
अगर आप कभी जंगल या किसी प्राकृतिक इलाके में घूमने जाएं, तो आपको लगेगा कि वहां जो कुछ भी आपकी आंखों के सामने है वो सब प्रकृति का ही हिस्सा है। बड़े विशाल दरख्त, घनी झाड़ियां और जमीन पर कोसों तक फैली घास, ऐसा लगता है कि सब कुछ अपने आप उग गया है। लेकिन क्या सच में हमारी आंखे जो दिखाती हैं वही पूरी तस्वीर है? नहीं, यहां कुछ तो ऐसा है जो मेल नहीं खाता।
इस बारे में किए एक अंतराष्ट्रीय शोध से पता चला है कि धरती के बहुत से हिस्सों में ऐसे बड़े क्षेत्र हैं जहां पौधों की देशी प्रजातियों के लिए बढ़िया माहौल तो है, लेकिन वो पौधे वहां मौजूद नहीं हैं। वैज्ञानिकों ने इस समस्या को नाम दिया है, 'डार्क डाइवर्सिटी'।
इस नए अध्ययन में एस्टोनिया के टार्टू विश्वविद्यालय सहित 200 वैज्ञानिकों की अंतरराष्ट्रीय टीम ने योगदान दिया है। उन्होंने दुनिया के 119 इलाकों की 5,415 जगहों पर पौधों की विभिन्न प्रजातियों का अध्ययन किया है। इस अध्ययन के नतीजे अंतराष्ट्रीय जर्नल नेचर में प्रकाशित हुए हैं।
इस अध्ययन के जो नतीजे सामने आए हैं वे बेहद चौंकाने वाले हैं। निष्कर्ष दर्शाते हैं कि जिन क्षेत्रों में इंसानी दखल बेहद अधिक था, वहां स्थानीय यानी देशी पौधों की महज 20 फीसदी प्रजातियां ही बची हैं। हालांकि सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात यह है कि जिन क्षेत्रों को 'प्राकृतिक' या इंसानों से करीब-करीब 'अछूता' माना जाता है वहां भी पौधों की 33 फीसदी स्थानीय प्रजातियां ही बची हैं। यह वो प्रजातियां हैं जो इस परिवेश में आराम से पनप सकती थी।
ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर इन क्षेत्रों में इतनी कम प्रजातियां ही क्यों हैं। इसका सरल सा जवाब है हम इंसान और हमारी बढ़ती महत्वाकांक्षा।
हर जगह मौजूद है इंसानी प्रभाव
शोधकर्ताओं के मुताबिक इसमें कोई शक नहीं कि इंसानी गतिविधियां अपने हिसाब से ग्रह को आकार देने लगी हैं। बात चाहे खेती की हो, या जंगलों की कटाई की, अवैध शिकार हो या जंगलों में धधकती आग - इंसानी दखल ने जंगलों, प्राकृतिक आवासों और जैव विविधता को बेहिसाब नुकसान पहुंचाया है।
उदाहरण के लिए देखा जाए तो पृथ्वी पर मानवता द्वारा छोड़ा गया सबसे स्पष्ट निशान जंगली आवासों का कृषि भूमि में किया बदलाव है। यदि हजार साल पीछे जाएं तो अनुमान है कि महज 40 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र ही कृषि के लिए उपयोग किया जाता था। यह दुनिया की बर्फ और रेगिस्तान मुक्त भूमि का महज चार फीसदी से भी कम हिस्सा था। लेकिन आंकड़ों पर नजर डालें तो आज यह क्षेत्र बढ़कर दुनिया की आधी रहने योग्य भूमि पर पसर चुका है।
देखा जाए तो वैश्विक कृषि भूमि का तीन-चौथाई से अधिक हिस्सा पशुधन के लिए उपयोग किया जा रहा है, जबकि मांस और डेयरी का वैश्विक प्रोटीन और कैलोरी में बहुत कम हिस्सा है।
यह नुकसान सिर्फ शहरों, गांवों तक सीमित नहीं है, बल्कि सैकड़ों किलोमीटर दूर जंगलों और नेशनल पार्क तक दिखने लगा है। ऐसे में इंसानों की मौजूदगी जितनी ज्यादा हो रही है पौधों की विविधता उतनी कम हो रही है। शोधकर्ताओं के मुताबिक जैसे-जैसे हमारा पदचिह्न बढ़ रहा है, अन्य प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर पहुंच रही हैं। वैज्ञानिको शोधों के मुताबिक दर्ज इतिहास में देखें तो इन प्रजातियों के विलुप्त होने की दर अभूतपूर्व तरीके से बढ़ रही है।
शोध में चिंता जताई गई है कि प्रजातियों को होता नुकसान हमारी सोच से परे हैं। अक्सर जब लुप्त हो रही प्रजातियों की बात होती है तो यह समझा जाता है कि बढ़ते खेतों, शहरों या शिकारियों के कारण प्रजातियां गायब हो रही हैं, लेकिन विडम्बना देखिए कि संरक्षित क्षेत्रों और राष्ट्रीय उद्यानों के भीतर भी प्रजातियां पूरी तरह सुरक्षित नहीं हैं और विलुप्त हो रही हैं।
शोधकर्ताओं के मुताबिक अब तक, प्रजातियों के नुकसान का ज्यादातर अध्ययन बड़े पैमाने पर किया गया है, जैसे किसी राज्य या देश में। आंकड़ों पर नजर डालें तो 1750 से अब तक पौधों की करीब 600 प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं। हालांकि यह आंकड़ा वास्तविकता से बहुत दूर है।
यदि उन क्षेत्रों पर नजर डालें जहां सबसे ज्यादा प्रजातियां विलुप्त हुई हैं तो उनमें हवाई, जहां 79 प्रजातियां लुप्त हो चुकी हैं। वहीं दक्षिण अफ्रीका के फिनबोस क्षेत्र में यह आंकड़ा 37 दर्ज किया गया है। लेकिन स्थानीय स्तर पर जैसे किसी राष्ट्रीय उद्यान या प्रकृति रिजर्व के भीतर प्रजातियों के हो रहे नुकसान को ट्रैक करना आसान नहीं है।
अध्ययन के मुताबिक आमतौर पर, जब वैज्ञानिक जैव विविधता का अध्ययन करते हैं, तो वे किसी क्षेत्र में पहले से दर्ज प्रजातियों को देखते हैं। वे जांचते हैं कि क्या ये प्रजातियां बढ़ या घट रही हैं। लेकिन अक्सर उन प्रजातियों के बारे में विचार नहीं किया जाता जो वहां उग सकती थीं लेकिन गायब हैं।
यही वजह है कि अपने इस अध्ययन में 200 से ज्यादा वैज्ञानिकों के अंतराष्ट्रीय दल ने अपना योगदान दिया है। उन्होंने 119 क्षेत्रों में करीब 5,500 साइटों का अध्ययन किया है। इस प्रत्येक साइट पर 100 वर्ग मीटर के दायरे में वैज्ञानिकों ने उन सभी पौधों की प्रजातियों को रिकॉर्ड किया है जो उन्हें मिलीं। फिर उन्होंने इनकी तुलना आस-पास के बड़े क्षेत्र जो करीब 300 वर्ग किलोमीटर में फैला था, उसमें पाई जाने वाली प्रजातियों से की है। यह वे क्षेत्र थे जहां समान पर्यावरणीय परिस्थितियां हैं।
सिर्फ इसलिए कि कोई प्रजाति किसी जगह पर उग सकती है, इसका मतलब यह नहीं है कि वह वहां उगेगी। इसलिए, यह पता लगाने के लिए कि कौन सी प्रजातियां वास्तव में गायब थीं, वैज्ञानिकों ने जांच की है कि क्या वे प्रजातियां अक्सर आस-पास के क्षेत्रों में साइट पर मौजूद अन्य पौधों के साथ उगती पाई गई हैं।
इससे पता चला कि क्या कोई प्रजाति उस आवास के लिए उपयुक्त थी लेकिन फिर भी वहां से गायब है। इसके बाद वैज्ञानिकों ने प्राप्त आंकड़ों की तुलना ह्यूमन फुटप्रिंट इंडेक्स से की है। यह इंडेक्स किसी क्षेत्र में इंसानी प्रभाव जैसे आबादी, भूमि उपयोग और बुनियादी ढांचे के स्तर को दर्शाता है।
क्यों नहीं लौट पाते पौधे?
रिसर्च से पता चला है कि इस इंडेक्स में शामिल आठ कारकों में से छह ने पौधों को होने वाले नुकसान को प्रभावित किया है। इन कारकों में जनसंख्या घनत्व, बिजली की लाइनें, रेलवे, सड़कें, इमारतें और कृषि भूमि शामिल थे। वहीं आवागमन वाले जलमार्गों का बहुत अधिक प्रभाव नहीं दर्ज किया गया है।
अध्ययन में जो दिलचस्प बात सामने आई वो यह है कि चराई के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले चरागाहों का पौधों के नुकसान से कोई संबंध नहीं देखा गया। शायद ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि मध्य एशिया, अफ्रीका के साहेल और अर्जेंटीना जैसे कुछ क्षेत्रों में अर्ध-प्राकृतिक घास के मैदानों का उपयोग चारागाह के रूप में किया जाता है।
संभवतः इन क्षेत्रों में चराई, जलाने या घास जैसे मध्यम मानवीय उपयोग से स्वस्थ और विविध घास के मैदानों को बनाए रखने में मदद मिलती है। ऐसे में कुल मिलाकर जो नतीजे सामने आए हैं, वे बेहद स्पष्ट हैं, इंसानों की ज्यादा मौजूदगी का मतलब है पौधों की कम प्रजातियां। यहां तक की शहरों, सड़कों से दूर अछूते पारिस्थितिकी तंत्र भी इससे प्रभावित हो रहे हैं।
अध्ययन में इस नुकसान से जुड़े कारणों पर भी प्रकाश डाला गया है। इसके मुताबिक अवैध शिकार और कटाई अक्सर शहरों से दूर होती है। जब जानवर गायब होते हैं, तो पौधे की प्रजातियां अपने परागणकर्ता या बीज वाहकों को भी खो देती हैं। धीरे-धीरे इसका असर पूरे पारिस्थितिकी तंत्र पर पड़ता है। वैज्ञानिकों के मुताबिक यदि कोई पौधा एक बार किसी इलाके से गायब हो गया, तो उसके वापस आने की संभावना बेहद कम हो जाती है।
इसी तरह शिकारियों और लकड़ी काटने वाले जंगलों के अंदर छिपे रास्ते बनाते हैं। जंगलों के बीच इंसानी बसावट या सड़कें बनने से पौधों की दुनिया टुकड़ों में बंट जाती है। अन्य कारणों में इंसानों द्वारा लगाईं जा रही आग भी शामिल है, जो संरक्षित क्षेत्रों को भी नुकसान पहुंचा सकती है। इसी तरह प्रदूषण भी अपने स्रोत से सैकड़ों किलोमीटर दूर तक प्रभाव डाल सकता है। इसकी वजह से दूर दराज के क्षेत्रों में पौधों और मिट्टी को नुकसान हो सकता है।
वैज्ञानिकों के मुताबिक जैव विविधता का होने वाला नुकसान सिर्फ प्रजातियों के विलुप्त होने के बारे में नहीं है। इसका मतलब यह भी है कि पारिस्थितिकी तंत्र धीरे-धीरे अपनी ताकत, समृद्धि और संतुलन खो रहे हैं। ऐसे में सिर्फ संरक्षित क्षेत्र बना देना या नेशनल पार्क घोषित कर देना ही काफी नहीं क्योंकि इंसानी प्रभाव संरक्षित क्षेत्रों के भीतर भी पहुंच सकता है।
ऐसे में अब समय आ गया है कि सिर्फ बचे हुए पौधों को ही नहीं, बल्कि गायब हो चुके पौधों को भी लौटाने के प्रयास किए जाएं।