बढ़ते शहरीकरण के साथ इंसानों के करीब आते वन्यजीव, क्या सीखना होगा नई प्रजातियों के साथ रहना

बढ़ते शहरीकरण से जिस तरह प्राकृतिक आवास सिमट रहे हैं, उसकी वजह से इंसान और वन्यजीव कहीं ज्यादा करीब आते जा रहे हैं। नतीजन शहरों में भी उन प्रजातियों में इजाफा हो रहा है जो पहले वहां नहीं देखी जाती थी
ग्रेटर कौकल जैसे पक्षी अपने आहार के लिए इंसानी कचरे पर निर्भर नहीं रहते, लेकिन समय के साथ उनके व्यवहार में बदलाव आ रहा है; फोटो: आईस्टॉक
ग्रेटर कौकल जैसे पक्षी अपने आहार के लिए इंसानी कचरे पर निर्भर नहीं रहते, लेकिन समय के साथ उनके व्यवहार में बदलाव आ रहा है; फोटो: आईस्टॉक
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इसमें कोई शक नहीं की दुनिया भर में तेजी से फैलते शहरों और इंसानी बसावट ने इंसानों और जानवरों के संबंधों में दरार पैदा कर दी है। नतीजन इंसानों और जानवरों के बीच टकराव की घटनाएं अक्सर सामने आती ही रहती हैं। कहीं न कहीं घटते जंगल और प्राकृतिक आवासों में आती गिरावट इसकी बड़ी वजहें रही हैं।

लेकिन कुछ ऐसे भी जीव हैं जो बड़ी तेजी से इंसानों द्वारा बदलते इस परिवेश के साथ अनुकूलन कर रहे हैं और उनके साथ रहना सीख रहे हैं। देखा जाए यह लगभग तय है कि निकट भविष्य में भारत सहित दुनिया भर में शहरीकरण बढ़ेगा।

ऐसे में बढ़ते शहरीकरण के साथ शहरी पारिस्थितिकी तंत्र और उसमें पनपने वाली प्रजातियों को समझना भी बेहद जरूरी है, ताकि भविष्य के शहरों को स्वस्थ और सुरक्षित बनाया जा सके।

इस शहरी पारिस्थितिकी तंत्र में उन जीवों की बहुत बड़ी भूमिका है जो इंसानों द्वारा बचे-खुचे भोजन और खाद्य सामग्री पर निर्भर रहती हैं। सिकुड़ते जंगल, प्राकृतिक आवास के साथ शहरों में भारी मात्रा में पैदा हो रहा खाने योग्य कचरा इन जंगली जीवों को बड़ी तेजी से अपनी ओर आकर्षित कर रहा है।

यही वजह है कि शहरों में कई जंगली जीव अपने अनुकूलन के एक हिस्से के रूप में बचा हुआ भोजन तलाशना शुरू कर देते हैं।

इंसानी कचरे पर बढ़ती निर्भरता से बदल रहा है जीवों का व्यवहार

भारत में शहरी जैवविविधता में आते इस बदलाव और जीवों के व्यवहार को समझने के लिए एक नया अध्ययन किया गया है। पश्चिम बंगाल में किए इस अध्ययन में ऐसी प्रजातियों का पता चला है कि जो पहले कभी इन शहरों में इंसानों द्वारा फेंका बचा खुचा खाना खाते नहीं देखी गई हैं। इनमें जंगली और चितकबरी मैना, धब्बेदार कबूतर, ग्रेटर कौकल शामिल हैं।

इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च (आईआईएसईआर) कोलकाता द्वारा किए इस अध्ययन के नतीजे जर्नल फिलोसॉफिकल ट्रांसक्शन्स ऑफ द रॉयल सोसाइटी बी (बायोलॉजिकल साइंसेज) में प्रकाशित हुए हैं।

अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पश्चिम बंगाल में 15 जगहों पर 17 ऐसी प्रजातियों की पहचान की है जो इंसानों द्वारा फेंके कचरे में मौजूद खाने पीनी की सामग्री पर निर्भर है।

इनमें पक्षियों की 12 प्रजातियां और स्तनधारी जीवों की पांच प्रजातियां शामिल हैं। इन प्रजातियां में कुत्ते और मैना प्रमुख रूप से शामिल थी, जो इंसानों द्वारा फेंके कचरे पर मुख्य रूप से निर्भर थी। आमतौर पर बकरियों और बतखों को भी पाला जाता है।

लेकिन इनमें चित्तीदार कबूतर, चितकबरी मैना, धब्बेदार ग्रेटर कौकल जैसे जंगली जानवर भी शामिल हैं, जो आमतौर पर मनुष्यों के आसपास नहीं पाए जाते यह जीव अपने प्राकृतिक आवासों में रहते हैं और वहां मौजूद संसाधनों पर ही निर्भर रहते हैं।

इस बारे में अध्ययन से जुड़े शोधकर्ताओं में से एक अनिंदिता भद्रा ने जर्नल नेचर के हवाले से कहा है कि कुत्ते आमतौर पर इंसानी कचरे और फेंके गए खाने पर बहुत ज्यादा निर्भर करते हैं। वहीं मैना शहरी क्षेत्रों में बड़े समूहों में आती हैं, और लंबे समय तक रहती हैं। 

इस अध्ययन से पता चला है कि इन क्षेत्रों में अपने आहार के लिए इंसानी कचरे पर निर्भर 70 फीसदी जीव भोजन के लिए प्रतिस्पर्धा करने के बजाय एक साथ मिलकर काम कर रहे हैं। आपने भी अपने आसपास ऐसी कई जीव देखें होंगें जो आमतौर पर उन क्षेत्रों में इंसानों के आसपास आने से परहेज करते थे।

ऐसे में कहीं न कहीं यह जीवों और हमारे बीच के बदलते रिश्तों को भी उजागर करता है। कहीं न कहीं यह इस बात का स्पष्ट सन्देश है कि जैसे-जैसे शहरीकरण बढ़ रहा है, वैसे-वैसे जैवविविधता के संरक्षण के लिए किए जा रहे प्रयासों में शहरों में मौजूद वन्यजीवों पर भी विचार करने की आवश्यकता है।

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