कभी देश में आम, नीम, महुआ, बरगद, जामुन जैसे पेड़ों की बहार हुआ करती थी। सड़कों के किनारे भी यह पेड़ आसानी से देखने को मिल जाते थे।
समय बदला तो जैसे पेड़ों पर संकट सा आ गया। आज न ही सड़कों पर बरगद, पाकड़ के दरख्त दिखते हैं, न खेतों में आम, महुआ, जामुन| कहीं न कहीं यह पेड़ गायब से होते जा रहे हैं। इसकी पुष्टि इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) द्वारा जारी नई रिपोर्ट भी करती है।
आईयूसीएन रेड लिस्ट में अपडेट के लिए वृक्षों के पहले वैश्विक आकलन से पता चला है कि दुनिया में पेड़ों की एक तिहाई से ज्यादा प्रजातियों पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। मतलब की यदि अभी ध्यान न दिया गया तो दुनिया से पेड़ों की 38 फीसदी प्रजातियां विलुप्त हो सकती हैं।
गौरतलब है कि यह पहला मौका है जब दुनिया के अधिकांश पेड़ों को आईयूसीएन की रेड लिस्ट में शामिल किया गया है। इस मूल्यांकन से पता चला है कि दुनिया में पेड़ों की 47,282 ज्ञात प्रजातियों में से कम से कम 16,425 पर विलुप्त होने का खतरे मंडरा रहा है।
मतलब की अब रेड लिस्ट में शामिल सभी प्रजातियों में से एक चौथाई से अधिक पेड़ हैं। मतलब की पेड़ों की संकटग्रस्त प्रजातियों की संख्या इस लिस्ट में खतरे में पड़ी पक्षियों, स्तनधारियों, सरीसृपों और उभयचरों की कुल संख्या के दोगुने से भी अधिक है। रिपोर्ट में यह भी सामने आया है कि दुनिया के 192 देशों में पेड़ों की प्रजातियों पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है, जिनमें भारत भी शामिल है।
गौरतलब है कि आईयूसीएन रेड लिस्ट में अब तक 166,061 प्रजातियों को शामिल किया गया है, जिनमें से 46,337 प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा है।
आईयूसीएन के मुताबिक जहां उभयचर जीवों की 41 फीसदी प्रजातियां खतरे में हैं। वहीं स्तनधारी जीवों की 26 फीसदी, शंकुधारी वृक्षों की 34 फीसदी, पक्षियों की 12 फीसदी, शार्क और रे की 37 फीसदी, कोरल रीफ की 44 फीसदी, सरीसृपों की 21 फीसदी और साइकैड पौधों की 71 फीसदी प्रजातियां खत्म होने के कगार पर पहुंच चुकी हैं।
रिपोर्ट में यह भी सामने आया है कि द्वीपों पर सबसे ज़्यादा पेड़ खतरे में हैं। इन पर मंडराते खतरों को देखें तो विशेष रूप से शहरी विकास और कृषि के लिए वनों का होता विनाश, साथ ही साथ आक्रामक प्रजातियां, कीट और बीमारियां इनकी लिए बड़ा खतरा हैं।
बढ़ती इंसानी महत्वकांक्षा की भेंट चढ़ रही प्रजातियां
इसके साथ ही जलवायु में आते बदलवाव भी मंडराते खतरे में इजाफा कर रहे हैं। यह खतरा खासकर उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में कहीं ज्यादा स्पष्ट है, जहां समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है और तेज तूफान आ रहे हैं। ऐसे में इन पेड़ों को बचाने के लिए स्थानीय स्तर पर कार्रवाई करने की जरूरत है। इनके आवासों को बहाल करने के साथ-साथ बीज बैंक, और वनस्पति उद्यान जैसी पहल इसमें मददगार साबित हो सकती हैं।
देखा जाए तो क्यूबा, मेडागास्कर और फिजी जैसे देशों में पहले ही सामुदायिक प्रयासों के सकारात्मक परिणाम सामने आने लगे हैं।
दक्षिण अमेरिका में जहां दुनिया में पेड़ों की सबसे ज्यादा विविधता मौजूद है। वहां 13,668 में से 3,356 प्रजातियों पर विलुप्त होने का खतरा है। इन पेड़ों को बचाना एक बड़ी चुनौती है क्योंकि कृषि और मवेशियों की चराई के लिए बड़े पैमाने पर वनों का विनाश किया जा रहा है।
कोलंबिया में, रेड लिस्ट से जुड़े आंकड़ों ने राष्ट्रीय संरक्षण योजनाओं को आकार देने में मदद की है। उदाहरण के लिए, पांच नए प्रमुख जैव विविधता क्षेत्रों की पहचान करने के लिए सात लुप्तप्राय मैगनोलिया प्रजातियों का उपयोग किया गया, जिससे स्थानीय और राष्ट्रीय सरकारों को संरक्षण की योजना बनाने में मार्गदर्शन मिला।
आईयूसीएन रिपोर्ट के मुताबिक इन पेड़ों के खत्म होने से हजारों दूसरे पौधों, जीवों और कवकों का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाएगा। यह पेड़ पृथ्वी पर जीवन के लिए बेहद मायने रखते हैं। यह कार्बन, पानी, पोषक तत्व, मिट्टी और जलवायु को नियंत्रित करके पारिस्थितिकी तंत्र को सहारा देते हैं।
हम मनुष्य भी काफी हद तक इन पेड़ों पर ही निर्भर हैं। यह न केवल साफ हवा देते हैं। साथ ही पेड़ों की 5,000 से ज्यादा प्रजातियां लकड़ी के रूप में इस्तेमाल की जाती हैं। वहीं 2,000 से ज्यादा प्रजातियां हमें दवा, भोजन और ईंधन प्रदान करती हैं।
इस अपडेट में पश्चिमी यूरोपीय हेजहोग को लेकर भी चिंता जताई गई है। रिपोर्ट के मुताबिक यह जीव अब अपनी घटती संख्या के चलते खतरे के निकट पहुंच चुकी प्रजातियों में शामिल हो गया है।
गौरतलब है कि भारत में भी पेड़ों के साथ कुछ ऐसा ही देखने को मिल रहा है। देश में न केवल सड़कों, घरों आदि से पेड़ गायब हो रहे हैं, बल्कि खेतों में भी इनकी संख्या में तेजी से कमी आ रही है। जर्नल नेचर सस्टेनेबिलिटी में प्रकाशित एक नए अध्ययन से पता चला है कि पिछले पांच वर्षों में भारत के खेतों से 53 लाख छायादार पेड़ गायब हो चुके हैं। यह अपने आप में एक बड़े खतरे की ओर इशारा है।
मतलब की इस दौरान हर किलोमीटर क्षेत्र से औसतन 2.7 पेड़ नदारद मिले। वहीं कुछ क्षेत्रों में तो हर किलोमीटर क्षेत्र से 50 तक पेड़ गायब हो चुके हैं।
इस अध्ययन के मुताबिक 2010/11 में मैप किए गए करीब 11 फीसदी बड़े छतनार पेड़ 2018 तक गायब हो चुके थे। वहीं ज्यादातर क्षेत्रों में खेतों से गायब हो रहे परिपक्व पेड़ों की संख्या आमतौर पर पांच से दस फीसदी के बीच रही। हालांकि मध्य भारत में, विशेष तौर पर तेलंगाना और महाराष्ट्र में, बड़े पैमाने पर इन विशाल पेड़ों को नुकसान पहुंचा है।
देखा जाए तो इन पेड़ों के गायब होने के लिए कहीं न कहीं बढ़ती इंसानी महत्वाकांक्षा जिम्मेवार है, जो तेजी से इन पेड़ों के विनाश की वजह बन रही है। इसी तरह जलवायु में आता बदलाव भी इन प्रजातियों के गायब होने की वजह बन रहा है, जिसके लिए भी हम इंसान ही जिम्मेवार हैं। ऐसे में इससे पहले बहुत देर हो जाए इस विषय पर गंभीरता से विचार करने और ठोस कदम उठाने की जरूरत है।