बसंती गोंड ने करीब 10 दिन पहले अपने पति को खोया है। उनके पति मुन्नीलाल की उम्र करीब 50 साल थी। वह पिछले कई सालों से बीमार चल रहे थे। परिवार के मुताबिक, उन्हें टीबी (क्षयरोग या तपेदिक) था। वह गांव के आंगनवाड़ी से मिलने वाली दवाएं खा रहे थे। मुन्नीलाल ने कई साल तक पत्थर की खदान में काम किया था।
मध्य प्रदेश के पन्ना जिले के मनौर गांव में रहने वाली बसंती गोंड की तरह ही दुल्लीबाई और रक्को बाई ने भी अपने पति खोए हैं। दुल्लीबाई के पति छोटे लाल की मृत्यु हुए करीब 20 साल हो गए हैं जबकि रक्को बाई के पति गोकुल की मृत्यु को करीब 25 साल गुजर गए हैं। उस वक्त दोनों की उम्र 30-35 वर्ष होगी।
गांव में ऐसी महिलाओं की लंबी सूची है। आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, मनौर में करीब 58 महिलाएं विधवा पेंशन ले रही हैं। इन सबमें सामान्य बात यह है कि सबके पति खदान में काम करने के दौरान बीमारी की चपेट में आए और बहुत कम उम्र में गुजर गए।
गांव में एक घर के बाहर समूह में बैठी अधिकांश महिलाओं ने माना कि यहां 50 साल से अधिक उम्र के पुरुष गिनती के हैं। इसीलिए मनौर गांव को विधवाओं के गांव के रूप में जाना जाता है।
गांव के 54 साल के निरभान सिंह गोंड उन चुनिंदा खुशकिस्मत लोगों में शामिल हैं जो बीमारी से बच गए हैं। वह कहते हैं कि गांव की आधी से अधिक महिलाएं विधवा हैं। गांव में उम्रवार पुरुषों की संख्या पूछने पर वह दिमाग पर थोड़ा जोर डालने के बाद जवाब देते हैं कि 50 साल से अधिक उम्र के पुरुषों की संख्या 5-6 ही होगी। वहीं 60 से अधिक पुरुषों की संख्या तो केवल 2-3 ही होगी जबकि 70 साल की उम्र का कोई पुरुष शायद ही जीवित हो।
गांव की युवती रोशनी गोंड इस प्रश्न के जवाब में कहती हैं कि 1990 से पहले पैदा हुए बहुत कम ही पुरुष जिंदा बचे हैं। उनका यहां तक कहना है कि गांव में शायद ही कोई ऐसा घर हो जहां महिला विधवा न हो। रोशनी के मुताबिक, गांव के अधिकांश पुरुष 40 साल की उम्र भी पूरी नहीं पाए और उनकी अकाल मृत्यु हो गई। गांव की ज्यादातर महिलाएं शादी के बाद 5 से 10 साल के अंदर विधवा हो चुकी हैं।
मनौर ग्राम पंचायत में शामिल जरूआपुर और दरेरा में भी क्रमश: 46 और 30 महिलाएं विधवा पेंशन ले रही हैं। इस तरह मनौर, दरेरा और जरूआपुर में कुल 134 महिलाएं ऐसी हैं जो अपने पतियों को खोने के बाद 600 रुपए के विधवा पेंशन पर आश्रित हैं। इसके अतिरिक्त बहुत सी विधवा महिलाएं ऐसी हैं जो पलायन कर गई हैं।
गांव के ग्रामीणों की तरह मनौर की आंगनवाड़ी कार्यकर्ता कविता यादव भी मानती हैं कि गांव में करीब 60 प्रतिशत लोगों को टीबी है और इसी बीमारी से जूझते हुए अधिकांश पुरुष दुनिया से चल बसे हैं। हालांकि केवल टीबी से इस पैमाने पर मृत्यु सामाजिक कार्यकर्ताओं के गले नहीं उतरती।
पन्ना के आदिवासी इलाकों में ग्रामीणों के स्वास्थ्य के लिए लगातार काम कर रहे पृथ्वी ट्रस्ट की निदेशक समीना यूसुफ साफ मानती हैं कि यहां बड़े पैमाने पर सिलिकोसिस बीमारी का टीबी समझकर इलाज किया जा रहा है। समीना ने खुद जून 2023 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को सिलिकोसिस से पीड़ित 18 ऐसे लोगों की सूची उपलब्ध कराई थी जिन्हें खुद सरकार द्वारा बीमारी से प्रमाणित किया गया था। साथ ही उन्होंने 16 ऐसे मृतकों की लिस्ट भी आयोग को दी जिन्हें सरकार द्वारा मुआवजा दिया गया था। इसके अतिरिक्त सूची में 8 अन्य ऐसे सिलिकोसिस पीड़ित भी शामिल थे, जिन्हें मुआवजा नहीं दिया गया। उन्होंने डाउन टू अर्थ को बताया कि आयोग को सूची सौंपने के बाद कुछ अन्य लोगों में सिलिकोसिस की पुष्टि हुई, जो सूची में शामिल नहीं है।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को सौंपी गई सूची में मनौर में रहने वाला केवल एक शख्स परमलाल आदिवासी सिलिकोसिस पीड़ित था। समीना के मुताबिक, सूची में शामिल सभी लोगों का पहले टीबी समझकर ही इलाज किया जा रहा था। 2011 और 2012 में पृथ्वी ट्रस्ट की ओर से लगाए गए निजी स्वास्थ्य शिविरों में 162 मजदूर सिलिकोसिस से प्रमाणित हुए थे। लेकिन बाद में हुई सरकारी जांच में केवल 47 लोगों में सिलिकोसिस की पुष्टि की गई।
सिलिकोसिस एक लाइलाज ऑक्युपेशनल डिसीज यानी काम की वजह से होने वाली बीमारी है जो खदानों में काम के दौरान निकलने वाली धूल (सिलिका डस्ट) के लंबे समय तक संपर्क में रहने से होती है। यह धूल सांस के जरिए फेफड़ों में जाकर उसे बेहद सख्त बना देती है, जिससे सांस लेने में कठिनाई, खांसी, थकान, मुंह से खून आना जैसी समस्याएं होने लगती हैं।
पन्ना के ग्रामीणों ने 2011 से पहले इस बीमारी का नाम तक नहीं सुना था। इसके लक्षण हूबहू टीबी से मिलते हैं, इसलिए ग्रामीण और डॉक्टर इस बीमारी को समझने की भूल कर बैठते हैं और ज्यादातर लोगों का टीबी समझकर इलाज किया जाता है।
मनौर गांव पन्ना जिले के उन दर्जनों गांव में शामिल है जहां के पुरुषों ने रोजी-रोटी के लिए यहां चलने वाली असंख्य पत्थर खदानों (सैंडस्टोन माइनिंग) में खनन का काम करके अपनी अधिकांश जिंदगी गुजार दी। 1998 में पन्ना टाइगर रिजर्व के कारण खदानें बंद कर दी गईं। वर्तमान में केवल गिनी चुनी खदानें ही चालू हैं। समीना के मुताबिक, सिलिकोसिस पीड़ित अधिकांश वे लोग हैं जो बंद हो चुकी खदानों में लंबे समय तक काम कर चुके हैं। वह मानती हैं कि अगर लोगों की नियमित और उचित जांच हो तो कथित टीबी के मरीजों में सिलिकोसिस की पुष्टि हो सकती है।
अगली कड़ी में जानिए सिलिकोसिस पीड़ित लच्छु आदिवासी की कहानी, जिसका लंबे तक समय टीबी की इलाज चला