वैज्ञानिकों ने प्राचीन पक्षियों की बीट से विलुप्त होने का एक छिपा संकट खोजा निकाला

अध्ययन में कहा गया है कि जैव विविधता के नुकसान के प्रभावों को लेकर परजीवी जीवों पर भी अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए।
अंतरराष्ट्रीय शोधकर्ताओं ने पता लगाया है कि 1990 के दशक से पहले काकापो पू (तोता) में पाए गए 80 प्रतिशत से अधिक परजीवी अब वर्तमान आबादी में मौजूद नहीं हैं।
अंतरराष्ट्रीय शोधकर्ताओं ने पता लगाया है कि 1990 के दशक से पहले काकापो पू (तोता) में पाए गए 80 प्रतिशत से अधिक परजीवी अब वर्तमान आबादी में मौजूद नहीं हैं। फोटो साभार: विकिमीडिया कॉमन्स, संरक्षण विभाग
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अंतरराष्ट्रीय शोधकर्ताओं ने पता लगाया है कि 1990 के दशक से पहले काकापो पू में पाए गए 80 प्रतिशत से अधिक परजीवी अब वर्तमान आबादी में मौजूद नहीं हैं। काकापो पू या उल्लू तोता न्यूजीलैण्ड में पाई जाने वाली तोते की एक प्रजाति है, जिसका वैज्ञानिक नाम स्ट्रिगोप्स हैब्रोपटिलस है।

करंट बायोलॉजी पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन में 1500 साल से अधिक पुराने मल के नमूने लेने के लिए शोधकर्ताओं ने प्राचीन डीएनए और सूक्ष्म तकनीक का उपयोग किया। जिसमें 16 मूल परजीवी वर्गों में से नौ 1990 के दशक से पहले गायब हो गए थे।

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बुरे प्रभावों के लिए जाने जाने के बावजूद, परजीवियों को उनके पारिस्थितिक महत्व के लिए सराहा जा रहा है। परजीवी ग्रह के सबसे सर्वव्यापी, सफल और प्रजातियों से समृद्ध जीवों के समूहों में से हैं। लगभग सभी स्वतंत्र रूप से रहने वाली प्रजातियों में कुछ परजीवी पाए जाते हैं। वे प्रतिरक्षा प्रणाली के विकास में मदद कर सकते हैं और उन विदेशी परजीवियों को बाहर निकालने के लिए प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं जो किसी जीव के लिए अधिक हानिकारक हो सकते हैं।

हालांकि परजीवियों की जीवित जीवों पर निर्भरता उन्हें विलुप्त होने के प्रति संवेदनशील बना सकती है, खासकर इसलिए क्योंकि कई परजीवी केवल एक ही प्रजाति के साथ रहते हैं।

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किसी परजीवी का किसी जीव, जिस पर वे आश्रित रहते हैं, के साथ मिलकर विलुप्त होना दूसरी विलुप्ति या सह-विलुप्ति कहलाता है और यह अक्सर आश्रित रहने वाले जीव की तुलना में तेज गति से होता है।

शोध में पूर्वानुमान मॉडलों से पता चलता है कि सह-विलुप्ति प्रक्रिया के दौरान परजीवी अपने आश्रितों से पहले विलुप्त हो सकते हैं, क्योंकि आश्रित जीवों के बीच संचरण के अवसर कम हो जाते हैं। जिसके कारण जीव-जंतुओं की संख्या में गिरावट का परजीवियों पर स्थायी प्रभाव पड़ सकता है, भले ही आश्रितों की आबादी अंततः ठीक क्यों न हो जाए।

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परजीवियों जैसी दूसरे पर आश्रित रहने वाली प्रजातियों को उनके विलुप्त होने से पहले शायद ही कभी संरक्षित या दर्ज किया जाता था और इसलिए अब तक सह-विलुप्ति प्रक्रिया के वास्तविक पैमाने को दर्शाने वाले बहुत कम आंकड़े हैं।

यह नया शोध इस ओर इशारा करता है कि परजीवियों का विलुप्त होना पिछले अनुमानों की तुलना में कहीं अधिक प्रचलित हो सकता है और उनके पोषकों और उनके पारिस्थितिक तंत्र पर इसके अनजाने प्रभाव हो सकते हैं।

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वर्तमान में परजीवियों के नुकसान का स्तर अपेक्षा से कहीं अधिक है, प्राचीन और आधुनिक दोनों काकापो आबादियों में बहुत कम परजीवी प्रजातियां पाई गई। इसलिए ऐसा लगता है कि हर जगह लुप्तप्राय प्रजातियों में उनके मूल परजीवियों के अंश मौजूद हो सकते हैं।

अध्ययन में कहा गया है कि जैव विविधता के नुकसान के प्रभावों को लेकर परजीवी जीवों पर भी अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए। जलवायु परिवर्तन, पारिस्थितिकी तंत्र में बदलाव और जैव विविधता में गिरावट की वैश्विक दरें लगातार बढ़ रही हैं, जिसका अर्थ है कि परजीवी या शिकारी जैसी आश्रित प्रजातियों पर पड़ने वाले प्रभावों को पहचानने और समझने की तत्काल जरूरत है।

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परजीवियों के विलुप्त होने का दस्तावेजीकरण, यह कितनी तेजी से हो सकता है, तथा वर्तमान में संकटग्रस्त परजीवियों की संख्या का अनुमान लगाना, दुनिया भर में परजीवी संरक्षण योजना की दिशा में पहला महत्वपूर्ण कदम है। अतीत, वर्तमान और भविष्य में परजीवियों के नुकसान के लिए जरूरी पूर्वानुमानों का समर्थन करता है।

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