जलवायु परिवर्तन के साथ बदल रहा मॉनसून का मिजाज, पश्चिमी भारत में बढ़ रहे हैं बारिश के आंकड़े

अध्ययन के अनुसार जहां पश्चिमी भारत में मॉनसूनी बारिश में वृद्धि हुई है, वहीं पूर्वोत्तर में इसमें उल्लेखनीय गिरावट दर्ज की गई है
फोटो : विकिमीडिया कॉमन्स
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मॉनसून जिसे देश का असली ‘वित्त मंत्री’ भी कहा जाता है, वो भी जलवायु में आते बदलावों के चलते बेबस हो चुका है। वैज्ञानिकों की मानें तो जिस तरह से जलवायु में बदलाव आ रहे हैं उसका असर मॉनसून के दौरान होने वाली बारिश और उसके पैटर्न पर भी पड़ रहा है।

इस बारे में बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी के भूभौतिकी विभाग के प्रमुख प्रोफेसर राजीव भाटला की अगुवाई में अंतराष्ट्रीय शोधकर्ताओं के दल द्वारा किए अध्ययन से पता चला है कि जलवायु में आते बदलावों के साथ-साथ देश में दक्षिणी-पश्चिमी मॉनसून के दौरान होने वाली बारिश में भी बदलाव आ रहा है। पिछले 113 वर्षों के आंकड़ों की जांच से पता चला है कि जहां इस दौरान पश्चिमी भारत में मॉनसूनी बारिश में वृद्धि हुई है, वहीं पूर्वोत्तर भारत में इस दौरान होने वाली बारिश में उल्लेखनीय कमी आई है।

सीधे शब्दों में कहें तो, भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) के जर्नल ‘मौसम’ में प्रकाशित इस अध्ययन के नतीजे दर्शाते हैं कि जलवायु परिवर्तन के चलते दक्षिणी-पश्चिमी मॉनसून के दौरान होने वाली बारिश पश्चिम की ओर स्थानांतरित हो रही है।

करीब आठ करोड़ साल पहले मॉनसून अस्तित्व में आता तब से लेकर आज तक यह एक अबूझ पहेली बना हुआ है। ऊपर से जलवायु में आते बदलावों ने इसे समझना और मुश्किल बना दिया है। इसके बदलते मिजाज के चलते कहीं भारी बारिश होती है तो कहीं सूखा पड़ जाता है और कहीं भूस्खलन और बादल फटने की घटनांए होती हैं। ऐसे में इसकी बेहतर समझ बहुत जरूरी है।

कृषि और अर्थव्यवस्था में इसकी भूमिका के चलते ही भारत में मॉनसून को असली वित्त मंत्री का दर्जा दिया है जो न केवल लोगों की जीविका और खाद्य सुरक्षा को ही नहीं बल्कि देश की अर्थव्यवस्था को भी नियंत्रित करता है।

वैज्ञानिकों के अनुसार गर्मियों में आने वाला यह दक्षिण-पश्चिमी मॉनसून जून से सितम्बर तक रहता है। पूरे साल देश में जितनी बारिश होती है उसका 80 फीसदी इन्हीं चार महीनों में बरसता है। पूरे साल किसान आसमान पर इसके इंतज़ार में टकटकी लगाए रहते हैं कि कब यह आए तो वो अपनी बुवाई शुरू करें। यह सिलसिला साल दर साल चलता आया है। देश में ऊर्जा उत्पादन, जल उपलब्धता और उद्योग भी इसी मॉनसून के दौरान हुई बारिश की आस में रहते हैं। यह मॉनसून किसानों के लिए किसी वरदान से कम नहीं लेकिन अब इसका बदलता मिजाज अभिशाप बनता जा रहा है।

यह एक जून के आसपास केरल से शुरू होता है और बारिश का सिलसिला सितंबर तक चलता है। भारत में इसके आने और जाने का यह सिलसिला हजारों वर्षों से चल रहा है। शोधकर्ताओं के अनुसार इस मॉनसून की दो प्रमुख विशेषताएं हैं। पहला यह हर साल नियमित रूप से आता है और दूसरा हर साल इसके दौरान होने वाली बारिश में अंतर पाया जाता है।

अपने इस नए अध्ययन में वैज्ञानिकों ने 1901से 2013 के दौरान जून से सितंबर और जुलाई से अगस्त के बीच होने वाली बारिश के पैटर्न की जांच की है। साथ ही दशक और तीन दशकों के बीच मॉनसूनी बारिश के पैटर्न में आए बदलावों का अध्ययन किया है। उन्हें भरोसा है कि इस अध्ययन के जो नतीजे सामने आए हैं वो नीति निर्मातों और शोधकर्ताओं के लिए फायदेमंद हो सकते हैं। यह नतीजे बदलती जलवायु का सामना करने और उनसे निपटने का तरीके ढूंढने के लिए उनकी समझ और निर्णय लेने की क्षमताओं को बढ़ाने में मदद कर सकते हैं।

शोधकर्ताओं के अनुसार 1901 से 2013 के बीच यदि पिछले 113 वर्षों में जून से सितम्बर के बीच होने वाली औसत बारिश के पैटर्न को देखें तो इस बारिश का वितरण देश में काफी असमान है। जहां पश्चिमी घाट और पूर्वोत्तर भारत के कुछ हिस्सों में सबसे ज्यादा हर दिन औसतन 15 से 17 मिलीमीटर या उससे ज्यादा बारिश होती है।

वहीं पश्चिमी भारत, हिमालयी के ऊपरी क्षेत्रों के साथ निचले प्रायद्वीप में हर दिन महज एक से तीन मिलीमीटर बारिश होती है। इसी तरह मध्य राजस्थान, गुजरात के कुछ ऊपरी हिस्सों, और दक्कन क्षेत्रों में बारिश तीन से पांच मिलीमीटर रहती है। वहीं गंगा के मैदानी हिस्सों और मध्य भारत के एक बड़े हिस्से में पांच से 11 मिलीमीटर या उससे अधिक बारिश होती है, जबकि मध्य भारत के निचले इलाकों में हर दिन पांच से नौ मिलीमीटर बारिश होती है। पूर्वोत्तर भारत के मध्य इलाकों को देखें तो वहां बारिश का औसत हर दिन नौ से 11 मिलीमीटर के बीच रहता है।

अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 1921 से 1950 और 1951 से 1980 के दौरान तीन-तीन दशकों की अवधि के बीच बारिश के पैटर्न में आए बदलावों का अध्ययन किया है। साथ ही उन्होंने दक्षिणी-पश्चिमी मॉनसून के दौरान होने वाली बारिश में हर दशक आए बदलावों का भी विश्लेषण किया है। इस अध्ययन के जो नतीजे आए हैं उनके मुताबिक ऊपरी हिमालय, पश्चिमी भारत और प्रायद्वीपीय भारत के प्रमुख हिस्सों में मॉनसून के दौरान होने वाली बारिश में हर दिन 0.2 से एक मिलीमीटर की वृद्धि दर्ज की गई है। वहीं दूसरी तरफ पश्चिमी घाट, सिंधु-गंगा के मैदान और मध्य भारत के कुछ क्षेत्रों में इस दौरान होने वाली बारिश में हर दिन -0.6 से -1.5 मिलीमीटर तक की कमी देखी गई है।

कुल मिलकर देखें तो अध्ययन के अनुसार जहां पश्चिमी भारत में मॉनसूनी बारिश में वृद्धि हुई है, वहीं पूर्वोत्तर में इसमें उल्लेखनीय गिरावट दर्ज की गई है। जो बदलती जलवायु परिस्थितियों के चलते मॉनसूनी बारिश के पैटर्न में पश्चिम की ओर बदलाव का संकेत देता है।

इससे पहले जुलाई 2014 में जर्नल क्लाइमेंट डायनैमिक्स में प्रकाशित एक रिसर्च के मुताबिक पिछले तीन दशकों में ग्लोबल वार्मिंग के गहरे प्रभावों के चलते निम्नस्तरीय जेट स्ट्रीम उत्तर की तरफ शिफ्ट हुई है। गौरतलब है कि निम्नस्तरीय जेट-स्ट्रीम, आसपास के महासागरों से नमी भारत में लाती है। इतना ही नहीं इस अध्ययन के अनुसार “निम्नस्तरीय जेट-स्ट्रीम के स्थानांतरण के चलते पिछले तीन दशकों में भारत के पश्चिमी तट के दक्षिणी हिस्से में सूखा और उत्तरी हिस्से में नमी का ट्रेंड भी देखने को मिला है।”

अतीत के अनुभव दर्शाते हैं कि जहां एक खराब मॉनसून लोगों को सूखा, अकाल जैसी परिस्थितियों का सामना करने के लिए विवश कर सकता है। वहीं अकस्मात बारिश, बाढ़, तूफान जैसी त्रासदी भी साथ लाती है। यही वजह है कि गांवों की सड़कों से संसद के गलियारों तक मॉनसून की चर्चा होती है, जिसपर सभी की निगाहें रहती हैं। ऐसे में जलवायु परिवर्तन के इस दौर में इसे समझना और ज्यादा जरूरी हो जाता है।

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