संकटग्रस्त कछुए की प्रजाति की गंगा में वापसी, जैव विविधता संरक्षण के लिए आशा की किरण

लुप्तप्राय रेड-क्राउन्ड रूफ्ड टर्टल, कछुए की मीठे पानी की प्रजाति है और स्थलीय घोंसले के स्थानों के साथ गहरी बहने वाली नदियों में पाया जाता है।
लाल मुकुट वाले कछुए का खोल 56 सेमी तक लंबा हो सकता है और इसका वजन 25 किलोग्राम तक हो सकता है।
लाल मुकुट वाले कछुए का खोल 56 सेमी तक लंबा हो सकता है और इसका वजन 25 किलोग्राम तक हो सकता है। फोटो साभार: भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई), सौरव गवान
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गंगा नदी के तटों पर नए जीवन की संभावनाएं देखी जा रही हैं। कभी लुप्तप्राय कछुओं की प्रजातियों का घर रहे गंगा के तट, अब जैवविविधता संरक्षण की दिशा में अच्छे बदलाव की ओर मुखर हो रहे हैं। यह बदलाव विशेष रूप से लुप्तप्राय रेड-क्राउन्ड रूफ्ड टर्टल या लाल मुकुट वाले कछुए की गंगा में वापसी से स्पष्ट है।

यह एक ऐसी प्रजाति है जिसकी आबादी में पहले लगातार गिरावट देखी गई। गंगा के पानी में यह नई आशा न केवल इन प्राचीन जीवों के लिए बल्कि पूरे पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली के लिए भी एक अहम कदम है।

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किस तरह की होती है रेड-क्राउन्ड रूफ्ड टर्टल या लाल मुकुट वाले कछुए की प्रजाति?

भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई) के मुताबिक, रेड-क्राउन्ड रूफ्ड टर्टल या लाल मुकुट वाला कछुआ भारत, बांग्लादेश और नेपाल का मूल निवासी है। ऐतिहासिक रूप से, यह प्रजाति भारत और बांग्लादेश दोनों में गंगा नदी में व्यापक रूप से पाई जाती थी। यह ब्रह्मपुत्र बेसिन में भी पाया जाता है। इससे पहले भारत में, राष्ट्रीय चंबल नदी घड़ियाल अभयारण्य ही एकमात्र ऐसा क्षेत्र है जहां इस प्रजाति की पर्याप्त आबादी है, लेकिन यह संरक्षित क्षेत्र और आवास भी खतरे में है।

लाल मुकुट वाले कछुए का खोल 56 सेमी तक लंबा हो सकता है और इसका वजन 25 किलोग्राम तक हो सकता है। मादा समकक्षों की तुलना में, नर छोटे होते हैं और उनकी लंबाई का केवल आधा हिस्सा ही हासिल कर पाते हैं। इसका सिर आकार में मध्यम होता है और इसमें एक कुंद और थोड़ा उभरा हुआ थूथन होता है। इस प्रजाति का कवच दृढ़ता से घुमावदार होता है और युवा कछुओं में प्लैस्ट्रॉन पार्श्व में कोणीय होता है।

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यह एक मीठे पानी का कछुआ प्रजाति है और स्थलीय घोंसले के स्थानों के साथ गहरी बहने वाली नदियों में पाया जाता है। इस प्रजाति के आहार में केवल जलीय पौधे शामिल हैं। वयस्क मादा मार्च और अप्रैल में 11 से 30 अंडे देती है।

लाल मुकुट वाली छत वाला कछुआ बटागुर कचुगा को हाल ही में 2018 में संकटग्रस्त प्रजातियों की प्रकृति संरक्षण के लिए अंतर्राष्ट्रीय संघ (आईयूसीएन) की लाल सूची के लिए मूल्यांकित किया गया है। बटागुर कचुगा को मानदंड ए2सीडी+4सीडी के तहत गंभीर रूप से लुप्तप्राय के रूप में सूचीबद्ध किया गया है।

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जल शक्ति मंत्रालय के द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि टीएसएएफआई परियोजना के तहत 2020 में हैदरपुर वेटलैंड कॉम्प्लेक्स (एचडब्ल्यूसी) में कछुओं की विविधता और प्रचुरता का एक विस्तृत मूल्यांकन किया गया। इसके बाद उत्तर प्रदेश में गंगा के तट पर प्रयागराज के पास नव निर्मित कछुआ अभयारण्य में पर्यावास मूल्यांकन का अध्ययन किया।

एचडब्ल्यूसी के साथ किए गए अध्ययनों से नौ कछुओं की प्रजातियों की उपस्थिति का पता चला, जबकि प्रयागराज में पांच कछुओं की प्रजातियों के अप्रत्यक्ष साक्ष्य एकत्र किए गए।

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उपरोक्त तथा पहले कि गए अध्ययनों में सबसे अधिक अनोखे निष्कर्ष यह था कि रेड-क्राउन्ड रूफ्ड टर्टल (आरआरटी), बटागुर कचुगा की कोई भी व्यवहार्य संख्या या हर एक को पूरी गंगा में नहीं देखा गया है, न ही इसकी जानकारी हासिल हुई है। परिणामों से पता चला कि यह पूरे उत्तर भारत, विशेषकर उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक संकटग्रस्त प्रजाति थी।

विज्ञप्ति में कहा गया है कि 26 अप्रैल, 2025 को राष्ट्रीय चंबल अभयारण्य, उत्तर प्रदेश के भीतर और उसकी देखरेख में स्थित गढ़ैता कछुआ संरक्षण केंद्र से 20 कछुओं को स्थानांतरित कर हैदरपुर आर्द्रभूमि में छोड़ा गया। इन कछुओं की सुरक्षा और प्रवास पर नजर रखने के लिए उन्हें सोनिक उपकरणों से इन्हें टैग किया गया।

पुनर्वास प्रक्रिया के लिए कछुओं को दो समूहों में विभाजित किया गया, पहले समूह को हैदरपुर वेटलैंड में बैराज के ऊपर छोड़ा गया, जबकि दूसरे समूह को गंगा की मुख्य धारा में छोड़ा गया। इस नजरिए का उद्देश्य यह तय करना है कि कछुओं के पुनर्वास के लिए कौन सा तरीका सबसे अच्छा व प्रभावी है।

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विज्ञप्ति के मुताबिक, यह पहल गंगा के पारिस्थितिकी तंत्र में एक ऐतिहासिक कदम है। मॉनसून के मौसम के दौरान, हैदरपुर वेटलैंड पूरी तरह से गंगा की मुख्य धारा से जुड़ जाएगा, जिससे कछुए अपनी गति से विचरण कर सकेंगे। अगले दो सालों तक इन कछुओं पर नजर रखी जाएगी। यह 'सॉफ्ट' बनाम 'हार्ड' विमोचन रणनीति के बाद इस प्रजाति को गंगा में दोबारा लाने का पहला प्रयास है। इसका उद्देश्य उत्तर प्रदेश वन विभाग के सक्रिय सहयोग से गंगा में इन प्रजातियों की संख्या को स्थायी तरीके से स्थापित करना है।

इस अहम पहल से न केवल कछुओं की प्रजाति का संरक्षण होगा, बल्कि उत्तर प्रदेश में पारिस्थितिकी तंत्र में भी सुधार आएगा। गंगा संरक्षण के प्रयासों से पता चला है कि यदि सभी के साथ मिलकर काम करने पर बड़ी से बड़ी चुनौतियों से भी पार पाया जा सकता है। नमामि गंगे मिशन के तहत गंगा की सफाई के साथ -साथ जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र को बहाल करने में भी सफलता मिली है।

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