सांसों में सिलिका: मानकों में बदलाव से बच सकती है धूल फांकते मजदूरों की जान

खानों, फैक्ट्रियों, निर्माण क्षेत्र और कार्यस्थल पर सिलिका युक्त धूल के लिए निर्धारित मानकों में बदलाव करके सिलिकोसिस के मामलों में अच्छी-खासी कमी की जा सकती है
मथुरा में धूल भरे वातावरण में बिना सुरक्षा उपायों के सीमेंट की बोरियां उतारते मजदूर; फोटो: आईस्टॉक
मथुरा में धूल भरे वातावरण में बिना सुरक्षा उपायों के सीमेंट की बोरियां उतारते मजदूर; फोटो: आईस्टॉक
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भारत में लाखों मजदूर अपनी जीवन की गाड़ी खींचने के लिए हर दिन जानलेवा सिलिका युक्त धूल के सम्पर्क में आते हैं। सांसों के जरिए शरीर में पहुंचती यह धूल इन मेहनतकश लोगों को हर दिन उनकी मौत की ओर ले जाती है। गौरतलब है कि पत्थर काटने, ड्रिल करने के दौरान या सीमेंट उद्योग से निकलने वाली सिलिका युक्त धूल अगर सांस के जरिए शरीर में पहुंच जाए, तो इससे फेफड़ों की जानलेवा बीमारी सिलिकोसिस हो सकती है।

इस बारे में इंपीरियल कॉलेज लंदन से जुड़े शोधकर्ताओं द्वारा एक नया अध्ययन किया गया है। इस अध्ययन के मुताबिक श्रमिकों के जीवनभर सिलिका धूल के 'स्वीकार्य' स्तर के संपर्क में रहने के बावजूद सिलिकोसिस विकसित होने का जोखिम बेहद ज्यादा होता है।

ऐसे में वैज्ञानिकों का सुझाव है कि वर्तमान में इसके संपर्क में आने की 'स्वीकार्य' सीमा को घटाकर आधा कर दिया जाना चाहिए। इस अध्ययन के नतीजे ब्रिटिश मेडिकल जर्नल ‘थोरैक्स’ में आठ अगस्त, 2024 को प्रकाशित हुए हैं।

अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने आठ अन्य अध्ययनों का विश्लेषण किया है। इनमें से अधिकांश अध्ययन खनिकों पर केंद्रित थे। इस अध्ययन में शामिल 65,977 लोगों में से 8,792 लोग सिलिकोसिस का शिकार थे। इसकी पुष्टि उनके फेफड़ों के एक्स-रे, पोस्टमॉर्टम के नतीजों और मृत्यु प्रमाण पत्र से हुई है।

अध्ययन में शोधकर्ताओं ने इस बात का भी पता करने की कोशिश की है कि जो लोग अपने काम के दौरान चार दशकों से भी ज्यादा समय तक सिलिका युक्त धूल के संपर्क में रहे हैं, उनमें सिलिकोसिस होने का जोखिम कितना ज्यादा है। इसका उद्देश्य जोखिम के उस स्तर का पता लगाना था, जिससे इसके जोखिम को सीमित किया जा सक।

देखा जाए तो खनन, निर्माण, दांतों का इलाज, पत्थर उद्योग, मिट्टी के बर्तन या मूर्ति बनाने जैसे उद्योगों में काम करने वाले मजदूर अक्सर हर दिन इस सिलिका युक्त धूल के संपर्क में आते हैं। ऐसे में इन मजदूरों में सिलिकोसिस होने का खतरा कहीं ज्यादा होता है।

उदाहरण के लिए, इस बीमारी ने भारत में खनन उद्योग से जुड़े श्रमिकों पर अपना कहर बरपाया है। यह एक ऐसी बीमारी है, जो श्रमिकों को हर दिन और ज्यादा बीमार बना देती है, विडम्बना यह है कि इस बीमारी का अब तक कोई इलाज नहीं है।

देखा जाए तो जब सिलिका युक्त सामग्री को काटा या ड्रिल किया जाता है, तो इससे सिलिका युक्त बेहद बारीक धूल हवा में फैलती है। ऐसे में काम के वक्त यह धूल सभी मजदूरों के फेफड़ों तक पहुंच जाती है। इसकी समस्या उन क्षेत्रों में कहीं ज्यादा विकट है, जहां स्वास्थ्य, सुरक्षा से जुड़े मानकों का सही तरह पालन नहीं किया जा रहा है।

भारत में भी लाखों मजदूरों पर मंडरा रहा है सिलिकोसिस का खतरा

हालांकि देखा जाए तो सिलिकोसिस की बीमारी विकसित होने में लम्बा समय लग जाता है। आमतौर पर जब कोई व्यक्ति दस से 20 वषों तक काम के बीच सिलिका युक्त धूल के संपर्क में रहता है तो उससे इस बीमारी का जोखिम बढ़ जाता है।

इंडियन कॉउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) से जुड़े शोधकर्ताओं ने भी इसके खतरों को उजागर करते हुए अपने अध्ययन में कहा कि सिलिकोसिस के रोगियों में तपेदिक (टीबी) होने का खतरा बेहद ज्यादा होता है। इस अध्ययन के मुताबिक सिलिकोसिस के रोगियों में टीबी होने की आशंका उन लोगों की तुलना में तीन से चार गुना अधिक होती है, जिन्हें सिलिकोसिस नहीं है।

सिलिकोसिस की वजह से फेफड़ों के कैंसर सहित अन्य गंभीर बीमारियां हो सकती हैं। हालांकि, इसके कारणों के बारे में अब तक वैज्ञानिकों को पूरी तरह जानकारी नहीं है। बता दें कि इस तरह के खतरों को देखते हुए ही ऑस्ट्रेलिया ने इंजीनियर्ड स्टोन पर प्रतिबंध लगा दिया है, जो ऐसा करने वाला दुनिया का पहला देश है।

देश में सिलिकोसिस पीड़ितों का सही आंकड़ा क्या है इसका सटीक तौर पर तो अंदाजा नहीं है, लेकिन आईसीएमआर ने अपनी एक रिपोर्ट में जानकारी दी है कि देश में तीस लाख श्रमिकों पर सिलिकोसिस का जोखिम बहुत ज्यादा है। इनमें 17 लाख श्रमिक खनन कार्यों में लगे हैं, जबकि छह लाख मौजदूर चीनी मिट्टी, कांच और अभ्रक जैसे गैर धातु उद्योग में संलग्न हैं।

वहीं मेटल इंडस्ट्री से जुड़े श्रमिकों का आंकड़ा सात लाख है। हालांकि यह जो आंकड़े सामने आए हैं वो बेहद कम करके आंके गए हैं। भारत में करीब 7.4 करोड़ मजदूर निर्माण क्षेत्र से जुड़े हैं, जिनमें सिलिकोसिस होने का खतरा बहुत ज्यादा है। इसी तरह पत्थर की नक्काशी, संगमरमर का काम और ग्रेनाइट में पॉलिश करने वाले मजदूरों में भी इसका जोखिम बेहद ज्यादा होता है।

2016 में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में भी इस बात की पुष्टि हुई है कि भारत में करीब 30 लाख खनिकों पर सिलिकोसिस का गंभीर खतरा मंडरा रहा है। वहीं एक अन्य अध्ययन के मुताबिक देश में निर्माण उद्योग से जुड़े 85 लाख श्रमिकों में से करीब 30 लाख पर सिलिका युक्त धूल के संपर्क में आने का गंभीर खतरा बना रहता है।

कितना कारगर हो सकता है मानकों में किया बदलाव

ऐसे में इंपीरियल कॉलेज से जुड़े शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में कहा है कि हर दिन सिलिका युक्त धूल के संपर्क में आने की सीमा को 0.1 मिलीग्रीम प्रति क्यूबिक मीटर से घटाकर 0.05 मिलीग्रीम प्रति क्यूबिक मीटर किया जाना चाहिए।

मतलब की यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि कोई भी मजदूर 0.05 मिलीग्रीम प्रति क्यूबिक मीटर से ज्यादा धूल के संपर्क में ना आए। अमेरिका को देखें तो वहां सिलिका युक्त धूल के संपर्क में आने की सीमा को 0.05 मिलीग्रीम प्रति क्यूबिक मीटर निर्धारित किया है।

वहीं ब्रिटेन, फ्रांस, ऑस्ट्रिया और स्विटजरलैंड सहित अधिकांश यूरोपीय देशों में इसके स्वीकार्य सीमा 0.1 मिलीग्रीम प्रति क्यूबिक मीटर है। हालांकि विकासशील और कमजोर देशों में स्थिति कहीं ज्यादा खराब है। चीन जैसे देशों में इसकी सीमा काफी ज्यादा है, जो करीब एक मिलीग्रीम प्रति क्यूबिक मीटर है। वहीं ब्रिटेन सरकार के एक सर्वदलीय संसदीय समूह ने भी इस बात के साक्ष्य मांगे हैं कि इसके लिए निर्धारित क्या वर्तमान व्यावसायिक जोखिम स्तर सुरक्षित है।

2019 में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक भारतीय खदानों में निकलने वाली सिलिका युक्त धूल के लिए निर्धारित जोखिम स्तर 0.15 मिलीग्रीम प्रति क्यूबिक मीटर है, जो यूरोप, अमेरिका जैसे देशों द्वारा तय मानकों से कई गुणा ज्यादा है। ऐसे में भारतीय उद्योगों और नीति निर्माताओं को इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।

रिसर्च के जो निष्कर्ष सामने आए हैं उनसे पता चला है कि यदि चार दशकों के कामकाजी जीवन में सिलिका के औसत जोखिम को 0.1 मिलीग्रीम प्रति क्यूबिक मीटर से घटाकर 0.05 मिलीग्रीम प्रति क्यूबिक मीटर कर दिया जाए, तो सिलिकोसिस के मामलों में 77 फीसदी की कमी मुमकिन है।

इसकी मदद से 1000 खनिकों में सिलिकोसिस के 298-344 मामलों को टाला जा सकता है। वहीं गैर खनन श्रमिकों के मामले में प्रति हजार की आबादी पर सिलिकोसिस के 33 मामले कम किए जा सकते हैं। देखा जाए तो इस अध्ययन के नतीजे आठ घंटों की शिफ्ट पर लागु होते हैं। हालांकि भारत जैसे देशों में कई बार मजदूरों इससे कहीं ज्यादा घंटे जानलेवा हालात में काम करते हैं। ऐसे में इनमें बढ़ते जोखिम को कम करना कहीं ज्यादा चुनौतीपूर्ण है।

अध्ययन में शोधकर्ताओं ने आंकड़ों की कमी को भी उजागर किया है। इसके मुताबिक सिलिकोसिस के खतरों के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारी हासिल करने के लिए और अधिक आंकड़ों की जरूरत है, क्योंकि यह अब भी पूरी तरह स्पष्ट नहीं है कि कितने लोग इस बीमारी की चपेट में हैं। विशेषतौर पर विकासशील देशों में सिलिकोसिस को लेकर पर्याप्त आंकड़े मौजूद नहीं है।

लंदन के इंपीरियल कॉलेज से जुड़े पैट्रिक हॉलेट का मानना है कि विकासशील देशों में सिलिकोसिस की समस्या काफी गंभीर है, क्योंकि इन देशों में धूल उत्सर्जन को कम करने या उससे बचाव के बेहतर उपाय नहीं किए जाते। उनके मुताबिक विकासशील देशों में खनन उद्योगों से जुड़े मजदूर एक साल में ही धूल की इतनी मात्रा के संपर्क में आते हैं, जिन्हे शायद अन्य देशों के लिए लोग पूरी जिंदगी में आते हैं।

देखा जाए तो अगर सिलिका की मात्रा को नियंत्रित नहीं किया गया तो आने वाले समय में एस्बेस्टस की तरह ही बीमारियां पैदा कर सकती है। गौरतलब है कि एस्बेस्टस एक जहरीला केमिकल है, जिससे बनी चीजों का उपयोग घरों और बिल्डिंगों के निर्माण में हुआ करता था। हालांकि, इसके बढ़ते खतरे को देखते हुए दुनियाभर के देशों ने इस पर बैन लगा दिया है।

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