
दिल्ली की हवा में मौजूद प्लास्टिक के महीन कण अब केवल पर्यावरण से जुड़ा मुद्दा नहीं, बल्कि सेहत के लिए भी बड़ा खतरा बनते जा रहे हैं। भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा किए एक नए अध्ययन से पता चला है कि राजधानी दिल्ली में गर्मियों के दौरान वयस्क सर्दियों की तुलना में करीब दो गुना अधिक माइक्रोप्लास्टिक सांस के जरिए निगल रहे हैं।
यह अध्ययन भारतीय उष्णदेशीय मौसम विज्ञान संस्थान (आईआईटीएम), पुणे और सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय से जुड़े वैज्ञानिकों द्वारा किया गया है। 'दिल्ली-एनसीआर में हवा में मौजूद माइक्रोप्लास्टिक का विश्लेषण और स्वास्थ्य पर प्रभाव' नामक इस अध्ययन के नतीजे प्रतिष्ठित जर्नल साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित हुए हैं।
अध्ययन में वैज्ञानिकों ने जानकारी दी है कि वयस्क व्यक्ति रोजाना औसतन 10 से 20 घन मीटर तक हवा सांस के जरिए अंदर लेते हैं, और इसी हवा के जरिए माइक्रोप्लास्टिक कण भी शरीर में प्रवेश कर सकते हैं।
क्या है माइक्रोप्लास्टिक?
गौरतलब है कि जब प्लास्टिक के बड़े टुकड़े टूटकर छोटे-छोटे कणों में बदल जाते हैं, तो उन्हें माइक्रोप्लास्टिक कहा जाता है। इसके साथ ही कपड़ों और अन्य वस्तुओं के माइक्रोफाइबर के टूटने से भी माइक्रोप्लास्टिक्स बनते हैं। सामान्यतः प्लास्टिक के एक माइक्रोमीटर से पांच मिलीमीटर के टुकड़े को ‘माइक्रोप्लास्टिक’ कहा जाता है।
देखा जाए तो यह कण हमारे जीवन में इस कदर रच बस गए हैं, उन्हें दूर करना आसान नहीं है। यह आज धरती के करीब-करीब हर हिस्से में मौजूद हैं। यहां तक की अंटार्कटिका की बर्फ से महासागरों की अथाह गहराइयों में भी इनकी मौजूदगी किसी से छिपी नहीं है।
यह कण बादलों, पहाड़ों, मिट्टी यहां तक की जिस हवा में हम सांस लेते हैं, उसमें भी मौजूद हैं। हमारा खाना-पानी भी इनसे अनछुआ नहीं रह गया है। इतना ही नहीं माइक्रोप्लास्टिक मानव रक्त, फेफड़ों, दिमाग सहित अन्य महत्वपूर्ण अंगों तक में अपनी पैठ बना चुके हैं।
रिसर्च रिपोर्ट में यह भी सामने आया है कि हर उम्र के लोगों में माइक्रोप्लास्टिक का असर अलग-अलग होता है और मौसम के अनुसार भी यह खतरा बदलता है। वयस्कों में गर्मियों के दौरान इन कणों की मात्रा सर्दियों की तुलना में करीब दोगुनी हो जाती है।
वैज्ञानिकों के अनुसार दिल्ली में एक वयस्क (18 साल से ऊपर) द्वारा माइक्रोप्लास्टिक के कणों को निगलने का जो आंकड़ा सर्दियों में 10.7 कण ± 3.8 रिकॉर्ड किया गया। वो गर्मियों में बढ़कर 21.1 कण ± 2.1 प्रतिदिन तक पहुंच जाता है। मतलब की सर्दियों की तुलना में गर्मियों में इसमें करीब 97 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई।
खतरे की जद से बाहर नहीं बच्चे और शिशु
अध्ययन में पाया गया कि सिर्फ वयस्क ही नहीं, बल्कि बच्चे और शिशु भी इस खतरे की चपेट में हैं। आंकड़ों के मुताबिक जहां 6 से 12 साल के बच्चे सर्दियों में औसतन 8.1 कण ± 2.9 कण सांस के जरिए निगल रहे हैं, वहीं गर्मियों में यह आंकड़ा बढ़कर 15.6 कण प्रति दिन तक पहुंच जाता है। इसी तरह एक से 6 साल के छोटे बच्चे में यह आंकड़ा जहां सर्दियों में 6.1 कण दर्ज किया गया, जो गर्मियों में बढ़कर 11.7 कण तक पहुंच गया।
चिंता की बात यह है कि एक साल से छोटे शिशु भी इस खतरे से सुरक्षित नहीं हैं। सर्दियों में जहां एक शिशु हर दिन औसतन 3.6 ± 1.3 कण सांस के जरिए निगल रहा था, वो गर्मियों में बढ़कर 6.8 कण ± 1.4 प्रतिदिन पर पहुंच गया।
गर्मियों में क्यों बढ़ जाता है खतरा?
वैज्ञानिकों के मुताबिक गर्मियों के मौसम (अप्रैल से जून) में बारिश कम होती है और हवा में धूल ज्यादा उड़ती है। इस वजह से प्लास्टिक के यह महीन कण हवा में ज्यादा देर तक तैरते रहते हैं। साथ ही, उच्च तापमान और कम नमी की वजह से प्लास्टिक जल्दी टूटकर छोटे-छोटे कणों में बदल जाता है और हवा में मिल जाता है।
इसलिए, गर्मियों के दौरान इन कणों की तादाद बढ़ जाती है और हम अनजाने में सांस के साथ इन्हें अपने शरीर में निगल रहे होते हैं।
कैसे किया गया यह अध्ययन?
अपने इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने 2024 की सर्दियों (जनवरी-मार्च) और गर्मी (अप्रैल-जून) में दिल्ली के लोधी रोड इलाके में हवा से नमूने एकत्र किए थे। ये सैंपल खास उपकरणों की मदद से लिए गए जो हवा में मौजूद प्रदूषण के महीन कणों जैसे पीएम10, पीएम2.5 और पीएम1 जैसे कणों को पकड़ सकते हैं।
इसके बाद माइक्रोप्लास्टिक की पहचान के लिए विशेष प्रयोगशाला तकनीकों जैसे एफटीआईआर स्पेक्ट्रोस्कोपी और इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप का उपयोग किया गया।
इस अध्ययन के दौरान कुल 2,087 माइक्रोप्लास्टिक कण पाए गए, जिनमें से 41फीसदी पॉलिएथलीन टेरेफ्थैलेट (पीईटी) यानी बोतलें, खाने की पैकिंग आदि में इस्तेमाल होने वाली प्लास्टिक, 27 फीसदी पॉलीथीन, 18 फीसदी पॉलिएस्टर के साथ ही 9 फीसदी पॉलीस्टाइरीन और 5 फीसदी पीवीसी भी शामिल थे।
अध्ययन में यह भी पाया गया कि माइक्रोप्लास्टिक के साथ-साथ जिंक, सिलिकॉन और एल्युमिनियम जैसे विषैले धातु तत्व भी मौजूद थे, जो सेहत पर खतरे को और भी ज्यादा बढ़ा देते हैं।
दिल्ली की हवा में कहां से आ रहा है माइक्रोप्लास्टिक?
अध्ययन के मुताबिक दिल्ली में जहां आबादी के साथ-साथ उद्योग की संख्या भी अधिक है। वहां मानव गतिविधियां माइक्रोप्लास्टिक के महीन कणों के उत्पादन में बड़ी भूमिका निभा रही हैं। खासकर औद्योगिक क्षेत्रों से निकलने वाले कणों की मात्रा अधिक होती है। बड़े शहरों में प्लास्टिक के छोटे-छोटे टुकड़े हवा और तेज हवाओं के जरिए काफी दूर तक फैल जाते हैं, और फिर धूल व अन्य कणों के साथ मिलकर वातावरण में घुल-मिल जाते हैं।
इन माइक्रोप्लास्टिक के कणों के स्रोत दो तरह के हो सकते हैं, इसमें पहले प्राथमिक स्रोत हैं, जैसे औद्योगिक प्रक्रियाएं और व्यक्तिगत उपयोग की चीजें जैसे फेस स्क्रब आदि, वहीं द्वितीयक स्रोत में प्लास्टिक कचरे का टूटकर छोटे टुकड़ों में बदलना शामिल हैं।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) द्वारा 2022 के लिए जारी आंकड़ों से पता चला है कि दिल्ली में हर दिन करीब 11,335 टन ठोस कचरा पैदा होता है। इसमें से करीब 1,145 टन प्रतिदिन प्लास्टिक कचरा होता है। हैरानी की बात है कि हर दिन पैदा होने वाले इस कचरे में से करीब 635 टन सिर्फ सिंगल-यूज प्लास्टिक होता है।
इसके साथ ही घरों में कपड़ों की धुलाई, कपड़ा उद्योग, पैकेजिंग कचरा और पास के औद्योगिक क्षेत्र भी माइक्रोप्लास्टिक के प्रमुख स्रोत हैं। इतना ही नहीं हवा के जरिए अन्य इलाकों से भी माइक्रोप्लास्टिक दिल्ली में पहुंचते हैं।
ऐसे में शहरों में जैसे-जैसे प्लास्टिक बैग, रैपर और पैकेजिंग सामग्री टूटती है, वो घिसकर छोटे-छोटे टुकड़ों में बदल जाती है। यही टुकड़े फिर हवा में मिलकर माइक्रोप्लास्टिक का रूप ले लेते हैं, जो इंसानों की सांसों के जरिए शरीर में पैठ बना सकते हैं।
रिसर्च में यह भी सामने आया है कि दिल्ली-एनसीआर में हर दिन एक व्यक्ति औसतन 5.3 से 15.4 माइक्रोप्लास्टिक के कण सांस के जरिए शरीर में ले रहा है, जो सालाना करीब 1,935 से 5,621 कण के बराबर हैं। यह स्तर मैक्सिको सिटी 2.4 कण प्रतिदिन, 876 कण सालाना से कहीं अधिक है।
हालांकि स्कॉटलैंड के इनडोर वातावरण में प्रतिदिन औसतन एक व्यक्ति द्वारा निगले जा रहे 38 से 187 कणों की तुलना में बेहद कम है। स्कॉटलैंड में यह आंकड़ा सालाना 13,731–68,415 कण रिकॉर्ड किया गया है।
शोध में यह भी सामने आया है कि घर के भीतर का वातावरण भी आमतौर पर कहीं ज्यादा माइक्रोप्लास्टिक से भरा होता है, क्योंकि वहां हवा का आदान-प्रदान सीमित होता है और कपड़ों जैसे सिंथेटिक स्रोतों से कण अधिक जमा होते हैं। अन्य शहरों जैसे पेरिस और श्रीलंका के बाहरी वातावरण में माइक्रोप्लास्टिक का स्तर दिल्ली से कम पाया गया। यह क्षेत्रीय कारकों जैसे प्लास्टिक से जुड़े उपयोग की आदतों, जनसंख्या घनत्व, सैंपलिंग तकनीक और मौसम पर भी निर्भर करता है।
स्वास्थ्य पर गंभीर असर
ये बेहद महीन कण सांस के जरिए फेफड़ों तक पहुंच सकते हैं, जिससे गंभीर बीमारियां हो सकती हैं। माइक्रोप्लास्टिक के लिए कोई 'सुरक्षित स्तर' तय नहीं है, लेकिन शोधकर्ताओं ने चेतावनी दी है कि इनका लंबे समय तक संपर्क सांस, फेफड़ों की सूजन, अस्थमा, ब्रोंकाइटिस और यहां तक कि कैंसर की भी वजह बन सकता है।
इसके साथ ही यह कण फेफड़ों में गहराई तक जाकर बैक्टीरिया ले जा सकते हैं, साथ ही त्वचा और मस्तिष्क की कोशिकाओं को भी गंभीर नुकसान पहुंचा सकते हैं।
इस बारे में मेडिकल यूनिवर्सिटी ऑफ विएना से जुड़े वैज्ञानिकों द्वारा किए अध्ययन से पता चला है कि हवा में मौजूद माइक्रो और नैनोप्लास्टिक के कण ने केवल शरीर में प्रवेश कर रहे हैं, बल्कि वो फेफड़ों की स्वस्थ कोशिकाओं में कैंसर जैसी घातक जैविक प्रतिक्रियाएं भी पैदा कर सकते हैं।
दिल्ली में पहले ही हवा में पीएम प्रदूषण का स्तर बेहद ऊंचा रहता है, ऐसे में माइक्रोप्लास्टिक का यह अतिरिक्त बोझ स्वास्थ्य के लिए एक गंभीर चुनौती बनता जा रहा है।
अध्ययन स्पष्ट तौर पर दर्शाता है कि दिल्ली जैसे भीड़भाड़ वाले प्रदूषित शहर में रहने वाले लोग, खासकर बच्चे और बुजुर्ग, माइक्रोप्लास्टिक के खतरे की गिरफ्त में हैं। यह इस बात की ओर भी इशारा है कि हम यदि अभी नहीं चेते तो हवा, पानी और भोजन के जरिए शरीर में पहुंच रहे प्लास्टिक के महीन कण हमारी सेहत के लिए आने वाले समय में एक गंभीर खतरा बन सकते हैं।