अर्थव्यवस्था को 40 फीसदी कमजोर कर देगा, वैश्विक तापमान में चार डिग्री सेल्सियस का इजाफा

भीषण गर्मी जहां लोगों की कार्य कुशलता पर आघात कर रही है। साथ ही स्वास्थ्य पर खतरा बढ़ रहा है। बीमारियां फैल रही हैं। डेंगू, मलेरिया जैसी बीमारियां नए क्षेत्रों में भी पैर पसार रही हैं
लू के थपेड़ों के बीच काम के दौरान अपनी प्यास बुझाता मजदूर; फोटो: आईस्टॉक
लू के थपेड़ों के बीच काम के दौरान अपनी प्यास बुझाता मजदूर; फोटो: आईस्टॉक
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एक नए अध्ययन से पता चला है कि वैश्विक तापमान में चार डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के साथ सदी के अंत तक वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में करीब 40 फीसदी तक की कमी आ सकती है। गौरतलब है कि पिछले शोधों में 11 फीसदी की कमी का अंदेशा जताया गया था। यह नुकसान पिछले अनुमान से करीब चार गुणा अधिक है।

यह अध्ययन यूनिवर्सिटी ऑफ न्यू साउथ वेल्स के जलवायु जोखिम एवं प्रतिक्रिया संस्थान (आईसीआरआर) से जुड़े शोधकर्ताओं द्वारा किया गया है, जिसके नतीजे जर्नल एनवायर्नमेंटल रिसर्च लेटर्स में प्रकाशित हुए हैं।

अध्ययन में यह भी सामने आया है कि अगर दुनिया वैश्विक तापमान में होती वृद्धि को दो डिग्री सेल्सियस पर सीमित रखने में सफल भी हो जाती है तो इसकी वजह से प्रति व्यक्ति औसत जीडीपी में 16 फीसदी की गिरावट आ सकती है। यह पिछले अनुमानों से कहीं ज्यादा खराब स्थिति को दर्शाता है, जिसमें महज 1.4 फीसदी की गिरावट का अंदेशा जताया गया था।

गौरतलब है कि क्लाइमेट एक्शन ट्रैकर का अनुमान है कि देश यदि अपने जलवायु लक्ष्यों को हासिल कर लें तो भी वैश्विक तापमान में सदी के अंत तक 2.1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो सकती है।

शोधकर्तओं के मुताबिक पिछले शोधों में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन से वैश्विक अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान नहीं होगा। ऐसे में कई देशों ने बढ़ते उत्सर्जन को सीमित करने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाए हैं।

शोधकर्ताओं ने पिछले अध्ययनों में एक बड़ी चूक को उजागर किया है, इन मॉडलों में देखा गया है कि राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर केवल उस देश के मौसम का ही असर पड़ता है। वे यह शामिल नहीं करते कि किसी जगह पर आने वाली चरम मौसमी घटनाओं का असर कैसे अन्य देशों को भी प्रभावित कर सकता है। उदाहरण के लिए किसी एक देश में आई बाढ़ का असर दूसरे देश में खाद्य आपूर्ति को किस हद तक प्रभावित कर सकता है, इसको मॉडल में शामिल नहीं किया गया है।

लेकिन इस नए अध्ययन में इस पर भी ध्यान दिया गया है। ऐसे में जब चरम मौसमी घटनाओं के विश्वव्यापी प्रभावों को शामिल किया गया तो उनसे पता चला है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था को होने वाला नुकसान अनुमान से कहीं ज्यादा है। इतना ही नहीं इसका असर दुनिया के हर हिस्से में लोगों पर पड़ रहा है।

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दुनिया को भारी पड़ रही चरम मौसमी घटनाएं

शोधकर्ताओं के अनुसार वैश्विक तापमान में होता इजाफा कई तरह से अर्थव्यवस्थाओं को नुकसान पहुंचा रहा है। इससे जुड़ी एक बड़ी समस्या है चरम मौसमी घटनाएं। इसके चलते एक तरफ जहां सूखे से फसलें बर्बाद हो रही है।

बाढ़-तूफान से इमारतें ढह रही हैं और बुनियादी ढांचा कमजोर पड़ रहा है। नतीजन आपूर्ति बाधित हो रही है। हाल में कोई शोधों से भी पता चला है कि जलवायु परिवर्तन से लू का कहर बढ़ रहा है, जो खाद्य कीमतों में बढ़ोतरी की वजह बन रहा है।

इसी तरह भीषण गर्मी जहां लोगों की कार्य कुशलता पर आघात कर रही है। साथ ही स्वास्थ्य पर खतरा बढ़ रहा है। बीमारियां फैल रही हैं। डेंगू, मलेरिया जैसी बीमारियां नए क्षेत्रों में भी पैर पसार रही हैं। संघर्ष की घटनाएं बढ़ रही है और लोग पलायन को मजबूर हो रही हैं। बता दें कि पिछले शोधों में वैश्विक तापमान में चार डिग्री के इजाफे के साथ अर्थव्यवस्था में सात से 23 फीसदी की गिरावट का अंदेशा जताया था।

यह अध्ययन आमतौर पर पिछली चरम मौसम आपदाओं पर आधारित हैं। लेकिन वे घटनाएं ज्यादातर स्थानीय या क्षेत्रीय थीं, जिनके प्रभाव अक्सर अन्य स्थानों पर बेहतर परिस्थितियों के कारण संतुलित हो जाते थे।

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उदाहरण के लिए, बीते समय में यदि दक्षिण अमेरिका में सूखा पड़ा था, तो जिन क्षेत्रों में अच्छी बारिश हुई थी वो उस क्षेत्र में भोजन की आपूर्ति करके मदद कर सकते थे। इससे खाद्यान्न की कमी और कीमतों को बहुत ज्यादा बढ़ने से रोका जा सकता था।

लेकिन भविष्य में आशंका है कि जलवायु परिवर्तन के चलते कई जगहों पर एक ही समय में और लंबे समय तक चरम मौसमी आपदाओं का कहर हावी होगा। इससे खाद्य पदार्थों और वस्तुओं के उत्पादन पर असर पड़ेगा। व्यापार को नुकसान पहुंचेगा और देशों के लिए एक-दूसरे की मदद करना मुश्किल हो जाएगा।

जलवायु आघात से सुरक्षित नहीं कोई देश

अध्ययन के निष्कर्ष कहते हैं कि जब वैश्विक तापमान में इजाफा होता है तो दुनिया में आर्थिक विकास की धुरी धीमी पड़ जाती है। निष्कर्ष यह भी दर्शाते हैं कि सदी के अंत तक तापमान में वृद्धि के साथ कहीं ज्यादा आर्थिक नुकसान हो सकता है। इसकी वजह से दुनिया भर में लोगों के जीवन पर व्यापक प्रभाव पड़ सकता है।

शोधकर्ताओं के मुताबिक पिछले शोधों में यह भी सामने आया है कि वैश्विक तापमान में इजाफे से रूस और उत्तरी यूरोप जैसे ठंडे देशों को फायदा हो सकता है। लेकिन नए निष्कर्षों से पता चला है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था को नुकसान इतना ज्यादा होगा कि आपूर्ति श्रृंखला पर निर्भरता के कारण उसका खामियाजा सभी देशों को भुगतना पड़ेगा।

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अध्ययन से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता डॉक्टर टिमोथी नील के मुताबिक उत्सर्जन में कटौती करने से थोड़े समय के लिए आर्थिक दबाव पड़ता है, लेकिन यह लम्बे समय में जलवायु से होने वाले नुकसान से बचाने में मददगार साबित हो सकता है।

ऐसे में शोधकर्ताओं ने वैश्विक तापमान में हो रही वृद्धि को 1.7 डिग्री सेल्सियस पर सीमित रखने की वकालत की है, जो पेरिस समझौते जैसे कार्बन उत्सर्जन में कटौती के प्रयासों से मेल खाती है। यह पुराने मॉडलों द्वारा सुझाई गई 2.7 डिग्री सेल्सियस की सीमा से बहुत कम है।

डॉक्टर नील ने कन्वर्सेशन में लिखा है, "हमारे शोध से पता चलता है कि जलवायु परिवर्तन और अर्थव्यवस्था के बारे में पिछली भविष्यवाणियां बहुत ज्यादा आशाजनक थीं। अन्य हालिया अध्ययनों से भी पता चलता है कि नुकसान को कम करके आंका गया है।“

“दुनिया में बढ़ते उत्सर्जन ने हमारे बच्चों के भविष्य को खतरे में डाल दिया है। ऐसे में जितनी जल्दी हम जलवायु परिवर्तन के खतरों को समझेंगे, उतनी ही जल्दी इसे रोकने के लिए कार्रवाई कर सकेंगे।"

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