न केवल देर से विदा हो रहा है, बल्कि इसकी समयावधि भी बढ़ रही है और इसका सीधा असर देश की खाद्य सुरक्षा, अर्थव्यवस्था और जल प्रबंधन पर पड़ रहा है।
गौरतलब है कि दक्षिण-पश्चिम मानसून की शुरुआत सामान्यतः 1 जून से केरल में होती है। वहीं करीब 15 जुलाई तक यह पूरे भारत में सक्रिय हो जाता है। वहीं 15 सितंबर से मानसून की वापसी शुरू हो जाती है, जबकि 15 अक्टूबर तक इसकी विदाई पूरी मानी जाती है।
जर्नल मौसम में प्रकाशित इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने 1971 से 2020 के बीच मानसूनी बारिश से जुड़े आंकड़ों का विश्लेषण किया है। उन्होंने इसकी शुरूआत से लेकर विदाई तक को ट्रैक किया है। इस अध्ययन के जो नतीजे सामने आए हैं उनसे पता चला है कि भारत में मानसून की अवधि हर दशक औसतन 1.6 दिन बढ़ रही है। इसका मतलब है कि मानसून अब पहले से ज्यादा देर तक बना रहता है।
बढ़ते तापमान और अल नीनो का पड़ रहा है असर
अध्ययन में यह भी सामने आया है कि मानसून की विदाई में हो रही देरी, मानसून के लंबे होने की मुख्य वजह है। विशेषज्ञ मानते हैं कि यह बदलाव जलवायु परिवर्तन से जुड़ा हो सकता है।
देखा जाए तो मानसून की यह 'धीमी विदाई' खेती की समय-सारणी, बुवाई और कटाई के समय को सीधे तौर पर प्रभावित कर सकती है। साथ ही इसकी वजह से बाढ़ और सूखा जैसी घटनाओं में भी उतार-चढ़ाव आ सकता है।
हालांकि केरल में मानसून के आगमन की तारीख में साल-दर-साल बदलाव देखा गया है, लेकिन पिछले 50 वर्षों के औसत ट्रेंड को देखें तो इसमें कोई खास बदलाव नहीं आया है।
विश्लेषण के मुताबिक भारत में मानसून जिस अवधि के दौरान पूरे देश में सक्रिय रहता है उन दिनों की संख्या में भी बढ़ोतरी हुई है। अनुमान है कि ऐसे दिनों की संख्या हर दशक औसतन 3.1 दिन बढ़ रही है। इसका कारण यह है कि उत्तर-पश्चिम भारत से मानसून की वापसी में देर से हो रही है।
अध्ययन में केरल में मानसून के आगमन से लेकर देशभर से विदाई तक की अवधि के दौरान होने वाली बारिश का विश्लेषण भी किया गया है। इस विश्लेषण के मुताबिक जून से सितम्बर के बीच होने वाली बारिश साल में देश में होने वाली कुल बारिश में करीब 75 फीसदी का योगदान देती है। वहीं जून में मानसून की शुरूआत से अक्टूबर में विदाई तक होने वाली बारिश की हिस्सेदारी करीब 79 फीसदी है।
रिसर्च से पता चला है कि कई वर्षों में इन दोनों अवधियों के आंकड़ों में भी महत्वपूर्ण अंतर आया है। अध्ययन में जो दिलचस्प बात सामने आई है तो वो यह है कि जून में मानसून के आगमन से अक्टूबर में विदाई तक होने वाली बारिश का प्रभाव फसलों पर कहीं ज्यादा पड़ता है।
अध्ययन में इस बात का भी जिक्र किया गया है कि 1986 से 2015 के बीच भारत का औसत तापमान हर दशक में 0.15 डिग्री सेल्सियस की दर से बढ़ा है। वहीं जिस तरह से वैश्विक तापमान में इजाफा हो रहा है उसके चलते वाले वर्षों में तापमान में बढ़ोतरी की यह दर और बढ़ सकती है। ग्लोबल क्लाइमेट मॉडल सीएमआइपी6 के आधार पर की गई गणना से पता चला है कि तापमान में एक डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी के साथ भारत में मानसून के दौरान होने वाली बारिश में छह फीसदी का इजाफा हो सकता है।
वैज्ञानिकों के मुताबिक भविष्य में मानसून की अवधि में होने वाले संभावित बदलावों को समझने के लिए और गहराई से अध्ययन की आवश्यकता है। वैज्ञानिकों ने अध्ययन में इस बात का भी जिक्र किया है कि भारत में मानसून के दौरान होने वाली बारिश और उसके पैटर्न पर अल नीनों का भी गहरा असर पड़ता है।
केवल बारिश नहीं, नीतियों का है सवाल
मानसून अब केवल मौसम का विषय नहीं रहा, यह नीति निर्माण, सिंचाई योजनाओं, जलाशयों के प्रबंधन और खाद्य भंडारण रणनीतियों का भी केंद्र बिंदु बन चुका है। जब मानसून में बदलाव आता है, तो केवल कृषि ही नहीं, पूरी अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है।
ऐसे में मौसम विज्ञानियों, कृषि विशेषज्ञों और नीति निर्माताओं को अब यह समझना होगा कि अगर मानसून की प्रकृति बदल रही है, तो हमें भी अपनी रणनीतियों को इसके हिसाब से नए सिरे से गढ़ना होगा।