ई-रिक्शा: पर्यावरणीय समाधान या एक और संकट?
साल 2010 में राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान “प्रदूषण मुक्त क्षेत्र” का एहसास दिलाने के लिए कुछ ई-रिक्शा दिल्ली में लांच किए गए थे। वही ई-रिक्शा (इलेक्ट्रिक रिक्शा) आज भारत में शहरी, अर्द्धशहरी और यहाँ तक सुदूर गाँव तक में छोटी दूरी के परिवहन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है।
रोड पर इसकी संख्या दिन-ब-दिन तेजी से बढ़ती ही जा रही है। एक तरफ ई-रिक्शा पर्यावरण के लिहाज से ‘लास्ट माइल कनेक्टिविटी’ मुहैया करा रोड से कार के बढ़ते चलन पर लगाम लगा रहे हैं, वहीं इनके बेतहाशा उपयोग से नई पर्यावरणीय और स्वास्थ्य सम्बन्धी चुनौतियां भी उभर कर सामने आ रही हैं।
साल 2010 के तुरंत बाद ही यह छोटे और मध्यम वर्ग के लिए परिवहन का सुलभ साधन बन गया, ठीक उसी तरह जैसे कभी रिक्शा हुआ करता था। दिल्ली, कोलकाता, राँची, मोतिहारी, रामगढ़ या बोलपुर(शांतिनिकेतन) तक, आज बड़े से बड़े शहर से लेकर छोटे कस्बे तक ई-रिक्शा के रेलम पेल एक सामान्य दृश्य बन चुका है।
सरकार ने प्रदूषण मुक्त परिवहन को बढ़ावा देने और ई-रिक्शा को प्रोत्साहित करने के लिए साल 2015 से ही फेम (फास्टर एडप्टेशन एंड मैन्युफैक्चरिंग ऑफ हाइब्रिड एंड इलेक्ट्रिक व्हीकल) इंडिया योजना के तहत सब्सिडी और नीतिगत समर्थन दे रही हैं। ई-रिक्शा प्रदूषण और उत्सर्जन मुक्त एक लोकतान्त्रिक परिवहन का साधन है जिसके व्यापक इस्तेमाल से न केवल परिवहन लागत कम हुई बल्कि गरीब और मध्यम वर्ग के लोगों के लिए रोजगार के नए अवसर भी पैदा हुए।
इसकी संख्या का ठीक-ठीक आकलन मुश्किल है पर आधिकारिक आंकड़ों से पता चलता है कि 2020-21 में ई-रिक्शा का पंजीकरण मुश्किल से 78,700 था और 2022-23 में लगभग 3 लाख ऐसे वाहन पंजीकृत किए गए थे।
इसी तरह 2023-24 में करीब 4 लाख ई-रिक्शा का रजिस्ट्रेशन हुआ था। दूसरी तरफ़ डाउन टू अर्थ में छपे एक आलेख के अनुसार –‘ई-रिक्शा भारतीय इलेक्ट्रिक वाहन बाज़ार का 83% हिस्सा है। साल 2024 के अंत तक, ई-रिक्शा की बिक्री 9.25 लाख इकाइयों तक पहुंचने का अनुमान है
जब भारत के छोटे-बड़े कई शहर वायु प्रदूषण की समस्या से जूझ रहे हैं। ई-रिक्शा पेट्रोल और डीजल जैसे जीवाश्म ईंधनों पर निर्भर नहीं होते, जिससे शहरी वायु प्रदूषण में कमी आती है। पारंपरिक ऑटो-रिक्शा की तुलना में, ई-रिक्शा से उसके इस्तेमाल के स्थान पर कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन लगभग नगण्य हैं।
ई-रिक्शा भारत के परिवहन क्षेत्र को स्वच्छ ऊर्जा की ओर ले जाने का एक महत्वपूर्ण माध्यम हैं। यदि चार्जिंग स्टेशनों को नवीकरणीय ऊर्जा से जोड़ा जाए, तो इसका प्रभाव और भी सकारात्मक हो सकता है। ई-रिक्शा अत्यधिक शांत होते हैं, जो भीड़भाड़ वाले शहरी इलाकों में रहने वालों के लिए ध्वनि प्रदूषण से बड़ी राहत है।
ई-रिक्शा की बैटरी चार्ज करने की लागत पेट्रोल या डीजल की तुलना में भी काफी कम है। कम लगत के साथ यह छोटे चालकों के लिए किफायती है और भारत में स्वरोजगार को बढ़ावा दे रहा है। ई-रिक्शा ने लाखों लोगों को रोजगार प्रदान किया है। भारत में लगभग 60 लाख लोग ई-रिक्शा उद्योग से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हुए हैं।
भारत जैसे तेजी से बढ़ रही अर्थव्यस्था जिसमे तीव्र गति से बेतरतीब शहरीकरण भी शामिल है, जो मूल रूप से कार आधारित विकास है, जहाँ पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल घर से दूरी के कारण आसान नहीं है।
नतीजतन हमारे सारे शहर व्यक्तिगत वाहन जिसमे कार प्रमुख है से पट रहे हैं और वायु प्रदूषण के हॉट स्पॉट बनते जा रहे हैं। ई-रिक्शा पब्लिक ट्रांसपोर्ट से घर तक की लास्ट माइल कनेक्टिविटी का एक क्रन्तिकारी संसाधन है, जो शहर को प्रभावी रूप से छोटी दूरी के लिए कार के इस्तेमाल का विकल्प बन रही है। इस लिहाज से ई-रिक्शा शहरी वायु प्रदूषण और ट्रैफिक को कार के दबाव से प्रभावी रूप से कम कर सकता है।
पर जहाँ ई-रिक्शा पर्यावरण, आर्थिक और सामाजिक रूप से एक सफल प्रयोग साबित हो रहा है वहीं इसमें इस्तेमाल होने वाली बैटरी का निस्तारण पर्यावरण और स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्या का कारण बन रही है।
ई-रिक्शा चार रिचार्जेबल लेड-एसिड बैटरियों पर चलते हैं, जो ग्रिड की बिजली से चार्ज होते हैं। प्रत्येक बैट्री में 20 किलो लेड और 10 किलो सल्फ्यूरिक एसिड होता है, जिसका जीवन काल औसतन सात से आठ महीने का होता है।
यानी हर आठ महीने बाद नए या रीसाइकल्ड बैट्री की जरुरत होती है, जो ई-रिक्शा के सारे फायदों को ढँकता प्रतीत हो रहा है।इन बैटरियों का उचित तरीके से रीसाइक्लिंग की आधारभूत व्यवस्था ना होने के कारण बैटरी में प्रयोग होने वाला लेड और एसिड हवा, पानी, जमीन को प्रदूषित करते है और रीसाइक्लिंग से जुड़े लोगो के स्वास्थ्य पर बहुत बुरा प्रभाव भी डाल रहे हैं।
वैसे तो बैट्री की रीसाइक्लिंग और उसका निस्तारण विस्तारित उत्पादक की जिम्मेदारी यानी इपीआर के अनुसार होना होता है पर उत्पादक तक बहुत कम ही बैट्रियाँ पहुँच पाती हैं। नीतिगत तौर पर तो सभी प्रकार के बैट्री के रख-रखाव और निस्तारण के लिए बैटरी वेस्ट मैनेजमेंट रूल 2022 लागू है जिसमे ये जिम्मेदारी उत्पादक को दी गयी है पर लेड-एसिड बैटरियों के रख-रखाव और रीसाइक्लिंग में कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ है।
भारत में हर साल 70% बैटरियां अनुचित प्रक्रिया और कायदे कानून का पालन किये बिना रीसायकल होतीं हैं।
बैटरी रीसायकल की पूरी प्रक्रिया के तीन प्रमुख चरण है बेकार बैटरियो के भण्डारण के बाद लेड और एसिड को अलग करना और लेड को रासायनिक तरीके से भट्टी में गला के अलग करना।
धरातल पर बैट्री रीसाइक्लिंग से जुड़े उद्योग किसी भी मानक का पालन करते नज़र नहीं आते और इसे दिल्ली के गोखले मार्किट, जो बैट्री कारोबार का केंद्र है में जाकर अंदाजा लगाया जा सकता है। इस प्रकार पुराने बैट्री के भण्डारण से लेड निकलने तक हर समय मिटटी, हवा पानी में एसिड और लेड का संदूषण होता रहता है, साथ ही साथ बैट्री रीसायकल से जुड़े सभी लोग लेड की विषाक्तता के शिकार होते रहते हैं।
वर्ष 2022 में, भारत में लगभग 1 लाख टन बैटरी कचरा उत्पन्न हुआ, और यह आंकड़ा हर साल बढ़ रहा है, और इसका अधिकांश हिस्सा रीसाइक्लिंग के लिए अनौपचारिक रीसाइकिलिंग कारखानों में जाता है।
डब्लूएचओ की एक रिपोर्ट के मुताबिक बैट्री रीसाइक्लिंग का सारा कारोबार दक्षिण के गरीब और विकासशील देशो तक फैला हुआ है जो उनकी रोजो रोटी का संसाधन है पर साथ-साथ स्थानीय जन स्वास्थ्य के लिए बहुत बड़ा खतरा बन रहा है।
फाइनेंसियल टाइम्स के इसी साल के एक रिपोर्ट के मुताबिक बांग्लादेश में दो-तिहाई से ज्यादा बच्चों के खून में लेड की मात्रा तय मानक से ज्यादा पाई गयी है, साथ ही साथ देश की लगभग 20% जनसंख्या बैट्री से लेड निकलने वाली भट्टियो के पांच किलोमीटर के दायरे में रहती है, जो पानी, हवा और मिटटी में बड़े पैमाने पर लेड संदूषण के लिए जिम्मेदार है।
ध्यातव्य है कि सीसा या लेड प्रदूषण से कई तरह के स्वास्थ्य समस्याएं हो सकती हैं; मसलन सीसा विषाक्तता होने पर शरीर में लेड जमा हो जाता है. इससे थकान, पेट दर्द, दस्त, भूख न लगना, एनीमिया, मांसपेशियों में कमज़ोरी, या अंगों में पक्षाघात जैसी समस्याएं हो सकती हैं। यह बच्चों के मानसिक विकास और सोचने-समझने की क्षमता को प्रभावित करता है। वयस्कों में हाई ब्लड प्रेशर, हृदय संबंधी समस्याएं, और गुर्दे की क्षति का कारण हो सकता है।
गर्भावस्था के दौरान सीसे यानी लेड के संपर्क में आने से भ्रूण का विकास कम हो सकता है और समय से पहले जन्म हो सकता है इसकी उपस्थिति से पेट का कैंसर और फेफड़ों का कैंसर हो सकता है। गौरतलब है सीसा विषाक्तता से दुनिया भर में बौद्धिक विकलांगता के करीब 62.5 फ़ीसदी मामलों में योगदान है।
ई-रिक्शा चार्ज करने के लिए बिजली का उपयोग करते हैं। भारत की लगभग दो-तिहाई बिजली अभी भी कोयला आधारित है। जिस हिसाब से ई-रिक्शा की संख्या बढ़ रही है, ऐसे में ई-रिक्शा की बैटरी चार्ज करने के लिए उपयोग की जाने वाली बिजली अप्रत्यक्ष रूप से प्रदूषण के कारक बनेंगे।
बड़े शहरों में ई-रिक्शा की बढ़ती संख्या ट्रैफिक जाम का कारण बन रही है। दिल्ली में एक अनुमान के अनुसार, 30% स्थानीय ट्रैफिक जाम का कारण ई-रिक्शा हैं। यह समस्या तब और बढ़ जाती है जब इन वाहनों को नियमित यातायात नियमों का पालन नहीं करवाया जाता। ई-रिक्शा की गति और भार वहन क्षमता सीमित होती है। यह भीड़भाड़ वाले शहरों में धीमी यातायात का कारण हैं। भारत में ई-रिक्शा के बढ़ते उपयोग से बैटरी कचरा बढ़ रहा है।
इसमें उपयोग होने वाली बैट्री का उचित निस्तारण भारत में सबसे बड़ी समस्या बन कर उभरी है। हालाँकि लेड एसिड के बदले लिथियम बैटरी को ज्यादा टिकाऊ और पर्यावरण के लिए सुरक्षित माना जाता है पर यहाँ भी पेंच लिथियम बैटरी के रीसाइक्लिंग में फंसती है कि क्या हो अगर उसकी भी रीसाइक्लिंग अनापौचारिक कारखानों में बिना किसी मानक और देखरेख में होने लगे?
ऐसे में इसके पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभावों को संतुलित करने के लिए सबसे जरुरी है कि बैटरियों के रीसाइक्लिंग और निस्तारण के लिए कागजी नियम कानून से इतर एक चाक-चौबंद व्यवस्था बने जो बैटरी प्रदूषण खासकर रीसाइक्लिंग और चार्जिंग ऊर्जा के स्रोत जैसी समस्याओं को प्रभावी ढंग से अंजाम दे तभी ई-रिक्शा भारत के सतत विकास के लक्ष्यों को प्राप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता हैं, नहीं तो इसका बढ़ता इस्तेमाल हमें जन स्वास्थ्य के एक बड़े आपदा की तरफ ले जाएगी।