

जंगलों में सड़कों का निर्माण न केवल पर्यावरणीय विनाश का कारण बनता है, बल्कि यह नई महामारियों के लिए भी खतरा पैदा करता है।
वैज्ञानिकों ने एक तकनीक विकसित की है जो भविष्यवाणी कर सकती है कि कहां सड़कें बनेंगी और जंगल कटेंगे। यह तकनीक विकासशील देशों में तेजी से बढ़ते सड़क निर्माण के खतरों को उजागर करती है।
अनुमान है कि आने वाले दशकों में करीब ढाई करोड़ किलोमीटर नई पक्की सड़कें बनाई जा सकती हैं, जिनमें से अधिकांश करीब 90 फीसदी निर्माण विकासशील देशों के उष्णकटिबंधीय इलाकों में होगा। वहीं, जहां पृथ्वी की सबसे समृद्ध जैव विविधता सांस लेती है।
वैज्ञानिकों का कहना है कि सड़कें जानवरों से इंसानों में फैलने वाली बीमारियों का सबसे आसान रास्ता बनती हैं। यही वजह है कि यह तकनीक उन इलाकों की भी पहचान कर सकती है जहां नई महामारियों की चिंगारी सुलग सकती है।
जंगलों में जब पहली सड़क कटती है, तो वह सिर्फ मिट्टी और पेड़ों को नहीं चीरती, साथ ही भविष्य को भी दो हिस्सों में बांट देती है। वैज्ञानिकों ने अब एक ऐसी तकनीक विकसित की है जो पहले ही बता सकती है कि कहां अगली सड़क बनेगी, कहां जंगल उजड़ेंगे और कहां इंसानों के लिए नई बीमारियों का खतरा जन्म ले सकता है।
अब तक सड़कें विकास का प्रतीक मानी जाती रही हैं। लेकिन नई रिसर्च बताती है कि सड़कें अक्सर जंगलों के काटे जाने, जैव विविधता को होते नुकसान और बीमारियों के फैलाव की सबसे तेज राह बन जाती हैं।
यही वजह है कि वैज्ञानिक अब सड़कों को सिर्फ बुनियादी ढांचा नहीं, बल्कि पर्यावरणीय चेतावनी का संकेत मानने लगे हैं।
विकास या विनाश की दौड़
ऑस्ट्रेलिया की जेम्स कुक यूनिवर्सिटी से जुड़े शोधकर्ताओं के सहयोग से किए एक नए अध्ययन के मुताबिक दुनिया इस समय सड़क निर्माण की अभूतपूर्व दौड़ में है।
अनुमान है कि आने वाले दशकों में करीब ढाई करोड़ किलोमीटर नई पक्की सड़कें बनाई जा सकती हैं, जिनमें से अधिकांश करीब 90 फीसदी निर्माण विकासशील देशों के उष्णकटिबंधीय इलाकों में होगा। वहीं, जहां पृथ्वी की सबसे समृद्ध जैव विविधता सांस लेती है।
समस्या यह है कि इनमें से बड़ी संख्या में सड़कें सरकारी नक्शों में दर्ज ही नहीं होतीं। अमेजन, एशिया-प्रशांत और अफ्रीका के जंगलों में हुए अध्ययनों से पता चला है कि हकीकत में मौजूद सड़कों की लंबाई सरकारी आंकड़ों से कई गुना ज्यादा है। यानी जंगल पहले कट रहे हैं, और दुनिया को इसकी खबर बाद में मिलती है।
इस अध्ययन के नतीजे जर्नल प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज (पनास) में प्रकाशित हुए हैं।
अध्ययन से जुड़े वैज्ञानिक प्रोफेसर बिल लॉरेंस के मुताबिक ब्राजील के अमेजन, एशिया-प्रशांत क्षेत्र और अन्य इलाकों में नक्शों की मदद से किए गए अध्ययनों से पता चला है कि हकीकत में जमीन पर बनी सड़कों की लंबाई सरकारी रिकॉर्ड या सड़क डेटाबेस में दर्ज आंकड़ों से 13 गुणा तक अधिक है।
नई तकनीक इसी अंधेरे को रोशनी में बदलने की कोशिश है। यह बारिश के पैटर्न, मिट्टी की स्थिति, भू-आकृति और नदियों की नजदीकी जैसे संकेतों को पढ़कर यह अनुमान लगाती है कि कहां सड़कें पनपने वाली हैं।
इससे उन इलाकों की पहचान संभव हो जाती है, जहां कल जंगल कट सकते हैं, भले ही आज वहां कोई सड़क न दिखे। इसमें स्थानीय सामाजिक और प्रशासनिक परिस्थितियों को भी ध्यान में रखा जाता है।
जंगल से इंसान तक बीमारी का रास्ता
प्रोफेसर लॉरेंस ने प्रेस विज्ञप्ति में जानकारी दी है कि, "यह नया टूल बड़े पैमाने पर जुटाए आंकड़ों का उपयोग करता है और उन पर्यावरणीय कारकों की पहचान करता है, जो सड़क निर्माण को आगे बढ़ाते हैं। इससे अधूरे या पुराने नक्शों पर निर्भर हुए बिना, उभरते खतरनाक इलाकों को पहले ही चिन्हित किया जा सकता है।"
उनके मुताबिक यह सूचकांक उन इलाकों की भी सटीक पहचान कर सकता है, जहां सड़कों के तेजी से फैलने का खतरा है। इससे भविष्य में किन क्षेत्रों में जंगलों के काटे जाने का खतरा बढ़ सकता है, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। यहां तक कि उन इलाकों में भी, जहां सड़कों का बुनियादी रिकॉर्ड तक मौजूद नहीं है।
लेकिन इस कहानी का सबसे डरावना पहलू यहीं खत्म नहीं होता। सड़कें जंगलों के भीतर तक इंसानों को ले जाती हैं, और जंगलों में पनपने वाले रोगों को इंसानों के करीब लाती हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि सड़कें जानवरों से इंसानों में फैलने वाली बीमारियों का सबसे आसान रास्ता बनती हैं।
यही वजह है कि यह तकनीक उन इलाकों की भी पहचान कर सकती है जहां नई महामारियों की चिंगारी सुलग सकती है।
विकास और संरक्षण के बीच संतुलन
मतलब यह उपकरण उन क्षेत्रों की पहचान कर सकता है जहां जूनोटिक रोगों के फैलने का खतरा अधिक है। इसके अलावा, यह उपकरण विदेशी खरपतवारों और जंगली जानवरों के प्रसार के संभावित रास्तों को भी चिन्हित कर सकता है, क्योंकि ऐसी प्रजातियां अक्सर सड़कों से प्रभावित इलाकों में तेजी से पनपती हैं।
वैज्ञानिकों का कहना है कि यह उपकरण संरक्षण की रणनीतियों को पूरी तरह बदल सकता है, क्योंकि इससे सरकारों, गैर-सरकारी संगठनों और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को संवेदनशील उष्णकटिबंधीय इलाकों में समय रहते हस्तक्षेप करने का मौका मिलेगा।
तेजी से बढ़ते वैश्विक बुनियादी ढांचे के दौर में, प्रोफेसर लॉरेंस मानते हैं कि ऐसे पूर्वानुमान आधारित उपकरण विकास और जंगलों के संरक्षण के बीच संतुलन बनाने में निर्णायक साबित हो सकते हैं।