भारत: पिछले पांच दशकों में खेतों, मैदानों, चरागाहों और रेगिस्तानों में पाए जाने वाले पक्षियों में आई गिरावट

देश में जहां गिद्धों की संख्या तेजी से घटी है, वहीं कृषि भूमि, रेगिस्तानों, चरागाहों जैसे क्षेत्रों में पाए जाने वाले पक्षियों की संख्या में भी भारी गिरावट आई है
विलुप्त होने की कगार पर पहुंच चुका 'ग्रेट इंडियन बस्टर्ड'; फोटो: आईस्टॉक
विलुप्त होने की कगार पर पहुंच चुका 'ग्रेट इंडियन बस्टर्ड'; फोटो: आईस्टॉक
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यह किसी से छिपा नहीं है कि भारत में पिछले कुछ वर्षों के दौरान पक्षियों की आबादी में गिरावट आई है। लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट, 2024 में भी इसकी पुष्टि करते हुए लिखा है कि 1992 से 2002 के बीच देश में गिद्धों की संख्या तेजी से घटी है।

रिपोर्ट में पिछले पांच दशकों के दौरान अर्ध-शुष्क क्षेत्रों, घास के मैदान और रेगिस्तानी क्षेत्रों जैसे पारिस्थितिकी तंत्रों में भी पक्षियों की तेजी से घटती आबादी पर प्रकाश डाला गया है। गौरतलब है कि इन क्षेत्रों में कृषि भूमि, चरागाह, परती खेत और बंजर भूमि जैसे इंसानों द्वारा परिवर्तित किए गए क्षेत्र भी शामिल हैं।

रिपोर्ट के मुताबिक 1992 से 2002 के बीच देश में गिद्धों की तीन प्रजातियां- सफेद दुम वाले, भारतीय और पतली चोंच वाले गिद्धों की संख्या में भारी गिरावट दर्ज की गई है। इस दौरान जहां सफेद दुम वाले और भारतीय गिद्धों की संख्या में 98 फीसदी की गिरावट आई है।

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वहीं पतली चोंच वाले गिद्धों की आबादी में भी 93 फीसदी की भारी गिरावट दर्ज की गई। बता दें कि गिद्धों की यह तीनों प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर पहुंच चुकी हैं। बता दें कि लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट में इन शीर्ष हवाई शिकारियों की तुलना 1980 के दशक में मौजूद गिद्धों की संख्या से की है।

रिपोर्ट में भारत एकमात्र ऐसा देश है, जिसके लिए एक अलग खंड बनाया गया है। इसमें गिद्धों की संख्या में आती कमी के लिए मुख्य रूप से डाइक्लोफेनैक, एसिक्लोफेनाक, कीटोप्रोफेन और निमेसुलाइड जैसी दवाओं के उपयोग को जिम्मेवार माना है। बता दें कि इसकी गंभीरता को देखते हुए भारत ने पिछले साल एसिक्लोफेनाक और कीटोप्रोफेन पर प्रतिबंध लगा दिया था।

इसी तरह पशुओं के शवों में मौजूद जहरीले पदार्थों और हाई वोल्टेज तारों की वजह से लगने वाले बिजली के झटके भी इनकी घटती संख्या की अन्य वजहें हैं।

रिपोर्ट में पक्षियों के लिए सिकुड़ते खुले आवासों का भी जिक्र किया है। इन आवासों में घास के मैदान, अर्ध-शुष्क क्षेत्र और रेगिस्तान जैसे प्राकृतिक क्षेत्र शामिल हैं, साथ ही मानव निर्मित क्षेत्रों जैसे कि कृषि भूमि, चरागाह और परती भूमि को भी इसमें शामिल किया गया है।

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अच्छे नहीं कीटों के भी हाल

रिपोर्ट में कीटों और परागणकों की विविधता, प्रचुरता और गिरावट के बारे में जानकारी के अभाव पर भी चिंता जताई गई है। यह ध्यान रखना होगा कि भारत अकशेरुकी जीवों की विविधता से समृद्ध है। ऐसे में इनके बारे में जानकारी का आभाव चिंता का विषय है।

वहीं लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट 2016 के मुताबिक पिछले दो दशकों के दौरान 22 देशों में घास के मैदानों में पाई जाने वाली तितली की प्रजातियों में 33 फीसदी की गिरावट आई है।

रिपोर्ट में यह भी सामने आया है कि मधुमक्खियों की आबादी भी घट रही है। उदाहरण के लिए, ओडिशा में, 2002 के बाद से देशी मधुमक्खियों की संख्या में 80 फीसदी की गिरावट आई है।

रिपोर्ट में इस बात पर भी प्रकाश डाला गया है कि मक्खियों, तितलियों, पतंगों और भृंगों जैसे परागण करने वाले जीवों की स्थिति के बारे में बेहद कम जानकारी है।

रिपोर्ट में भारत में बाघों की बढ़ती आबादी का भी जिक्र किया गया है, जो भारतीय वन्यजीव संस्थान द्वारा 2022 के लिए जारी अनुमान के अनुसार 6.6 फीसदी की वृद्धि के साथ 3,682 से बढ़कर 3,925 पर पहुंच गई है।

मध्य भारत, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड और महाराष्ट्र में शिवालिक पहाड़ियों और गंगा के मैदानों में इनकी आबादी में कथित तौर पर वृद्धि हुई है।

रिपोर्ट में प्रकृति और जैव विविधता में आ रही भारी, क्रमिक गिरावट पर भी प्रकाश डाला है जो अपरिवर्तनीय बदलावों को जन्म दे सकती है। इन बदलावों को "टिपिंग पॉइंट" के नाम से जाना जाता है। यह ऐसी स्थिति है जिससे उबरना बेहद मुश्किल है।

उदाहरण के लिए, चेन्नई में शहरीकरण के चलते 1988 से 2019 के बीच आर्द्रभूमियां सिकुड़ गई। इस शहरी विस्तार के चलते भूमि की जल धारण और भूजल पुनर्भरण की क्षमता घट गई है, जिससे यह क्षेत्र विशेष रूप से जलवायु परिवर्तन के चलते सूखे और बाढ़ के प्रति बेहद संवेदनशील हो गया है।

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