
भारत की सिरेमिक राजधानी के नाम से मशहूर मोरबी, जहां हर दिन लाखों टाइलें बनती और देश-दुनिया में भेजी जाती हैं। गुजरात में अपनी एक अलग औद्योगिक पहचान बना चुका है। हालांकि वहां की फैक्ट्रियों में काम करने वाले हजारों मजदूर आज भी बुनियादी सामाजिक सुरक्षा से वंचित हैं।
हालात यह हैं कि सालों से फैक्ट्रियों में पसीना बहा रहे मजदूर न तो सरकारी रिकॉर्ड में हैं और न ही उन्हें ईएसआई, पीएफ जैसी बुनियादी सुविधाएं मिल रही हैं। स्थिति इस कदर खराब है कि मजदूरों को उनके वेतन की रसीद तक नहीं मिल रही। यह कोई कोरी कल्पना नहीं बल्कि मोरबी की सैकड़ों फैक्ट्रियों में काम करने वाले हजारों मजदूरों की कड़वी हकीकत है।
पीपल्स ट्रेनिंग एंड रिसर्च सेंटर (पीटीआरसी) नामक स्वयंसेवी संगठन ने अपनी नई रिपोर्ट में मोरबी में काम कर रहे मजदूरों की स्थिति को लेकर कई चौंकाने वाले खुलासे किए हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक भले ही यह क्षेत्र ईएसआई अधिनियम के अंतर्गत आता है, इसके बावजूद 93 फीसदी मजदूरों के वेतन से ईएसआई नहीं काटा जाता।
इसके साथ ही 92 फीसदी मजदूरों को भविष्य निधि (पीएफ) का लाभ नहीं मिल रहा। हद तो यह है कि यहां 90 फीसदी श्रमिकों को उनकी मजदूरी की रसीद तक नहीं दी जाती। यह तब है कि जब अनुबंध श्रम (विनियमन और उन्मूलन) अधिनियम, 1970 और न्यूनतम वेतन नियम, 1950 के तहत श्रमिकों को वेतन की पर्ची देना अनिवार्य है। मतलब की मजदूरों की भलाई के लिए कानून तो हैं, मगर कहीं न कहीं वो महज कागजों तक सीमित हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक मोरबी अकेले भारत की 90 फीसदी सिरेमिक उत्पादन करता है। यहां 1,500 से ज्यादा सिरेमिक फैक्ट्रियां हैं, जिनमें 4 लाख से ज्यादा मजदूर काम करते हैं।
इन फैक्ट्रियों में काम करने वाले मजदूर हर दिन सिलिका की महीन धूल के संपर्क में आते हैं, जिससे उन्हें सिलिकोसिस नामक जानलेवा बीमारी का खतरा बना रहता है। इतना ही नहीं, इन मजदूरों में टीबी होने की आशंका आम आबादी की तुलना में चार गुणा अधिक होती है।
सिलिकोसिस जैसी बीमारियों से जूझते मजदूर
लेकिन हालात यह है कि यहां मजदूरों के स्वास्थ्य का बीमा तक नहीं है। अध्ययन में ऐसे मजदूर भी मिले जो सिलिकोसिस की वजह से काम छोड़ने पर मजबूर हो गए। सांस लेने में तकलीफ और अन्य स्वास्थ्य समस्याओं ने उन्हें समय से पहले काम छोड़ने को मजबूर कर दिया। ऐसे मामलों में न तो इलाज का कोई सरकारी प्रबंध है, न ही फेफड़ों को हुए नुकसान के लिए कोई मुआवजा। वे बस मदद की आस में जीवन बिता रहे हैं।
"लॉज इन कैप्टिविटी" नामक इस रिपोर्ट के मुताबिक इस बारे में किए सर्वे में 2,000 श्रमिकों ने भाग लिया। इनमें से 1,776 पुरुष और 224 महिलाएं थीं। श्रमिकों में से 44 स्थानीय, जबकि 56 फीसदी प्रवासी मजदूर थे, जो कुल 290 औद्योगिक इकाइयों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
इनमें से 246 फैक्ट्रियां सिरेमिक निर्माण से जुड़ी हैं, जहां अध्ययन में शामिल 1,729 श्रमिक काम करते थे। वहीं 38 यूनिट गैर-सिरेमिक सामान बनाती हैं। जबकि 6 फैक्ट्रियां सेवा क्षेत्र से जुड़ी थीं, जिनमें सर्वे में शामिल 115 श्रमिक काम कर रहे थे।
यह सभी इकाइयां ईएसआई अधिनियम के दायरे में आती हैं, जिनमें 10 से अधिक श्रमिक कार्यरत थे और सभी की मासिक आय ₹21,000 या उससे कम थी, जो कि ईएसआई अधिनियम लागू होने के लिए जरूरी तीनों शर्तें पूरी करती हैं।
महिला और प्रवासी श्रमिकों के साथ भेदभाव
रिपोर्ट में यह भी सामने आया है कि इन फैक्ट्रियों में पुरुष और महिला मजदूरों के साथ-साथ स्थानीय और प्रवासी मजदूरों के बीच भी भेदभाव किया जाता है।
रिपोर्ट में इस तथ्य को भी उजागर किया गया है कि सर्वे में शामिल 1121 प्रवासी मजदूरों में से महज 3.5 फीसदी यानी 40 को ही ईएसआई का फायदा मिल रहा है। वहीं जिन श्रमिक की तनख्वाह से ईएसआई काटा भी जा रहा है, उन्हें पहचान पत्र तक जारी नहीं किए जाते, जिससे वे किसी भी स्वास्थ्य या दुर्घटना से जुड़ी सुविधाओं का लाभ नहीं उठा पाते।
रिपोर्ट में इस बात पर भी प्रकाश डाला है कि वहां मजदूरों को हर महीने औसतन 15,943 रुपए मजदूरी मिल रही है, लेकिन महिलाएं इससे भी कम कमाती हैं। मतलब कि यहां भले ही समान काम के लिए समान मजदूरी देने का कानून है, लेकिन यह जमीनी स्तर पर लागू नहीं है। आंकड़ों के मुताबिक 8000 या उससे कम मजदूरी पाने वालों में जहां 42.9 फीसदी पुरुष है। वहीं महिलाओं में यह आंकड़ा 55.1 फीसदी रिकॉर्ड किया गया है।
रिपोर्ट से यह भी पता चला है कि जहां सर्वे में शामिल 44.7 फीसदी लोगों को औसत से कम वेतन मिल रहा है। वहीं 55.3 फीसदी मजदूरों को औसत से अधिक मजदूरी मिल रही है।
58 साल बाद भी लागू नहीं हो पाया कानून
वेतन की रसीद या पहचान पत्र न मिलने के कारण मजदूरों को यह तक पता नहीं होता कि उनके वेतन से किस बात की कटौती हो रही है। ऐसे में वे किसी दुर्घटना या काम से जुड़ी बीमारी की स्थिति में वे कानूनी तौर पर मुआवजे का दावा नहीं कर सकते।
गौरतलब है कि मोरबी के कई इलाकों को 1967 में ही ईएसआई अधिनियम के तहत अधिसूचित किया गया था, लेकिन 58 साल बाद भी न तो उद्योगों ने इसे लागू किया है और न सरकार इसे प्रभावी ढंग से लागू करा पाई है। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि यहां कोई मजबूत श्रमिक संगठन भी मौजूद नहीं है जो मजदूरों की आवाज उठा सके।