अपने विशिष्ट गुणों के कारण इन फॉरएवर केमिकल्स का उपयोग नॉन-स्टिक बर्तनों, फूड पैकेजिंग और वाटरप्रूफ कपड़ों जैसी रोजमर्रा की चीजों में किया जाता है। फोटो: आईस्टॉक
अपने विशिष्ट गुणों के कारण इन फॉरएवर केमिकल्स का उपयोग नॉन-स्टिक बर्तनों, फूड पैकेजिंग और वाटरप्रूफ कपड़ों जैसी रोजमर्रा की चीजों में किया जाता है। फोटो: आईस्टॉक

सावधान! रोजमर्रा की चीजों में इस्तेमाल होने वाले इन केमिकल्स से बढ़ सकता है डायबिटीज का खतरा

रिसर्च से पता चला है जिन लोगों के खून में पीएफएएस का स्तर ज्यादा था, उनमें भविष्य में डायबिटीज होने की आशंका 31 फीसदी अधिक थी
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एक नए अध्ययन में वैज्ञानिकों ने चेताया है कि पर-एंड पॉली-फ्लोरो अल्काइल सब्स्टेंसेस (पीएफएएस) नामक सिंथेटिक रसायनों के संपर्क में आने से टाइप 2 डायबिटीज का खतरा बढ़ सकता है।

इन केमिकल्स का उपयोग नॉन-स्टिक बर्तनों, फूड पैकेजिंग और वाटरप्रूफ कपड़ों जैसी रोजमर्रा की चीजों में किया जाता है। गौरतलब है कि पीएफएएस को आमतौर पर "फॉरएवर केमिकल्स" के नाम से जाना जाता है, क्योंकि ये रसायन लंबे समय तक नष्ट नहीं होते और हमारे शरीर व पर्यावरण में जमा होते रहते हैं।

गौरतलब है कि दुनिया में 12,000 से ज्यादा तरह के फॉरएवर केमिकल्स के मौजूद होने की पुष्टि हो चुकी है। यह ऐसे केमिकल्स हैं, जो पर्यावरण और स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा सकते हैं।

यह अध्ययन अमेरिका के माउंट सिनाई अस्पताल के वैज्ञानिकों द्वारा किया गया है, जिसके नतीजे जर्नल ई बायोमेडिसिन में प्रकाशित हुए हैं।

अपने इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने 70,000 से अधिक मरीजों की जानकारी का विश्लेषण किया। उन्होंने हाल ही में टाइप 2 डायबिटीज से ग्रस्त 180 लोगों की तुलना उन्हीं के जितनी उम्र, लिंग और जातीयता के 180 स्वस्थ लोगों से की है।

विश्लेषण में पाया गया कि जिन लोगों के खून में पीएफएएस का स्तर ज्यादा था, उनमें भविष्य में डायबिटीज होने की आशंका 31 फीसदी अधिक थी।

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अपने विशिष्ट गुणों के कारण इन फॉरएवर केमिकल्स का उपयोग नॉन-स्टिक बर्तनों, फूड पैकेजिंग और वाटरप्रूफ कपड़ों जैसी रोजमर्रा की चीजों में किया जाता है। फोटो: आईस्टॉक

केमिकल्स का घर बन रहा शरीर

बता दें कि 1940 के दशक से इन केमिकल्स का उपयोग आमतौर पर नॉन-स्टिक बर्तन, फूड पैकेजिंग, सौंदर्य प्रसाधन, वाटरप्रूफ कपड़े और दाग-प्रतिरोधी फर्नीचर तैयार करने में होता है। ये केमिकल्स न तो आसानी से टूटते हैं और न ही जल्द खत्म होते हैं। यही वजह है कि इन्हें 'फॉरएवर केमिकल्स' कहा जाता है।

अध्ययन में यह भी सामने आया है कि पीएफएएस शरीर में अमीनो एसिड के निर्माण और दवाओं के पाचन जैसी महत्वपूर्ण जैविक प्रक्रियाओं में हस्तक्षेप कर सकते हैं, जिससे शरीर के ब्लड शुगर को नियंत्रित करने की क्षमता पर असर पड़ता है।

अध्ययन के वरिष्ठ लेखक और माउंट सिनाई स्कूल ऑफ मेडिसिन के पर्यावरण चिकित्सा विशेषज्ञ डॉक्टर विशाल मिद्या ने प्रेस विज्ञप्ति में कहा कि यह केमिकल अपने विशेष गुणों के कारण आम घरेलु उत्पादों में मौजूद होते हैं। यह धीरे-धीरे शरीर में जमा हो जाते हैं। रिसर्च दर्शाती है कि ये रसायन शरीर के मेटाबॉलिज्म को प्रभावित कर ब्लड शुगर नियंत्रण में बाधा पहुंचा सकते हैं।"

पहले किए गए अध्ययनों में भी इस बात की पुष्टि हो चुकी है कि यह हानिकारक केमिकल्स इंसानों द्वारा ली जा रही सांस या पीने के पानी के जरिए शरीर में प्रवेश कर सकते हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक शरीर में प्रवेश करने के बाद यह विषैले पदार्थ लिवर में गड़बड़ी, जन्म के समय कम वजन जैसी स्वास्थ्य से जुड़ी अन्य समस्याओं को जन्म दे सकते हैं। इतना ही नहीं इनकी वजह से टीकों की मदद से पैदा होने वाली प्रतिरक्षा पर भी असर पड़ता है।

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अपने विशिष्ट गुणों के कारण इन फॉरएवर केमिकल्स का उपयोग नॉन-स्टिक बर्तनों, फूड पैकेजिंग और वाटरप्रूफ कपड़ों जैसी रोजमर्रा की चीजों में किया जाता है। फोटो: आईस्टॉक

वरिष्ठ शोधकर्ता डॉक्टर डामास्किनी वाल्वी के मुताबिक ये 'फॉरएवर केमिकल्स' मोटापा, लिवर डिजीज और टाइप 2 डायबिटीज जैसी कई पुरानी बीमारियों के जोखिम को बढ़ा सकते हैं। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि डायबिटीज की रोकथाम के लिए हमें सिर्फ जीवनशैली और आनुवंशिक कारणों पर ही नहीं, बल्कि पर्यावरणीय प्रभावों पर भी गंभीरता से ध्यान देना होगा।

वहीं एक अन्य अध्ययन में वैज्ञानिकों को इंसानी शरीर में फूड पैकेजिंग या उसे तैयार करने में उपयोग होने वाले 3,600 से ज्यादा केमिकल मिले हैं। इस अध्ययन के मुताबिक, इनमें से कुछ केमिकल तो ऐसे हैं जो हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकते हैं, जबकि कई अन्य के बारे में हमें ज्यादा जानकारी नहीं है।

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इसी तरह हाल ही में वैज्ञानिकों को बैंड-एड जैसे कई जाने-माने ब्रांड के बैंडेज में जहरीले फॉरेवर केमिकल मिले थे। बता दें कि भारत में भी स्वास्थ्य पर फॉरएवर केमिकल्स के मंडराते खतरे को देखते हुए नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने 19 दिसंबर, 2024 को कहा था कि इन कभी न खत्म होने वाले रसायनों के लिए जल्द से जल्द मानक तय किए जाने चाहिए।

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