एक नए शोध में कहा गया है कि स्थानीय समुदायों के ज्ञान के परिणामस्वरूप भारत में पहली बार दुर्लभ कछुए की आबादी की खोज हुई है। कैंटर का विशाल सॉफ्टशेल वाला कछुआ (पेलोचिल्स कैंटोरी) दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया की नदियों का मूल निवासी है। अपनी दुर्लभता और गुप्त प्रकृति के लिए जानी जाने वाली यह प्रजाति लंबे समय से संरक्षणवादियों के बीच आकर्षण और चिंता का विषय रही है।
शोध के मुताबिक, मांस के लिए स्थानीय लोगों द्वारा इनको भारी मात्रा में पाला जाता है और अक्सर मछली पकड़ने के गियर में फंसने पर मछुआरों द्वारा इन्हें मार दिया जाता है। वर्तमान में मीठे पानी के कछुए को अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (आईयूसीएन) की संकटग्रस्त प्रजातियों की लाल सूची में गंभीर रूप से लुप्तप्राय (सीआर) के रूप में वर्गीकृत किया गया है और इनकी संख्या लगातार कम हो रही है।
प्रजातियों के ठिकाने का पता लगाने के लिए संरक्षणवादियों की एक टीम ने उन लोगों की ओर रुख किया, जो इनसे अपना निवास स्थान साझा करते हैं। यह यात्रा उन्हें केरल में चंद्रगिरि नदी के हरे-भरे तट पर ले गई। शोधकर्ताओं ने बताया कि उन्होंने स्थानीय ग्रामीणों से बात करके, कछुओं को समूह में देखे जाने का व्यवस्थित रूप से दस्तावेजीकरण किया है और साथ ही यहां रहने वाले लोगों को भी संरक्षण के प्रयासों में शामिल कर लिया है।
उन्होंने बताया कि इस कार्य से मादा घोंसले का पहला दस्तावेजीकरण हुआ और बाढ़ वाले इलाकों के घोंसलों से अंडों को बचाया गया। बाद में बच्चों को नदी में छोड़ दिया गया।
ओरिक्स पत्रिका में प्रकाशित इस अध्ययन की अगुवाई इंग्लैंड के पोर्ट्समाउथ विश्वविद्यालय और जूलॉजिकल सोसाइटी ऑफ लंदन, मियामी विश्वविद्यालय, जर्मनी में सेनकेनबर्ग सोसाइटी फॉर नेचर रिसर्च में जूलॉजी संग्रहालय, अमेरिका के फ्लोरिडा म्यूजियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री के संरक्षणवादियों ने किया था। साथ ही इसमें भारतीय वन्यजीव संस्थान ने अहम भूमिका निभाई।
अध्ययनकर्ता और पोर्ट्समाउथ विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ बायोलॉजिकल साइंसेज के डॉ. फ्रेंकोइस कबाडा-ब्लैंको ने कहा, सालों से, कैंटर कछुए का अस्तित्व भारत की हलचल भरी जैव विविधता में एक अफवाह की तरह रही है, जिसे देखना इतना दुर्लभ है कि कछुए की उपस्थिति ही अतीत के किसी कल्पना जैसी लग रही थी।
उन्होंने आगे बताया कि पारंपरिक पारिस्थितिकी सर्वेक्षण विधियों का उपयोग करके किसी को खोजने के कई असफल प्रयासों के बाद, हमने स्थानीय ज्ञान का उपयोग करके एक अलग तरीका अपनाया।
शोध के मुताबिक, आयुषी जैन के नेतृत्व वाली टीम वास्तव में लोगों को प्रभावी ढंग से शामिल करने में सक्षम थी, यहां तक कि उन्होंने ऐतिहासिक दृश्यों की कहानियां साझा कीं, वर्तमान घटनाओं पर सुराग प्रदान किया और यहां तक कि गलती से पकड़े गए कछुओं को छुड़वाने में सहायता की।
शोध में कहा गया है कि आयुषी की टीम अब सामुदायिक हैचरी और नर्सरी स्थापित करने पर काम कर रही है।
जूलॉजिकल सोसाइटी ऑफ लंदन के एज ऑफ एक्सिस्टेंस प्रोग्राम की आयुषी जैन ने कहा, घरेलू साक्षात्कार और स्थानीय अलर्ट नेटवर्क की स्थापना के माध्यम से, हमने सिर्फ सुना नहीं बल्कि सीखा भी।
उन्होंने बताया कि लोगों की भागीदारी की इच्छा ने हमारी परियोजना की रीढ़ बनाई, जिससे हमें न केवल कछुओं की झलकियां रिकॉर्ड करने में मदद मिली, बल्कि प्रजनन करने वाली आबादी का सबूत भी मिला। यह एक ऐसी खोज जो भारत के पानी से लुप्त हो रही प्रजाति की कहानी को फिर से उजागर करती है।
शोध के निष्कर्षों में कहा गया है कि संरक्षण विज्ञान में स्थानीय ज्ञान की अमूल्य भूमिका रही हैं। यह एक ऐसा उपकरण जो हमारी धरती की जैव विविधता को समझने और संरक्षित करने की खोज में किसी भी उपग्रह टैग या कैमरा ट्रैप जितना महत्वपूर्ण है।
अलर्ट नेटवर्क की स्थापना क्षेत्र में एक अग्रणी तरीका हो सकता है, जहां सामुदायिक भागीदारी से वास्तविक समय की जानकारी और तत्काल कार्रवाई होती है, जिससे केरल में वन्यजीव संरक्षण के अधिक संवेदनशील और समावेशी मॉडल का मार्ग प्रशस्त होता है।
शोध के हवाले से डॉ. कबाडा-ब्लैंको ने कहा, वैज्ञानिक जांच के साथ पारंपरिक ज्ञान को एकजुट करने से निश्चित रूप से कैंटर के विशाल सॉफ्टशेल कछुए के संरक्षण के लिए आगे का रास्ता रोशन हो सकता है।
उन्होंने आगे कहा, हमारा अध्ययन दोबारा खोज करने, नदी और उसके लोगों द्वारा बताई गई कहानियों में आशा खोजने और भविष्य के लिए आधार तैयार करने की कहानी है, जहां यह शानदार प्रजाति न सिर्फ जीवित रह सकती है, बल्कि पनप भी सकती है।