
जनवरी 2025 में भारत भारतीय विज्ञान विभाग (आईएमडी) ने 2024 को देश का अब तक का सबसे गर्म वर्ष घोषित किया। विभाग ने बताया कि साल का औसत तापमान, दीर्घकालिक औसत से 0.65 डिग्री सेल्सियस अधिक था।
लेकिन गहराई से देखने पर पता चलता है कि असल में तापमान में होने वाली यह वृद्धि एक डिग्री सेल्सियस से ज्यादा हो सकती है। यह आंकड़े चरम मौसम और जैव विविधता को होने वाले नुकसान के बारे में गहरी चिंता को उजागर करते हैं।
अब सवाल यह है कि जब वृद्धि एक डिग्री सेल्सियस की हो सकती थी तो इसे आंकड़ों में कम करके कैसे आंका गया? इसका जवाब उस मानक में छिपा है जिसे आधार रेखा कहा जाता है। इस आधार रेखा को ध्यान में रखते हुए तापमान में होने वाले अंतर को मापा जाता है।
पता चला है कि आईएमडी ने अपनी वार्षिक जलवायु रिपोर्ट में इस मानक को चुपचाप बदल दिया, जिसके आधार पर तापमान में बढ़ोतरी को मापा जाता है। बता दें कि इस मानक को दीर्घकालिक औसत (लॉन्ग पीरियड एवरेज या एलपीए) कहा जाता है। यह 30 वर्षों के औसत तापमान को दर्शाता है और यह तय करने में अहम भूमिका निभाता है कि देश में तापमान में कितना बदलाव आया है।
इस दीर्घकालिक औसत का उपयोग सतह के तापमान में आए उतार चढ़ाव की गणना के लिए किया जाता है। हर बार नए एलपीए में पहले से गर्म समय को आधार बनाया गया, जिससे तापमान में होने वाली असल बढ़ोतरी कम दर्ज की गई।
2010 तक आईएमडी ‘1961 से 1990’ के औसत तापमान को दीर्घकालिक औसत यानी आधार रेखा मानकर रिपोर्ट तैयार करता था। 2016 में, जब वह साल अब तक का सबसे गर्म घोषित हुआ था, आईएमडी ने एलपीए को बदलकर ‘1971 से 2000’ कर दिया। फिर 2019 में इसे दोबारा बदलकर ‘1981 से 2010’ किया गया। अब 2024 की जलवायु रिपोर्ट में मौसम विभाग ने ‘1991 से 2020’ के औसत तापमान को आधार बनाया है।
यह बात मामूली लग सकती है, लेकिन इन बदलावों के बड़े असर हैं। पिछले 20 वर्षों में देश में गर्मी तेजी से बढ़ी है। ऐसे में आधार रेखा को आगे बढ़ाने का मतलब है कि अब के तापमान की तुलना पहले से ही गर्म हो चुके औसत तापमान से करना। इससे तापमान में होने वाली असली बढ़ोतरी कम दिखाई देती है।
आधार रेखा में बदलाव के साथ बदल रही तस्वीर
2010 की जलवायु रिपोर्ट में, जब ‘1961 से 1990’ को आधार रेखा की तरह इस्तेमाल किया गया, तो 2010 में तापमान में हुई वृद्धि 0.93 डिग्री सेल्सियस आंकी गई। गौरतलब है कि 2010 का औसत तापमान 25.8 डिग्री सेल्सियस था। वहीं 2016 में जब आधार रेखा को ‘1971 से 2000’ के औसत पर अपडेट किया गया, तो तापमान में दर्ज विसंगति घटकर 0.82 डिग्री सेल्सियस रह गई।
वहीं यदि 2019 में आधार रेखा में किए अपडेट के आधार पर देखें तो 2010 के तापमान में हुई यह वृद्धि घटकर 0.54 डिग्री सेल्सियस रह गई। बता दें कि 2019 में इस आधार रेखा को ‘1981 से 2010’ के औसत तापमान के आधार पर तय किया गया था।
वहीं यदि 2024 की रिपोर्ट में निर्धारित आधार रेखा (‘1991 से 2020’) के औसत के आधार पर देखें तो 2010 के तापमान में दर्ज वृद्धि घटकर महज 0.39 डिग्री सेल्सियस रह गई।
आंकड़ों में साफ है कि आधार रेखा में बदलाव के कारण 2010 के तापमान में हुई वृद्धि में 0.54 डिग्री सेल्सियस तक की कमी देखी गई। अगर यही गणना 2024 पर लागू करें, तो असल वृद्धि 1.19 डिग्री सेल्सियस तक हो सकती है।
बिना आंकड़ों के कैसे साफ होगी तस्वीर
यह मामला और उलझा है, क्योंकि आईएमडी की सालाना रिपोर्ट में न तो उस साल का असल तापमान बताया जाता है और न ही आधार रेखा के बारे में जानकारी साझा की जाती है। सिर्फ तापमान में आए बदलावों को ही उजागर किया जाता है।
इस तरह आंकड़ों की कमी और बार-बार आधार रेखा में होने वाले बदलावों से यह समझना मुश्किल हो जाता है कि तापमान का रुझान किस दिशा में जा रहा है और इससे अलग-अलग वर्षों के आंकड़ों के बीच तुलना भी आसान नहीं रहती।
कुछ मीडिया रिपोर्टों में आईएमडी के महानिदेशक मृत्युंजय महापात्र के हवाले से कहा गया है कि 2024 का औसत तापमान 25.75 डिग्री सेल्सियस था। लेकिन यह आंकड़ा 2010 के 25.8 डिग्री सेल्सियस से कम है। इससे यह सवाल उठता है कि क्या वाकई 2024 अब तक का सबसे गर्म साल था, या फिर आंकड़े तय करने का तरीका बदलने से ऐसा हो रहा है? ऐसे में संदेह होना लाजिमी ही है।
उलझन यहीं खत्म नहीं होती। 2016 को अब दूसरा सबसे गर्म साल माना जा रहा है। लेकिन सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, 2016 का औसत तापमान 26.2 डिग्री सेल्सियस था, जो 2024 के औसत तापमान 25.75 डिग्री सेल्सियस से करीब 0.45 डिग्री सेल्सियस अधिक है।
बढ़ते तापमान के स्पष्ट संकेत
इन सबके बीच एक बात तो स्पष्ट है कि चाहे बढ़ते तापमान को कैसे भी मापा जाए, इसका असर अब स्पष्ट तौर पर दिखने लगा है।
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) और डाउन टू अर्थ (डीटीई) द्वारा जारी इंटरैक्टिव एक्सट्रीम वेदर एटलस के आंकड़ों के मुताबिक 2024 के दौरान भारत में 366 में से 322 दिन किसी न किसी हिस्से में चरम मौसमी घटना ने कहर ढाया था। यह आंकड़ा 2023 में 318 और 2022 में 314 रिकॉर्ड किया गया। यानी हर गुजरते साल के साथ ऐसे दिनों की संख्या भी बढ़ रही है।
साल 2024 में देश के किसी न किसी हिस्से में लगभग 88 फीसदी दिनों में चरम मौसमी घटनाएं दर्ज की गई। यह आंकड़ा 2023 में 87 फीसदी और 2022 में 86 फीसदी था। यानी हर साल ऐसे दिनों की संख्या बढ़ रही है।
समझना होगा कि यह महज आंकड़े नहीं हैं, चरम मौसम का असर अब लोगों की जान और जेब पर साफ तौर पर दिखने लगा है। 2024 में इन आपदाओं ने 3,472 जिंदगियों को निगल लिया था, जो 2023 में 3,287 और 2022 में 3,026 रिकॉर्ड की गई थी। यानी की पिछले तीन वर्षों में मौतों की संख्या में 15 फीसद की बढ़ोतरी हुई है।
कृषि क्षेत्र को भी इसका भारी खामियाजा भुगतना पड़ा है। एटलस के मुताबिक 2024 में चरम मौसमी घटनाओं ने कम से कम 40.7 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में फसलों को प्रभावित किया। किसान की बर्बादी का यह आंकड़ा 2023 में 22.1 लाख हेक्टेयर, जबकि 2022 में 19.6 लाख हेक्टेयर से काफी अधिक है। यानी, पिछले सालों के मुकाबले प्रभावित जमीन में 84 से 108 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है।
चिंता की बात यह है कि देश के हर हिस्से में चरम मौसमी घटनाओं का कहर बढ़ा है। मध्य भारत में 2024 के दौरान 253 दिन ऐसी घटनाएं दर्ज की गई, जो 2022 में 218 दिनों के मुकाबले 16 फीसदी अधिक हैं। इसी तरह दक्षिणी भारत में 2024 के दौरान 223 दिन चरम मौसम देखा गया, जो 2022 से 31 फीसदी अधिक था।
लेख का अनुवाद ललित मौर्य द्वारा किया गया है।