
चंदन सिंह 1980 के दशक में 18 साल की उम्र में अपने माता-पिता का हाथ बंटाने राजस्थान के भरतपुर से दिल्ली के लाल कुआं में आए थे। काम की तलाश में उनके माता-पिता 1971 में ही लाल कुआं आकर यहां की झुग्गी बस्ती में रहने लगे थे। उनके माता-पिता के जैसे बहुत से लोग अलग-अलग राज्यों से इस झुग्गी बस्ती में रह रहे थे क्योंकि इसके आसपास चल रहीं दर्जनों क्रशर्स रोजगार का बड़ा साधन थीं। चंदन के माता-पिता भी इन्हीं क्रशर्स में काम करते थे। उस वक्त यहां रहने वाले लोगों ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि ये क्रशर्स उनके लिए कब्रगाह बन जाएंगी।
क्रशर्स में करीब 15 साल काम करने के बाद 1986 में उनके माता-पिता को सांस लेने में कठिनाई, खांसी, थकान जैसी समस्याएं होने लगीं। डॉक्टरों ने उन्हें टीबी की बीमारी बताई और इसकी दवा चलने लगीं। इन दवाओं ने उन्हें उन्हें आराम नहीं मिला। 1994 में एक निजी डॉक्टर को दिखाने पर पता चला कि उनके फेफड़ों पर बड़ी मात्रा में पत्थर के कण (सिलिका) जमा हैं। उन्हें सिलिकोसिस बीमारी थी। उस वक्त लाल कुआं में कोई इस बीमारी के बारे में नहीं जानता था। बीमारी से जूझते हुए साल 2000 में चंदन के पिता चले और 2005 में उनकी मां भी इस बीमारी की भेंट चढ़ गईं।
मां की मृत्यु के बाद चंदन में भी इस बीमारी के लक्षण आ गए। वह पहली बार 2005 और 2009 में बीमार पड़े। चंदन 1984 से 2010 तक लाल कुआं और फरीदाबाद के पाली स्थित क्रशर्स में मुंशी के रूप में काम कर चुके हैं। 2005 में पहली बार तबीयत बिगड़ने पर डॉक्टरों ने उन्हें भी टीबी बताया। उन्होंने करीब 10 महीने तक इसकी दवा खाई। लेकिन 2009 में बीमार पड़ने पर उन्हें पता चला कि उनके फेफड़ों भी उनके पिता की तरह पत्थर के कण जमा हैं। हालांकि तब डॉक्टरों ने उनमें सिलिकोसिस की पुष्टि नहीं की। 2018-19 में महरौली स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टीबी एंड रिस्पीरेटरी डिजीजिस के डॉक्टर ने उनकी बीमारी को सिलिकोसिस के रूप में प्रमाणित किया।
लाल कुआं में सिलिकोसिस पीड़ितों के लिए काम करने वाले एक गैर लाभकारी संगठन द पीपल्स राइट एंड सोशल रिसर्च सेंटर (प्रसार) की मदद से उन्होंने मुआवजे के लिए क्रशर्स कंपनी पर केस किया है। सिलिकोसिस की पुष्टि होने के उपरांत सितंबर 2023 में उन्हें दिल्ली सरकार की तरफ से 2.5 लाख रुपए की अंतरिम राहत मिली।
लाल कुआं में रहने वाली 62 साल की सिलिकोसिस पीड़ित गीता कहती हैं कि 1991 में बंद होने से पहले यहां करीब 50 क्रशर्स चल रही थीं। गीता क्रशर्स में काम के चलते अपने सास-ससुर, जेठ-जेठानी, नंद-नंदोई और पति को खो चुकी हैं। उनका कहना है कि क्रशर्स की धूल कपड़े, बर्तनों और यहां तक खाने तक में जम जाती थी। गीता की तरह ही चेतराम अपने माता-पिता और चाचा को, भजनलाल माता-पिता और बड़े भाई, माली देवी पति, जेठ, देवर और सास-ससुर की मौत देख चुकी हैं। छोटी देवी, हरप्यारी, संतोष और पुष्पा भी अपने परिवार के कई सदस्यों को खो चुकी हैं। स्थानीय लोगों का कहना है कि जरूरी नहीं है कि क्रशर में काम करने वालों को ही सिलिकोसिस हो। दिनभर उड़ती धूल ने ऐसे भी बहुत से लोगों को बीमार कर दिया, जो किसी क्रशर प्लांट में काम नहीं करते थे।
लाल कुआं में 1998 में द पीपल्स राइट एंड सोशल रिसर्च सेंटर (प्रसार) की सक्रियता के बाद यहां सिलिकोसिस के मरीज प्रमाणित होने शुरू हुए। प्रसार के अध्यक्ष एसए आजाद डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि लाल कुआं में साल 2000 से पहले कोई सिलिकोसिस से प्रमाणित नहीं हुआ था। लेकिन मौजूदा समय तक लाल कुआं में करीब 200 सिलिकोसिस पीड़ित सामने आ चुके हैं। इनमें से करीब 75 प्रतिशत पीड़ितों को सरकार की तरफ से आर्थिक राहत मिली है, जब शेष 25 प्रतिशत पीड़ितों के राहत आवेदन लंबित हैं।
आजाद का कहना है कि सरकारी उपेक्षा से सिलिकोसिस से होने वाली मौतें सामूहिक हत्या जैसी हैं, जिसमें सीधे तौर पर सरकार शामिल है। वह यह भी बताते हैं कि उन्होंने लाल कुआं में अब तक 5,000 से अधिक लोगों की मौत देखी है। इससे पहले अनगिनत लोग बिना उचित जांच के टीबी की दवाई खाते-खाते मर गए। आजाद कहते हैं कि साधारण एक्सरे और मजदूर की वर्क हिस्ट्री से सिलिकोसिस आसानी से प्रमाणित हो सकता है लेकिन डॉक्टरों द्वारा ऐसा न करना उनकी योग्यता पर सवाल खड़े करता है।
आजाद ने सिलिकोसिस पीड़ितों के लिए लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी है। वह इस मामले को 2006 में उच्चतम न्यायालय में लेकर गए और दलील दी कि विभिन्न उद्योगों में काम करने वाले श्रमिकों में सिलिकोसिस का व्यापक और अनियंत्रित प्रसार भारत के संविधान के तहत श्रमिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। उन्होंने यह भी दलील दी कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत स्वास्थ्य, सुरक्षा और सम्मान के साथ जीने के अधिकार की घोर उपेक्षा की जा रही है।
6 अगस्त 2024 को न्यायालय ने याचिका पर राज्यों के मुख्य सचिवों को इस मामले में बहुत से निर्देश देने के साथ ही खान सुरक्षा महानिदेशक (डीजीएमएस), डायरेक्टर जनरल फैक्ट्री एडवाइस सर्विस एंड लेबर इंस्टीट्यूट (डीजी-एफएएसएलआई) को सिलिकोसिस पीड़ितों का राज्यवार ब्यौरा देने का आदेश दिया। न्यायालय में यह मामला एनजीटी में ट्रांसफर कर दिया था।
सिलिकोसिस से अपनों को खोने और खुद इस बीमारी से तिल-तिल मर रहे लोगों की सिलिकोसिस पीड़ित संघ के बैनर तले कानूनी लड़ाई जारी है। एसए आजाद कहते हैं कि इस मामले में कानून साफ है कि जिसकी वजह से यह बीमारी हुई है, उस पर कार्रवाई हो सकती है और मुआवजे का भी प्रावधान है। कंपनियां मजदूरों को मौत के मुंह में डालकर बच नहीं सकतीं।