बात चाहे चपाती की हो या बिस्कुट की हम सभी किसी न किसी रूप में गेहूं का सेवन करते है। यह हमारे भोजन का एक प्रमुख स्रोत है। देखा जाए तो गेहूं एक प्रमुख खाद्यान्न फसल है, जो न केवल भारत बल्कि दुनिया भर में लोगों के पोषण का एक प्रमुख स्रोत है। अनुमान है कि यह फसल भारत सहित 94 देशों के 350 करोड़ लोगों की 20 फीसदी कैलोरी और प्रोटीन की जरुरत को पूरा करती है।
लेकिन क्या आप जानते हैं कि जैसे-जैसे जलवायु में बदलाव आ रहा है और वैश्विक तापमान में वृद्धि हो रही है उसके चलते गेहूं उत्पादन पर भी खतरा मंडरा रहा है। देखा जाए तो भारत सहित दुनिया भर में बढ़ते तापमान के चलते दिनों-दिन जल संकट और गहराता जा रहा है, इसका असर न केवल पानी की उपलब्धता पर पड़ रहा है, बल्कि गेहूं और धान जैसी उन फसलों पर भी पड़ रहा है, जो बारिश पर निर्भर हैं।
हालांकि पिछले कुछ शोधों की मानें तो बढ़ते तापमान के चलते दुनिया के कई देशों में गेहूं उत्पादन बढ़ सकता है जिसकी वजह से वैश्विक स्तर पर इसके कुल उत्पादन में वृद्धि हो सकती है, लेकिन देखा जाए तो यह पूरी तस्वीर नहीं है।
इस बारे में जर्नल वन अर्थ में प्रकाशित एक नई रिसर्च से पता चला है कि यदि हम वैश्विक तापमान में होती वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने में कामयाब भी हो जाएं तो भी जलवायु में आते बदलावों की वजह से गेहूं की पैदावार और कीमतों में भारी बदलाव और उतार-चढ़ाव आ सकते हैं।
शोधकर्ताओं का मानना है कि बढ़ते तापमान के चलते जहां एक तरफ उच्च अक्षांशों पर बसे देशों जैसे चीन, अमेरिका और यूरोप में गेहूं का उत्पादन बढ़ जाएगा वहीं दूसरी तरफ इन बदलावों के चलते दक्षिण एशिया और अफ्रीकी देशों में इसकी पैदावार घट जाएगी। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि बढ़ते तापमान के चलते जहां भारत में जहां गेहूं उत्पादन में 6.9 फीसदी तक की गिरावट आ सकती हैं, वहीं इसकी वजह से कीमतों में 36 फीसदी से ज्यादा की वृद्धि हो सकती है। वहीं मिस्र में गेहूं उत्पादन का यह आंकड़ा 24.2 फीसदी तक गिर सकता है।
जिसका मतलब है कि पैदावार में इस परिवर्तन से अनाज की कीमतों में भी भारी असर पड़ेगा। विशेष रूप से ग्लोबल साउथ में इसके बढ़ने की आशंका है जिसकी वजह से मौजूदा आर्थिक असमानता पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा बढ़ जाएगी। वहीं खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) के अनुसार बढ़ती वैश्विक जनसंख्या के चलते 2050 तक अनाज की वार्षिक मांग लगभग 43 फीसदी बढ़ जाएगी।
इसे बेहतर तरीके से समझने के लिए शोधकर्ताओं ने जलवायु-गेहूं-आर्थिक मॉडलिंग दृष्टिकोण को विकसित किया है, जिसमें उन्होंने जलवायु की औसत परिस्थितियों में गेहूं की पैदावार, उसकी कीमतों और वैश्विक आपूर्ति श्रंखला पर पड़ते मौसम की चरम घटनाओं के प्रभावों का अध्ययन किया है। इस मॉडल में शोधकर्ताओं ने तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस की होती वृद्धि के आधार पर वैश्विक स्तर पर गेहूं की मांग और आपूर्ति पर पड़ने वाले प्रभावों का विश्लेषण किया है।
शोध के जो निष्कर्ष सामने आए हैं उनसे पता चला है कि तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के साथ वैश्विक गेहूं उत्पादन में 1.7 फीसदी की वृद्धि आ सकती है, क्योंकि कार्बन डाइऑक्साइड फर्टिलाइजेशन बढ़ते तापमान की भरपाई कर देगा।
लेकिन इसका फायदा उच्च अक्षांशीय देशों को ही मिलेगा, वहीं अफ्रीका और दक्षिण एशिया जैसे निम्न अक्षांशीय देशों में इसकी पैदावार में 15 फीसदी तक की गिरावट आ सकती है। हालांकि यदि कार्बन डाइऑक्साइड के असर को नजरअंदाज कर दें तो अनुमान है कि वैश्विक गेहूं उत्पादन में प्रति डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के साथ 6.6 फीसदी तक की गिरावट आ सकती है।
इसके चलते उपभोक्ताओं के लिए वैश्विक स्तर पर गेहूं की औसत कीमतों में 1.8 फीसदी की वृद्धि आ जाएगी, जोकि 6.2 फीसदी तक बढ़ सकती है। अनुमान है कि इसके चलते भारत और मध्य एशियाई देशों में औसत कीमतों में भारी वृद्धि हो सकती है वहीं दूसरी तरफ चीन सहित कई यूरोपीय देशों में कीमतों में गिरावट आने की सम्भावना है।
शोध के मुताबिक भारत एक गेहूं निर्यातक देश हैं जहां परिस्थितियां अन्य देशों से कुछ अलग होंगी। तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के साथ देश में जहां गेहूं की पैदावार घट जाएगी, जिसकी वजह से कीमतों में वृद्धि आ जाएगी। इसका फायदा स्थानीय गेहूं उत्पादकों को होगा लेकिन यह उपभोक्ताओं की जेब पर कहीं ज्यादा भारी पड़ेगा।
जलवायु में आते दीर्घकालिक बदलावों की वजह से कीमतों में आती अस्थिरता वैश्विक खाद्य सुरक्षा के लिए भी बड़ा खतरा पैदा कर सकती है। देखा जाए तो भारत, मध्य एशिया और अफ्रीका में बढ़ती कीमतों का सबसे ज्यादा असर समाज के कमजोर तबके पर पड़ेगा। जो पहले ही जलवायु से जुड़ी आपदाओं और आर्थिक संकट से त्रस्त हैं।
इस बारे में शोध से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता तियानी झांग का कहना है कि उपज में आए इस बदलाव के साथ इसका गेहूं बाजार की पारंपरिक व्यापार स्थिति पर गहरा असर पड़ेगा। इसकी वजह से गेहूं आयात करने वाले दक्षिणी एशियाई और उत्तरी अफ्रीकी जैसे निम्न अक्षांशीय क्षेत्रों में कीमतों में भारी वृद्धि हो सकती है। साथ ही अनुमान है कि इसका असर गेहूं आयात और निर्यात करने वाले देशों के किसानों पर भी पड़ेगा जहां उनकी आय के बीच का अंतर पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा बढ़ जाएगा।
ऐसे में शोधकर्ताओं का कहना है कि विकासशील देशों में संरक्षण नीतियों के साथ कृषि व्यापार उदारीकरण, जलवायु परिवर्तन के खतरे में वैश्विक खाद्य सुरक्षा के लिए फायदेमंद हो सकता है। साथ ही ऐसी नीतियां गेहूं उत्पादों से उपभोक्ताओं पर पड़ते आर्थिक बोझ को भी कम कर सकती हैं।
वहीं जर्नल साइंस एडवांसेज में छपे एक अन्य शोध से पता चला है कि आज दुनिया के 15 फीसदी गेहूं उत्पादक क्षेत्र जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहे हैं, ऐसे में यदि जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने के लिए अभी कदम नहीं उठाए गए तो इस सदी के अंत 60 फीसदी से अधिक गेहूं उत्पादक क्षेत्र सूखे की चपेट में होंगे। जो उनकी पैदावार को भारी नुकसान पहुंचा सकता है।