जलवायु की मार: भारत में महुआ, चिरौंजी और आंवला पर पड़ेगा गंभीर असर

अध्ययन के नतीजे इस बात पर जोर देते हैं कि आक्रामक प्रजातियों, प्रदूषण जैसे खतरों के बीच जंगलों में जलवायु-प्रेरित बदलावों को भी संबोधित करने की आवश्यकता है
महुए में लगी कलियां; फोटो: आईस्टॉक
महुए में लगी कलियां; फोटो: आईस्टॉक
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जलवायु में आता बदलाव न केवल हम इंसानों बल्कि दूसरे जीवों और पेड़-पौधों के लिए भी बड़ा खतरा बन चुका है। पेड़ों पर इनके प्रभावों को लेकर किए एक नए अध्ययन से पता चला है कि जलवायु परिवर्तन जीविका और औषधीय उपयोग के नजरिए से बेहद महत्वपूर्ण पेड़ों के आवासों को बेहद प्रभावित करेगा।

अनुमान है कि इन बदलावों से जहां बेल और बहेड़ा जैसे पेड़ों को फलने-फूलने का मौका मिलेगा, वहीं दूसरी तरफ महुआ, चिरौंजी और आंवला जैसी प्रजातियों पर गंभीर असर देखने को मिल सकता है। गौरतलब है कि अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने दो जलवायु परिदृश्यों आरसीपी 2.6 और आरसीपी 8.5 पर विचार किया है।

जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर बनाए अंतर-सरकारी पैनल (आईपीसीसी) के मुताबिक आरसीपी 2.6 के तहत 2020 तक कार्बन उत्सर्जन में कमी आनी शुरू हो जाएगी, जबकि आरसीपी 8.5 का अनुमान है कि अगर बढ़ते उत्सर्जन का मौजूदा रुझान जारी रहता है, तो तापमान में 3.3 से 5.7 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो सकती है।

यह अध्ययन बीरबल साहनी पुराविज्ञान संस्थान (लखनऊ), ग्रेनोबल आल्प्स विश्वविद्यालय और जैव विविधता संरक्षण एवं प्रशिक्षण संस्थान, बैंगलोर से जुड़े शोधकर्ताओं द्वारा किया गया है। इस अध्ययन के नतीजे जर्नल एनवायरमेंटल मॉनिटरिंग एंड असेसमेंट में प्रकाशित हुए हैं। 

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इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने विश्लेषण किया है कि बदलती जलवायु में पेड़ों की अलग-अलग प्रजातियां कितनी बेहतर तरह से विकसित होंगी। रिसर्च के जो नतीजे सामने आए हैं, उनके मुताबिक इन बदलावों की वजह से जहां बेल और बहेड़ा के लिए उपयुक्त आवास क्षेत्रों में इजाफा होगा, वहीं दूसरी तरफ महुआ, चिरौंजी और आवंला में गिरावट आने का अंदेशा है।

वैज्ञानिकों का अनुमान है कि जहां बेल और बहेड़ा जहां भविष्य में जलवायु में होने वाले बदलावों को झेलने में सक्षम होंगें। साथ ही उनपर इन बदलावों का बहुत सीमित प्रभाव पड़ेगा। वहीं चिरौंजी, महुआ और आंवला, जो बढ़ते तापमान और बारिश में आते बदलावों के प्रति संवेदनशील हैं, उनमें गिरावट आने का अंदेशा है।

2070 तक, आरसीपी 8.5 परिदृश्य के तहत, बेल के लिए बेहद उपयुक्त क्षेत्र दक्षिण दक्कन के पठार, पूर्वी पठार, पूर्वी तट, ऊपरी और निचले गंगा के मैदान और पंजाब के मैदानी क्षेत्रों में शिफ्ट हो जाएंगे। वहीं मानसूनी बारिश में होती वृद्धि और ऊंचाई पर अधिक अनुकूल परिस्थितियां पैदा होने के कारण यह प्रजातियां शिवालिक पहाड़ियों, केरल के पश्चिमी घाटों और पूर्वोत्तर भारत के अपने मौजूदा आवासों से पीछे हट जाएंगी।

वहीं बहेड़ा के लिए पश्चिमी घाट, मध्य भारत में मौजूद उच्च भूमि, जिसमे मध्य प्रदेश, पूर्वी राजस्थान और उत्तरी गुजरात के कुछ हिस्से शामिल हैं, उनके साथ-साथ पूर्वी पठार, दक्क्न पठार के दक्षिणी हिस्सों और पूर्वी तट में जलवायु कहीं ज्यादा अनुकूल हो जाएगी।

माजूदा समय में देखें तो बहेड़ा पश्चिमी घाट, मध्य भारत में मौजूद उच्च भूमि और शिवालिक की पहाड़ियों में पाया जाता है। वहीं ऊपरी गंगा के मैदानों, पूर्वी पठार और छोटा नागपुर के पठार में भी यह पेड़ पाया जाता है।

अध्ययन के मुताबिक यह कर्नाटक, तेलंगाना, केरल, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, बिहार, पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर भारत जैसे मध्य और दक्षिणी राज्यों के लिए उतना उपयुक्त नहीं है। देखा जाए तो बेल और बहेड़ा दोनों ही सूखे को झेल सकते हैं और खराब या सूखी मिट्टी में भी अच्छी तरह पनप सकते हैं।

आशंका है कि सदी के अंत तक वैश्विक तापमान में अपेक्षित वृद्धि के साथ, भारत में बढ़ती बारिश और उसकी तीव्रता में होने वाली वृद्धि से महुए के पेड़ों पर बेहद गंभीर प्रभाव पड़ेगा। नतीजन इसके अनुकूल क्षेत्र पहले से कहीं ज्यादा सिकुड़ जाएंगे। अभी महुआ मुख्य रूप से पश्चिमी घाट, मध्य उच्चभूमि और दक्कन प्रायद्वीप के दक्षिणी हिस्सों में केंद्रित है।

आंवला मुख्य रूप से शिवालिक पहाड़ियों, पश्चिमी घाट, असम की पहाड़ियों और ब्रह्मपुत्र घाटी में पाया जाता है। अध्ययन में आशंका जताई गई है कि इन क्षेत्रों में आंवले के उपयुक्त क्षेत्रों में गिरावट आ सकती है।

चिरौंजी मौजूदा समय में पश्चिमी घाट, मध्य उच्चभूमि और शिवालिक पहाड़ियों में पाई जाती है। आशंका जताई जा रही है कि आरसीपी 8.5 परिदृश्य में भीषण गर्मी और सालाना होने वाली बारिश में बदलावों की वजह से चिरौंजी और आंवला दोनों ही उपयुक्त क्षेत्रों को खो देंगे।

लखनऊ के बीरबल साहनी पुराविज्ञान संस्थान से जुड़ी वैज्ञानिक ज्योति श्रीवास्तव का कहना है कि, "परागों के जीवाश्म रिकॉर्ड से पुष्टि हुई है कि यह पौधे करीब 6,000 वर्षों से इन्हीं क्षेत्रों में मौजूद हैं। यह रिकॉर्ड संकेत देते हैं कि अतीत में यह प्रजातियां व्यापक रूप से वितरित थी, जो दर्शाता है कि भारत में उस समय गर्म और आद्र जलवायु ने इनके व्यापक प्रसार में मदद की। 

आवासों में आती गिरावट के अलावा जलवायु परिवर्तन, आक्रामक प्रजातियां, बेहद ज्यादा हो रहा दोहन और प्रदूषण जैव विविधता पर मंडराते प्रमुख खतरों हैं। ऐसे में शोधकर्ताओं के मुताबिक इस अध्ययन के निष्कर्ष इन प्रजातियों को जलवायु परिवर्तन से बचाने के लिए योजनाएं बनाते समय मददगार हो सकते हैं। साथ ही शोधकर्ताओं ने इन महत्वपूर्ण प्रजातियों को बचाने में स्थानीय लोगों को भी शामिल करने का आग्रह किया है।

श्रीवास्तव ने कहा, "हमें उष्ण और उपोष्णकटिबंधीय जंगलों के प्रबंधन और संरक्षण के स्थाई समाधान खोजने के लिए इस तरह के और अधिक अध्ययनों की आवश्यकता है।" उनके मुताबिक हम अभी भी यह नहीं जानते कि भारतीय वन भविष्य में जलवायु परिवर्तनों की वजह से होने वाले बदलावों के प्रति कैसे प्रतिक्रिया देंगे।

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