जलवायु परिवर्तन और मानवीय गतिविधियों के दबाव से पूरा विश्व एक ऐसे पर्यावरणीय संकट की ओर बढ़ रहा है, जिसे रोकने के उपाय तत्काल नहीं किए गए, तो हम इस स्थिति से वापसी की राह खो देंगे।
वन्यजीवों के लिए कार्य कर रही संस्था डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की लिविंग प्लेनेट रिपोर्ट-2024 एक बार फिर आगाह कर रही है, हमने बीते 50 वर्षों में वन्यजीवों की 73 प्रतिशत आबादी खो दी है। इस खतरे को रोकने के लिए अगले 5 वर्षों में हमें वन्यजीवों के प्राकृतिक आवास का संरक्षण और अपनी खाद्य प्रणाली में सुधार करना होगा।
इस रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 1970 से 2020 के पांच दशकों में जब दुनिया तेजी से विकास की ओर बढ़ रही थी, वन्यजीवों की आबादी उसी रफ़्तार से घट रही थी। सबसे ज्यादा करीब 85 फीसदी गिरावट ताजे पानी में रहने वाले जलीय जीवों की आबादी में आई है।
यानी इस दौरान हर 10 में से कम से कम 8 जलीय जीव दम तोड़ रहे थे। धरती पर रहने वाले शेर, बाघ, हिरण समेत अन्य वन्यजीवों की आबादी भी तेज़ी से सिमट रही थी और हर 10 में से 7 प्राणी खत्म हो रहे थे। समुद्री जीवों में ये गिरावट 56 फीसदी थी यानी हर 10 में से कम से कम 5 समुद्री जीव खत्म हो रहे थे।
लैटिन अमेरिका और कैरेबियाई देशों में वन्यजीवों की आबादी में गिरावट तकरीबन 95 प्रतिशत थी लेकिन भारत समेत एशियाई देशों में स्थिति अपेक्षाकृत बेहतर थी। एशिया-प्रशांत क्षेत्र के देशों में तकरीबन 60 फीसदी गिरावट दर्ज की गई।
लिविंग प्लेनेट रिपोर्ट के मुताबिक वन्यजीवों की आबादी में गिरावट की सबसे बड़ी वजह उनके प्राकृतिक आवास का सिकुड़ना और क्षरण होना है। इसकी सबसे बड़ी वजह हमारी खाद्य प्रणाली है। धरती के तकरीबन 40 फीसदी हिस्से पर हम अन्न, फल-फूल उगाते हैं और इसके लिए धरती का 70 फीसदी पानी इस्तेमाल करते हैं।
मौजूदा खाद्य उत्पादन स्थिति के चलते 86% जीवों पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। रिपोर्ट में खेती को 90% तक वनों की कटाई की मुख्य वजह बताया गया है। इसके साथ ही तकरीबन 82% तक कृषि भूमि पशुओं के चरान और पशु आहार उत्पादन के लिए इस्तेमाल होती है।
रिपोर्ट के मुताबिक कम संसाधनों में उगने वाले मिलेट्स जैसे अन्न का अधिक इस्तेमाल सुधार की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है। साथ ही भोजन की बर्बादी को रोकना भी बहुत जरूरी है।
इसके साथ ही लैंटाना जैसी जंगली प्रजातियों का तेजी से फैलना भी वन्यजीवों के हैबिटेट को नुकसान पहुंचा रहा है। ख़ासतौर पर पक्षियों की आबादी इससे सबसे ज्यादा प्रभावित हो रही है। इसके चलते अन्य वन्यजीवों के लिए भोजन की उपलब्धता कम हो रही है।
जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण इस स्थिति को अधिक गंभीर बना रहे हैं। तापमान बढ़ने की वजह से देश का 36 फीसदी वन क्षेत्र वनाग्नि के लिहाज़ से संवेदनशील है। हर साल जंगल में आग लगने से बायोमास में बंद कार्बन समेत कीमती वन संसाधन नष्ट हो जाते हैं।
रिपोर्ट की मीडिया ब्रीफिंग के दौरान डाउन टू अर्थ के एक सवाल के जवाब में बताया गया कि हिमालयी क्षेत्रों में वन्यजीवों की आबादी में कितनी गिरावट आई है, जंगल की आग के चलते वन्य जीवों के प्राकृतिक आवास को कितना नुकसान पहुंच रहा है, इस पर अलग से विशेष अध्ययन की आवश्यकता है। क्योंकि वनाग्नि के चलते जो नुकसान दिखता है, दरअसल वो उससे कहीं अधिक हो सकता है। साथ ही तापमान बढ़ने से पक्षी समेत अन्य जीव-जंतु अनुकूल मौसम की तलाश में ऊंचाई की ओर बढ़ रहे हैं।
लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट चेतावनी देती है कि टिपिंग प्वाइंट यानी वो स्थिति जहां से लौटना संभव नहीं हो सकता, यदि उससे पहले ही हम सतर्क हो जाएं तो बेहतर नतीजे हासिल हो सकते हैं। इसका उम्दा उदाहरण प्रोजेक्ट टाइगर जैसे प्रयास हैं।
भारत में किए गए प्रयासों से बाघों, हिम तेंदुओं और एक सींग वाले गैंडों की आबादी में सुधार हुआ है। बाघों की वर्ष 2018 में 2,967 से बढ़कर वर्ष 2022 में 3,682 हो गई है। पहली बार की गई गिनती में देश में हिम तेंदुओं की संख्या 718 पाई गई है। एक सींग वाले गैंडों की विश्व में कुल आबादी 4,023 में से तकरीबन 3,270 भारत में हैं।
डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-इंडिया की प्रोग्राम डायरेक्टर डॉ सेजल वोरा कहती हैं कि इस पर्यावरणीय संकट से निपटने के लिए धरती और सागर के 30 प्रतिशत हिस्से को वर्ष 2030 तक संरक्षित करने का वैश्विक लक्ष्य हासिल करना जरूरी है। साथ ही हमें पर्यावरण को हो रहे नुकसान की मुख्य वजह भोजन उत्पादन की मौजूदा स्थिति और बर्बादी को रोकना होगा। कोयला आधारित ऊर्जा से सौर-पवन जैसे अक्षय ऊर्जा स्रोतों की ओर तेजी और न्यायसंगत तरीके से बढ़ना होगा। इस बदलाव के लिए वित्तीय व्यवस्था करनी होगी।