ग्राउंड रिपोर्ट : पन्ना में एक ही परिवार के पांच सदस्यों को लील चुका है सिलिकोसिस

गांधीग्राम में रहने वाले अरविंद के परिवार में सिलिकोसिस से मौत का सिलसिला 2014 में शुरू हुआ जो थमने का नाम नहीं ले रहा है
पत्थर की खदानों में लंबे समय तक काम करने वाले परिवार के पांच सदस्यों को खो चुके अरविंद (दाएं) 12 साल की उम्र से मजदूरी कर रहे हैं। मौजूदा समय में वह एक हीरे की खदान में काम कर रहे हैं। फोटो: विकास चौधरी/सीएसई
पत्थर की खदानों में लंबे समय तक काम करने वाले परिवार के पांच सदस्यों को खो चुके अरविंद (दाएं) 12 साल की उम्र से मजदूरी कर रहे हैं। मौजूदा समय में वह एक हीरे की खदान में काम कर रहे हैं। फोटो: विकास चौधरी/सीएसई
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पन्ना जिले के गांधीग्राम में रहने वाले अरविंद गौंड जब 12 साल के थे, तभी से उन पर दुखों का पहाड़ टूटना शुरू हो गया। पत्थर की खदानों में लंबे समय तक काम कर चुके उनके परिवार के बीमार सदस्यों की मौत का सिलसिला 2014 में शुरू हो गया। सबसे पहले उनके 65 साल के दादा वीरेन की मृत्यु हुई। फिर ताऊ गजराज ने अगले ही साल 42 साल की उम्र में दम तोड़ दिया। 2017 में उनकी बड़ी ताई भूरी बाई 38 वर्ष की उम्र में दुनिया छोड़ गईं। भूरी बाई के मृत्यु के दो साल बाद उनके पति और अरविंद के बड़े ताऊ हेतराम भी 47 साल की उम्र में चल बसे।

अरविंद को सबसे बड़ा झटका 2022 में तब लगा जब 45 साल की उम्र में उनके पिता इमरत लाल ने बीमारी से जूझते हुए अंतिम सांसें लीं। दादा को छोड़कर अरविंद के परिवार के सभी सदस्यों को डॉक्टरों ने टीबी की बीमारी बताई थी, लेकिन अरविंद मानते हैं कि उन्हें टीबी नहीं बल्कि सिलिकोसिस था। यह बीमारी केवल उनके दादा को बताई गई। सिलिकोसिस से दादा की मृत्यु के बाद परिवार को 3 लाख रुपए का मुआवजा भी मिला था।  

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गांधीग्राम में अब भी बहुत सी पत्थर की खदानों में काम हो रहा है। ऐसी ही एक खदान को दिखाते अरविंद। फोटो: विकास चौधरी/सीएसई
गांधीग्राम में अब भी बहुत सी पत्थर की खदानों में काम हो रहा है। ऐसी ही एक खदान को दिखाते अरविंद। फोटो: विकास चौधरी/सीएसई

वर्तमान में अरविंद के 50 साल के चाचा राजकुमार सिलिकोसिस से पीड़ित हैं। राजकुमार 15 साल की उम्र से पत्थर की खदानों में काम कर हैं। 2018 में उन्हें सिलिकोसिस बीमारी का पता चला। लेकिन जब वह जिला अस्पताल गए तो उनकी टीबी की दवा चला दी गई। करीब 14 महीने तक वह टीबी की दवा खाते रहे, जिससे उन्हें खास आराम नहीं मिला। परिवार पालने के लिए राजकुमार अब भी पत्थर की खदान में काम करने को मजबूर हैं, यह जानते हुए भी कि इन्हीं खदानों ने उन्हें मौत के मुंह की ओर धकेला है। राजकुमार इस काम को मजबूरी बताते हुए कहते हैं कि उनके पास खेत नहीं है, इसलिए काम के लिए खदान के अलावा कोई विकल्प नहीं हैं। वह बीमारी के डर से अपने बच्चों को खदान में काम नहीं कराते। उनके दो बेटे और पत्नी गुड़गांव में मजदूरी करते हैं।  

पत्थर की खदानों में काम करने वाले परिवार के पांच सदस्यों को खो चुके अरविंद यह बात भली भांति जान चुके हैं कि इनसे केवल मौत मिलती है। गांधीग्राम में अभी कुल 3 सिलिकोसिस से प्रमाणित मजदूर जिंदा हैं, जबकि पिछले एक दशक में 6 मजदूर मर चुके हैं। पन्ना जिले में सिलिकोसिस पीड़ितों के लिए काम कर रहीं पृथ्वी ट्रस्ट की निदेशक समीना यूसुफ के मुताबिक, गांधीग्राम में 20-25 महिलाएं विधवा हैं। इनमें से अधिकांश के पति खदानों में काम करते थे और बहुत कम उम्र में उनकी बीमारी से जूझते हुए मृत्यु हो गई।

अरविंद के मुताबिक, पूरा गांधीग्राम सिलिकोसिस की चपेट में है लेकिन डॉक्टर ठीक से जांच नहीं करते। इसलिए लोगों में इसकी पुष्टि नहीं हो पाती और टीबी समझकर उनका इलाज किया जाता है। वह बताते हैं यह बीमारी उन औरतों में भी बहुत सामान्य है जो अपने पति के साथ काम करने खदानों में जाती हैं। अरविंद कहते हैं कि उनके बड़े परिवार को इस बीमारी से छोटा कर दिया है।

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पत्थर की खदानों में लंबे समय तक काम करने वाले परिवार के पांच सदस्यों को खो चुके अरविंद (दाएं) 12 साल की उम्र से मजदूरी कर रहे हैं। मौजूदा समय में वह एक हीरे की खदान में काम कर रहे हैं। फोटो: विकास चौधरी/सीएसई
अरविंद के चाचा राजकुमार सिलिकोसिस से पीड़ित हैं और बीमारी में भी उन्हें मौत के मुंह की ओर धकेलने वाली खदानों में काम करना पड़ रहा है। फोटो : विकास चौधरी/सीएसई
अरविंद के चाचा राजकुमार सिलिकोसिस से पीड़ित हैं और बीमारी में भी उन्हें मौत के मुंह की ओर धकेलने वाली खदानों में काम करना पड़ रहा है। फोटो : विकास चौधरी/सीएसई

21 साल के अरविंद डाउन टू अर्थ को अपनी तकलीफ साझा करते हुए बताते हैं कि पिता की मौत के बाद उनके ऊपर बड़ी जिम्मेदारियां आ गईं। परिवार में उनकी एक छोटी बहन और हाथ व पैरों से लाचार मां तिरसिया बाई है। हालांकि परिवार की जिम्मेदारियों का एहसास उन्हें 12 की उम्र में भी हो गया था जब परिवार के सदस्य बीमार होने लगे थे। इसी के चलते वह पढ़ाई छोड़कर काम में लग गए। अरविंद ने इन्हीं जिम्मेदारियों को निभाने के लिए 2015 में दिल्ली और हरियाणा के कई शहरों का रुख किया और अपनी उम्र छिपाकर मजदूरी करते रहे। 2019 तक वह कभी दिल्ली, कभी गुड़गांव, कभी चंडीगढ़ तो कभी पानीपत में मजदूरी करते रहे। इसके बाद वह पन्ना लौट गए और हीरे की खदान में मजदूरी करने लगे। मौजूदा समय में उन्हें 300-400 रुपए मजदूरी मिल रही है।

अरविंद ने डाउन टू अर्थ को बताया कि उनकी उम्र के लड़के घूमने-फिरने जाते रहते हैं, लेकिन मुझे परिवार पालना पड़ रहा है। अपने बारे में सोचने से पहले मुझे परिवार के हालात के बारे में सोचना पड़ता है।

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