देश में 72 फीसदी क्षेत्रों से गायब हुए गिद्ध, एनजीटी ने पर्यावरण मंत्रालय से मांगा जवाब

देश में गिद्ध 72 फीसदी क्षेत्रों से गायब हो चुके हैं और उनकी मौजूदगी 425 से घटकर महज 67 स्थानों तक सिमट गई है, जिस पर ट्रिब्यूनल ने जैव विविधता अधिनियम के उल्लंघन को लेकर गंभीर सवाल उठाए हैं
फोटो: आईस्टॉक
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देश में गिद्धों की तेजी से घटती आबादी पर नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने गंभीर चिंता जताई है। 2 दिसंबर 2025 को एनजीटी ने पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) को इस मुद्दे पर विस्तृत जवाब दाखिल करने का निर्देश दिया है।

अधिकरण ने कहा कि गिद्धों की संख्या में आई भारी गिरावट, जैव विविधता अधिनियम 2002 के उल्लंघन की ओर इशारा करती है।

इसके साथ ही अदालत ने वन महानिदेशक (वन्यजीव), वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया को भी अपना जवाब देने के लिए कहा है। इस मामले में अगली सुनवाई 26 फरवरी 2026 को होगी।

गौरतलब है कि हिंदी अखबार राजस्थान पत्रिका में 10 नवंबर 2025 को प्रकाशित एक रिपोर्ट के आधार पर एनजीटी ने इस मामले को स्वतः संज्ञान में लिया है। इस रिपोर्ट में देश में गिद्धों की करीब-करीब समाप्त होती जा रही आबादी पर चिंता व्यक्त की गई थी।

67 जगहों पर सिमट गई गिद्धों की मौजूदगी

रिपोर्ट के मुताबिक देश में कई जगहों पर किए सर्वे बताते हैं कि 72 फीसदी क्षेत्रों से अब गिद्ध पूरी तरह गायब हो चुके हैं। पिछले रिकॉर्ड से तुलना करें तो पहले जहां 425 स्थानों पर गिद्ध दिखते थे, अब उनकी उपस्थिति महज 67 जगहों पर सिमट गई है। इनमें भी सबसे ज्यादा आबादी राजस्थान (25 स्थान) और मध्य प्रदेश (29 स्थान) में पाई गई है। खबर के अनुसार देश के कुल 96 महत्वपूर्ण गिद्ध आवास क्षेत्रों में से 41 अकेले राजस्थान और मध्य प्रदेश में हैं।

एनजीटी ने टिप्पणी की है कि इन तथ्यों से साफ है कि मामला गंभीर है और जैव विविधता संरक्षण के नियमों के उल्लंघन को दर्शाता है।

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डाउन टू अर्थ में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक 1980 के दशक तक गिद्ध काफी आम थे। अंतरसरकारी संस्था बर्ड लाइफ इंटरनेशनल की ओर से कराई गई गिद्धों की गणना के अनुसार, 2003 में देश में गिद्धों की कुल आबादी 40,000 से अधिक थी, जो 2015 में घटकर 18,645 तक सिमट गई।

इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत के सबसे पुराने जैव विविधता संरक्षण समूह बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी (बीएनएचएस) ने मार्च 2014 में केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) को एक पत्र लिखा था। इसमें पशुओं के इलाज के लिए इस्तेमाल की जा रही उन तीन दवाओं पर प्रतिबंध लगाने की मांग की थी, जिनकी वजह से देश में गिद्धों की मौत हो रही थी।

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इस पत्र में चेतावनी दी गई कि तीन नॉन-स्टेरॉयडल एंटी इंफ्लैमेटरी ड्रग्स (एनएसएआईडी) का बेहिसाब इस्तेमाल सरकार के दो दशक के उन प्रयासों पर पानी फेर देगा, जो जंगलों में घटती गिद्धों की तादाद पर नियंत्रण पाने के लिए चलाए जा रहे हैं।

हैरानी की बात तो यह है कि ये तीन दवाएं एक्लोफेनैक, कीटोप्रोफेन और निमेसुलाइड तो डाइक्लोफेनैक के विकल्प के तौर पर पेश की गई थीं, जिसके चलते बड़े पैमाने पर गिद्धों की मौत होने के कारण भारत ने साल 2006 में जानवरों के लिए उसके इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया था।

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डाइक्लोफेनैक के अलावा, भारत सरकार ने कीटोप्रोफेन और एक्लोफेनैक के उपयोग को भी अगस्त 2023 में प्रतिबंधित कर दिया था। हालांकि इनका अभी भी इंसानों के उपयोग के लिए दवाओं का उत्पादन किया जा रहा है। गिद्ध संरक्षण के लिए काम कर रहे समूहों ने नॉन-स्टेरॉयडल एंटी इंफ्लैमेटरी दवा निमेसुलाइड पर भी प्रतिबन्ध लगाने की मांग की थी, क्योंकि यह दवा अपनी उच्च विषाक्तता के कारण गिद्धों के लिए भी खतरा है।

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