

जलवायु परिवर्तन और भूमि उपयोग में बदलाव के कारण 8,000 प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है।
ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के अध्ययन में पाया गया है कि सदी के अंत तक बढ़ती गर्मी और मानव दबाव से प्रजातियों के प्राकृतिक आवास प्रभावित होंगे।
वैज्ञानिकों ने जैव विविधता की रक्षा के लिए तुरंत कदम उठाने की आवश्यकता पर जोर दिया है।
जिन जंगलों, घास के मैदानों और दलदलों में हजारों वर्षों से जीवन फलता-फूलता आया है, वही अब जानलेवा बनते जा रहे हैं। जलवायु परिवर्तन की वजह से बढ़ती गर्मी और जमीन पर बढ़ता इंसानी दबाव इन दोनों ने मिलकर जीवों की हजारों प्रजातियों के अस्तित्व पर सवाल खड़े कर दिए हैं।
इस बारे में किए एक नए वैश्विक अध्ययन ने चेताया है कि जलवायु परिवर्तन से पैदा हो रही भीषण गर्मी और भूमि उपयोग में आ रहे बदलाव दोनों मिलकर सदी के अंत तक जीवों की करीब 8,000 प्रजातियों को विलुप्ति की ओर धकेल सकते हैं।
यह अध्ययन ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ जियोग्राफी एंड द एनवायरमेंट से जुड़े वैज्ञानिक डॉक्टर रुत वर्दी के नेतृत्व में किया गया है। इस अध्ययन में इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस, बेंगलुरु से जुड़े शोधकर्ता गोपाल मुरली भी शामिल थे। इसके साथ ही अध्ययन में यूके, ऑस्ट्रेलिया और इजराइल से जुड़े शोधकर्ताओं ने भी अपना योगदान दिया है।
अध्ययन के नतीजे अंतराष्ट्रीय जर्नल ग्लोबल चेंज बायोलॉजी में प्रकाशित हुए हैं।
अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने उभयचरों, पक्षियों, स्तनधारियों और सरीसृपों समेत जमीन पर पाई जाने वाली करीब 30,000 प्रजातियों का विश्लेषण किया है।
अध्ययन में यह समझने का प्रयास किया गया है कि आने वाले समय में बढ़ती भीषण गर्मी और भूमि उपयोग में बदलाव, प्रजातियों के प्राकृतिक आवासों और उनकी गर्मी सहने की क्षमता पर कितना गहरा असर डालेंगे।
शोधकर्ताओं के मुताबिक, अलग-अलग खतरों को अलग-अलग देखने के बजाय उन्हें एक साथ समझना बेहद जरूरी है।
डॉक्टर रुत वर्दी ने इस बारे में समझते हुए प्रेस विज्ञप्ति में कहा, “जब कई संकट एक साथ काम करते हैं, तो उनका असर कहीं ज्यादा विनाशकारी होता है। ऐसे में जैव विविधता को भारी नुकसान से बचाने के लिए तुरंत संरक्षण और उत्सर्जन कम करने के लिए कदम जरूरी हैं।”
अध्ययन के अनुमान बताते हैं कि सदी के अंत तक 7,895 प्रजातियां ऐसी स्थिति में पहुंच सकती हैं, जहां उनके पूरे प्राकृतिक आवास क्षेत्र में या तो भीषण गर्मी होगी, या जमीन उनके रहने लायक नहीं बचेगी, या फिर दोनों संकट एक साथ उनपर हावी होंगे। ऐसी परिस्थितियां उन्हें वैश्विक स्तर पर विलुप्ति के खतरे में डाल सकती हैं।
स्टडी में यह भी सामने आया है कि भविष्य में जलवायु के चार अलग-अलग परिदृश्यों में सबसे गंभीर स्थिति यह दर्शाती है कि औसतन प्रजातियों के 52 फीसदी आवास क्षेत्र रहने लायक नहीं रहेंगे। यहां तक कि सबसे आशावादी परिदृश्य में भी, औसतन 10 फीसदी क्षेत्र जलवायु परिवर्तन और भूमि-उपयोग के संयुक्त असर से रहने योग्य नहीं रह जाएगा।
स्टडी रिपोर्ट में इस बात पर भी प्रकाश डाला है कि जलवायु परिवर्तन और भूमि उपयोग में बदलाव का संयुक्त असर साहेल, मध्य पूर्व और ब्राजील जैसे इलाकों में सबसे ज्यादा गंभीर होने का अंदेशा है। दो परिदृश्यों में तो यह तक सामने आया है कि कई प्रजातियों के लिए हालात बहुत खराब हो सकते हैं।
धरती पर बढ़ रहा इंसानी दबाव
जिन प्रजातियों के बारे में बेहद कम जानकारी है, उनमें 77 फीसदी से अधिक को, खतरे के कगार पर पहुंच चुकी 50 फीसदी से ज्यादा प्रजातियों को, और जो पहले से संकट में हैं, उनमें 60 फीसदी से अधिक को अपने प्राकृतिक आवास के कम से कम आधे हिस्से में रहने लायक माहौल नहीं मिलेगा।
यह अध्ययन साफ संकेत देता है कि आने वाले दशकों में होने वाले पर्यावरणीय बदलाव दुनिया की जैव विविधता का नक्शा बदल सकते हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि यदि इन आपस में जुड़े खतरों की पहचान कर उन्हें समय रहते नहीं रोका गया, तो पृथ्वी से हजारों प्रजातियां हमेशा के लिए गायब हो सकती हैं।