प्लास्टिक में छुपा मौत का केमिकल, भारत में एक लाख से ज्यादा मौतों से जुड़े हैं तार

कैसे प्लास्टिक को लचीला बनाने के लिए इस्तेमाल होने वाले केमिकल लाखों लोगों की मौत की वजह बन रहा है?
भारत में प्लास्टिक से बने खिलौनों को निहारते बच्चे; फोटो: आईस्टॉक
भारत में प्लास्टिक से बने खिलौनों को निहारते बच्चे; फोटो: आईस्टॉक
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प्लास्टिक आज हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में पूरी तरह रच-बस गया है। बात चाहे खाने-पीने से जुड़ी चीजों की पैकिंग की हो या बच्चों के खिलौनों की, हमारे घरों, दफ्तरों तक हर जगह इसका उपयोग बेहद आम है। भले ही प्लास्टिक ने हमारी जिंदगी आसान कर दी है, लेकिन साथ ही स्वास्थ्य और पर्यावरण को होते नुकसान के रूप में इसकी भारी कीमत भी चुकानी पड़ रही है।

इस कड़ी में किए एक नए वैश्विक अध्ययन से पता चला है कि प्लास्टिक में उपयोग होने वाले कुछ केमिकल हमारी सेहत पर भारी पड़ रहे हैं।

अध्ययन के अनुसार, 2018 में दुनियाभर में दिल की बीमारी से हुई 3,56,000 से ज्यादा मौतों का संबंध प्लास्टिक उत्पादों में इस्तेमाल होने वाले एक विशेष रसायन 'डाइ-2-एथाइलहेक्सिल फ्थेलेट (डीईएचपी)' से था। यह रसायन प्लास्टिक को लचीला बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन इसे मानव स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा माना जा रहा है।

चिंता की बात यह है कि इस मामले में भारत की स्थिति सबसे ज्यादा खराब थी, जहां ह्रदय रोग से होने वाली 1,03,587 मौतों के लिए कहीं न कहीं यह केमिकल भी जिम्मेवार था। इस अध्ययन का नेतृत्व न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी लैंगोन हेल्थ के वैज्ञानिकों ने किया है। इस अध्ययन के नतीजे जर्नल लैंसेट ई बायोमेडिसिन में प्रकाशित हुए हैं।

बता दें कि प्लास्टिक में उपयोग होने वाले इन केमिकल्स को ‘फ्थेलेट्स’ कहा जाता है। ये प्लास्टिक के डिब्बों, कॉस्मेटिक उत्पादों, डिटर्जेंट, सॉल्वेंट्स, कीटनाशक, पाइपों और मेडिकल उपकरणों में बड़े पैमाने पर उपयोग किए जाते हैं। ये केमिकल सूक्ष्म कणों में बदलकर हमारे शरीर में प्रवेश कर सकते हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक शरीर में पहुंचने पर यह केमिकल मोटापा, डायबिटीज, कैंसर और प्रजनन से जुड़ी समस्याओं को बढ़ा सकते हैं।

अपने इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने खासतौर पर प्लास्टिक में उपयोग होने वाले फ्थेलेट 'डीईएचपी' पर ध्यान केंद्रित किया है। इस केमिकल को प्लास्टिक को मुलायम और लचीला बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।

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कैसे दिल पर असर करता है यह केमिकल

अध्ययन से पता चला है कि यह केमिकल शरीर में पहुंचकर दिल की धमनियों में सूजन पैदा कर देता है। यह सूजन समय के साथ दिल का दौरा या स्ट्रोक जैसी गंभीर बीमारियों का कारण बन सकती है।

शोधकर्ताओं का अनुमान है कि 2018 में 55 से 64 साल की उम्र के लोगों में दिल की बीमारी से हुई 13 फीसदी मौतों के पीछे ‘डीईएचपी’ का हाथ हो सकता है।

अध्ययन में बताया गया कि इसकी वजह से सबसे ज्यादा असर दक्षिण एशिया, पूर्वी एशिया, मिडल ईस्ट और पैसिफिक देशों में देखा गया। गौरतलब है कि दुनिया भर में इस केमिकल से होने वाली तीन-चौथाई मौतें इन्हें क्षेत्रों में दर्ज की गई।

क्यों हो रहा है ऐसा?

इनमें भारत पहले स्थान पर रहा, जहां एक लाख से अधिक मौतें इस केमिकल से जुड़ी पाई गईं, उसके बाद चीन और इंडोनेशिया का स्थान रहा। शोधकर्ताओं के मुताबिक जिन क्षेत्रों में प्लास्टिक का उत्पादन तेजी से बढ़ रहा है, लेकिन जिन निर्माण से जुड़े कड़े नियमों की कमी के कारण लोग इन हानिकारक रसायनों के संपर्क आ रहे हैं।

अध्ययन से जुड़े वरिष्ठ शोधकर्ता डॉक्टर लियोनार्डो ट्रासांडे के मुताबिक, फ्थेलेट जैसे केमिकल्स के कारण दिल की बीमारी का खतरा सिर्फ अमीर देशों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि तेजी से औद्योगीकरण का राह पर चल रहे कमजोर और मध्यम आय वाले देशों के लिए यह केमिकल बड़ी समस्या बन चुके हैं। ऐसे में दुनिया भर में इन केमिकल्स के इस्तेमाल पर कड़ी निगरानी और नियमों की जरूरत है।

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इससे पहल 2021 में किए एक अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने 'फ्थेलेट्स’ को हर साल 50,000 से ज्यादा असमय मौतों से जोड़ा था, जिनमें अधिकांश मौतें अमरीका में हृदय रोग से हुई थी। वहीं यह नया अध्ययन अब तक का पहला वैश्विक अनुमान है, जो इन रसायनों के संपर्क से होने वाली हृदय संबंधित मौतों या किसी भी अन्य स्वास्थ्य समस्या का आंकलन करता है।

अपने इस नए अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 200 देशों में लोगों के यूरीन सैंपल और मृत्यु दर के आंकड़ों का विश्लेषण किया है। इसमें पाया गया कि प्लास्टिक के इन रसायनों के संपर्क में ज्यादा आने वाले इलाकों में दिल की बीमारियों का खतरा भी अधिक था।

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शोधकर्ताओं ने स्पष्ट किया है कि 'फ्थेलेट्स’ से दिल की बीमारियों का खतरा दुनिया के हर हिस्से में एक समान नहीं है, कहीं ज्यादा तो कहीं कम है। यह अंतर साफ तौर पर दिखाई देता है। शोधकर्ताओं ने जोर देकर कहा है कि इन जहरीले रसायनों के असर को कम करने के लिए दुनियाभर में सख्त नियम बनाने की जरूरत है। खासकर उन इलाकों में जहां तेजी से औद्योगीकरण और प्लास्टिक का इस्तेमाल बढ़ रहा है।

शोधकर्ताओं ने यह भी स्पष्ट किया है कि अध्ययन यह नहीं कहता कि सिर्फ 'डीईएचपी’ ही मौतों का सीधा कारण है। हालांकि इन मौतों में उसकी भूमिका जरूर रही है। इसी तरह इस अध्ययन में अन्य अन्य फ्थेलेट्स और दूसरे आयु वर्ग के लोगों को शामिल नहीं किया गया है, इसलिए हकीकत में मौतों की संख्या इससे कहीं अधिक हो सकती है।

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