जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई की आड़ में अमेरिका और यूरोपीय संघ जैसी दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्तियां मुक्त व्यापार का दामन छोड़ रही हैं। बड़े पैमाने पर सब्सिडी और टैरिफ के साथ यह देश संरक्षणवाद की ओर रुख कर रहे हैं।
लेकिन क्या जलवायु परिवर्तन के खिलाफ जारी जंग और उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं को इससे फायदा होगा। इस बारे में नई दिल्ली स्थित थिंक टैंक सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने एक नया विश्लेषण किया है। यह विश्लेषण रिपोर्ट डाउन टू अर्थ के ताजा अंक में प्रकाशित हुआ है। इस विश्लेषण के मुताबिक उनका यह रुख वैश्विक व्यापार प्रणाली को बदल सकता है।
इस बारे में सीएसई की क्लाइमेट चेंज यूनिट की कार्यक्रम प्रबंधक एवं रिपोर्ट की लेखिका अवंतिका गोस्वामी का कहना है कि “निम्न कार्बन अर्थव्यवस्थाओं के निर्माण की दौड़ में देश नई-नई नीतियां पेश कर रहे हैं, जिससे जीवाश्म ईंधन को अक्षय ऊर्जा स्रोतों से बदला जा सके। ऐसा लगता है कि यह दौड़ ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती के लिए वैश्विक स्तर पर किए जा रहे प्रयासों का हिस्सा है।“
गोस्वामी के मुताबिक, लेकिन इससे इन देशों के बीच व्यापार युद्ध छिड़ने की आशंका भी बढ़ गई है। जलवायु कार्रवाई के बहाने सरकारें ग्रीन इंडस्ट्रीज को पुनर्जीवित करने की कोशिश कर रही हैं और जलवायु आपदा को टालने के लिए आवश्यक वस्तुओं और प्रौद्योगिकियों की वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला हावी हो रही है।“
इस विषय पर हाल ही में सीएसई ने एक अंतरराष्ट्रीय वेबिनार का भी आयोजन किया था, जिसे दक्षिण अफ्रीका में व्यापार और उद्योग के पूर्व मंत्री रॉब डेविस ने संबोधित किया था। इसमें सीएसई की महानिदेशक सुनीता नारायण ने भी अपने विचार प्रकट किए थे।
अमेरिका और यूरोपीय संघ की साजिश
गौरतलब है कि अगस्त 2022 में, अमेरिका ने इन्फ्लेशन रिडक्शन एक्ट (आईआरए) पारित किया था। इस बिल के जरिए अक्षय ऊर्जा, इलेक्ट्रिक वाहन, ऊर्जा-दक्ष उपकरण, स्वच्छ हाइड्रोजन के साथ कार्बन कैप्चर और स्टोरेज के नाम पर 10 वर्षों में टैक्स क्रेडिट के जरिए 30.5 लाख करोड़ रुपए (37,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर) से ज्यादा की सब्सिडी देने की बात कही है।
इसने यूरोपियन यूनियन, दक्षिण कोरिया और जापान जैसी अन्य ग्रीन टेक्नोलॉजी मैन्युफैक्चरिंग शक्तियों पर आघात किया है जिन्हें लगता है कि उनकी कंपनियां उत्तरी अमेरिका में अपने व्यापार की साख मजबूत कर सकती हैं।
इस बारे में गोस्वामी ने बताया कि, ''भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाएं आईआरए द्वारा दी गई सब्सिडी की बराबरी कतई नहीं कर सकती। यदि हम अपने देश में इलेक्ट्रिक वाहनों (ईवीएस) का उदाहरण लेते हैं, तो इनके प्रोत्साहन के लिए तीन योजनाएं पेश की गई हैं। इनमें पहली 10,000 करोड़ रुपए की फास्टर एडॉप्शन एंड मैन्युफैक्चरिंग ऑफ इलेक्ट्रिक व्हीकल्स (फेम II), और अन्य दो प्रोडक्शन-लिंक्ड इंसेंटिव (पीएलआई) योजनाएं हैं। इममें ईवीएस सहित मोटर वाहन क्षेत्र के लिए 25,398 करोड़ रुपए और बैटरी स्टोरेज के लिए 18,100 करोड़ रुपए की योजना है।“
साथ ही इससे जुड़ा एक बड़ा सवाल जरूरी मिनरल्स तक पहुंच का भी है। वैश्विक बाजार में इन खनिजों की कीमतें बड़े खिलाड़ी तय करते हैं। चीन आज इसका सबसे बड़ा खरीदार है। लेकिन एक बार जब अमेरिका बड़े पैमाने पर अपने घरेलू विनिर्माण के लिए इस दौड़ में शामिल हो जाता है, तो ऐसे में भारत को कीमतों को अपनी शर्तों पर नियंत्रित करने के लिए ईवी उत्पादन को तेजी से बढ़ाना होगा।
ऐसे में सीएसई के विशेषज्ञों का सुझाव है कि भारत को उन ईवी क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जिनमें इसका एक तैयार घरेलू बाजार है। इनमें दोपहिया और तिपहिया वाहन शामिल हैं, जो घरेलू ईवी बाजार का क्रमशः 63 फीसदी और 34 फीसदी हैं। साथ ही भारत यूज बैटरियों के पुनर्चक्रण का केंद्र भी बन सकता है, जो इसे उन महत्वपूर्ण संसाधित खनिजों को पुनर्प्राप्त करने में मदद करेगा, जिनकी वर्तमान में कमी है।
इसी तरह दिसंबर 2022 में, यूरोपीय संघ कार्बन बॉर्डर एडजस्टमेंट मैकेनिज्म (सीबीएएम) के अनंतिम समझौते पर पहुंच गया था। गौरतलब है कि 'सीबीएएम' उन देशों से स्टील और एल्यूमीनियम जैसी वस्तुओं के आयात पर कर से जुड़ा है जहां उत्सर्जन सम्बन्धी नियम उतने सशक्त नहीं हैं।
हालांकि ब्रिक्स देशों द्वारा सीबीएएम की आलोचना की गई है। साथ ही भारत के वित्त मंत्री ने देश में फर्मों को खुद को फिर से स्थापित करने और "जलवायु परिवर्तन के नाम पर नए सिरे से आने वाली टैरिफ की दीवारों" के लिए तैयार रहने की चेतावनी दी है।
संयुक्त राष्ट्र व्यापार और विकास सम्मेलन (यूएनसीटीएडी) के मुताबिक यदि इसे 44 डॉलर प्रति टन की दर से लागू किया जाता है तो सीबीएएम वैश्विक कार्बन उत्सर्जन को 0.1 फीसदी से ज्यादा कम नहीं करेगा। लेकिन इसका वितरण पर प्रतिकूल प्रभाव होगा।
इससे वैश्विक स्तर पर वास्तविक आय में 340 करोड़ अमेरिकी डॉलर की गिरावट आ जाएगी। हालांकि जहां एक तरफ इससे विकसित देशों की आय में 250 करोड़ अमेरिकी डॉलर की वृद्धि होगी। वहीं दूसरी तरफ विकासशील देशों की आय में 590 करोड़ अमेरिकी डॉलर की गिरावट आ जाएगी। इससे यूके जैसे अन्य विकसित देश भी इसी ढर्रे पर चल सकते हैं और अपने देश में कार्बन बॉर्डर टैक्स लागू कर सकते हैं।
ऐसे में सीबीएएम का सामना करने के लिए विकासशील देशों को अपने विनिर्माण क्षेत्र को डीकार्बोनाइज करने के लिए वित्त और प्रौद्योगिकी तक पहुंच की जरूरत होगी, जिससे निर्यात प्रतिस्पर्धा बनी रहे। यदि भारत को देखें तो यूरोपीय संघ उसका तीसरा सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है।
डाउन टू अर्थ में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार भारत का लोहा, इस्पात और एल्यूमीनियम क्षेत्र सीबीएएम से सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे। हालांकि यह प्रभाव अन्य देशों की तुलना में कुछ हद तक सीमित होगा। भारत में घरेलू कार्बन का एक मूल्य नहीं है, लेकिन देश में आगामी घरेलू कार्बन बाजार, राष्ट्रीय स्तर पर एनडीसी और शुद्ध शून्य लक्ष्य, और औद्योगिक फर्मों द्वारा स्वैच्छिक रूप से अपनाए गए जलवायु लक्ष्य हैं।
गोस्वामी ने जानकारी दी कि हालांकि बाजार आधारित योजनाओं और जलवायु संकेतों का यह पैचवर्क, भारतीय उद्योगों के लिए सीबीएएम के टैरिफ बोझ से बचने के लिए माहौल तैयार करेगा या नहीं, यह अभी देखा जाना बाकी है।
इस बारे में वेबिनार में बोलते हुए, डेविस ने कहा कि, “सीबीएएम सीधे तौर पर विकासशील देशों की बाजार पहुंच पर हमला कर रहा है और इसे आखिरकार सभी निर्यातों तक बढ़ाया जा सकता है। अफ्रीकी देश सबसे कम उत्सर्जन कर रहे हैं, और उन पर यह कर लगाने से कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के मामले में न्यूनतम लाभ होगा। ऐसे में हमें इन उपायों का जवाब देने की जरूरत है।"
यूएनसीटीएडी के अनुसार, "आईआरए और सीबीएएम जैसी नीतियां व्यापारिक प्रतिबद्धताओं से नदारद विकासात्मक आयाम की ओर इशारा करती हैं। साथ ही इस बात के सबूत बढ़ रहे हैं कि औद्योगिक अर्थव्यवस्थाएं प्रदूषण को आउटसोर्स कर रही हैं। साथ ही उसी समय वे उभरते हुए ग्रीन इंडस्ट्रीज के भीतर अपने प्रभुत्व को मजबूत करने के लिए औद्योगिक नीतियों से जुड़े उपकरणों का लाभ भी उठा रही हैं।
औद्योगीकरण ने जहां अमेरिका और यूरोपियन यूनियन में उत्पादकता में निरंतर होती वृद्धि को मुमकिन किया है, लेकिन साथ ही दूसरी तरफ विकासशील देशों के लिए औद्योगिक विकास एक कठिन जंग है। इसके लिए कहीं न कहीं उनकी नीतियों को सीमित करने के लिए डिजाईन किए गए व्यापारिक समझौते जिम्मेवार हैं। विश्व व्यापार संगठन भी सबसे ज्यादा विकसित देशों के प्रभाव में रहा है। जो सब्सिडी, टैरिफ और निर्यात प्रतिबंधों को "व्यापार को नुकसान पहुंचाने वाला मानता है।
ऐसे में व्यापार के वर्तमान नियम विकासशील देशों को घरेलू उद्योगों को प्रोत्साहित करने के लिए स्थानीय सामग्री और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण संबंधी आवश्यकताओं, या सरकारी खरीद जैसे उपकरणों का उपयोग करने से रोकते हैं। अब जब अमीर देश अपनी आर्थिक लचीलापन सुनिश्चित करने के लिए तेजी से इस तरह की औद्योगिक नीतियों को अपना रहे हैं, तो ऐसे में विकासशील देशों को समान नीतियों को लागू करने से रोकना उसके लिए मुश्किल है।
बनाने होंगे नए समीकरण
डाउन टू अर्थ के साथ अपने विचार प्रकट करते हुए केटी गैलोग्ली-स्वान ने कहा कि, “हमें जलवायु परिवर्तन के इस दौर में व्यापार नियमों को फिर से बनाने और विकासशील देशों की लंबे समय से चली आ रही चिंताओं को दूर करने की आवश्यकता है।
उनके अनुसार विश्व व्यापार संगठन में 'विशेष और अलग व्यवहार' और यूएनएफसीसीसी प्रक्रिया में 'साझा लेकिन अलग-अलग जिम्मेदारियों' के मूल सिद्धांतों को मजबूत करने की जरूरत है। एक अधिक सकारात्मक एजेंडा विकासशील देशों की प्राथमिकताओं, अतिरिक्त वित्तपोषण, ग्रीन प्रौद्योगिकी हस्तांतरण, पर्यावरणीय रूप से स्थाई आर्थिक विविधीकरण का समर्थन करने वाली क्षमता निर्माण, और उनके जलवायु और विकासात्मक लक्ष्यों की दिशा में आगे बढ़ने के लिए उनकी अपनी एकीकृत नीतियों का समर्थन करने के लिए पर्याप्त नीति और राजकोषीय स्थान का समर्थन करेगा।
इस बारे में सीएसई की महानिदेशक सुनीता नारायण का कहना है कि, “जलवायु परिवर्तन के इस युग में, विकासशील देशों को पर्यावरण अनुकूल प्रौद्योगिकियों के घरेलू उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने की आवश्यकता है। ऐसे में उन्हें व्यापार नियमों के अतिरेक के अधीन हुए बिना अपनी स्वयं की इक्विटी के लिए सब्सिडी और हरित विकास पथ के निर्माण जैसे 'औद्योगिक नीति' उपकरणों को लागू करने की अनुमति दी जानी चाहिए।
यदि कोई देश ग्रीन मिनरल्स से समृद्ध है, तो उसे ऐसी नीतियों को लागू करने में सक्षम होना चाहिए जो उन खनिजों को बनाए रखने का प्रयास करती हैं। साथ ही उसे इन खनिजों को घरेलू स्तर पर प्रोसेस करने और रोजगार के साथ एक विनिर्माण क्षेत्र बनाने का प्रयास करने के लिए काबिल हो। इस तरह वो स्थानीय स्तर पर नवाचार और प्रौद्योगिकी का निर्माण कर सके।
उनका कहना है कि, यह हमें देखना चाहिए कि कौन से नियम हमारे (विकासशील देशों) लिए सबसे अच्छा काम करेंगे और जो जलवायु प्रभावित दुनिया में हमारे लिए सबसे बेहतर हैं। साथ ही हमें यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि हम उत्सर्जन का मुकाबला कर सकें और आर्थिक विकास हासिल कर सकें। ऐसा करने में, शायद पहली बार हम एक ऐसा व्यापारिक समझौता करेंगे जो पर्यावरण के खिलाफ नहीं, बल्कि इसके लिए काम करता है। एक ऐसा सौदा जो लोगों के लिए काम करता है।
एक अमेरिकी डॉलर = 82.53 भारतीय रुपए