एंटीबायोटिक दवाओं के उत्पादन के वक्त होने वाले प्रदूषण पर अंकुश लगाने के लिए डब्ल्यूएचओ ने जारी किए नए दिशानिर्देश

सीएसई ने भी अपनी रिपोर्ट में एएमआर को एक 'मूक महामारी' बताया है, जो इंसानों और मवेशियों के स्वास्थ्य के साथ-साथ खाद्य सुरक्षा और विकास को भी गंभीर रूप से प्रभावित कर रही है
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विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने एंटीबायोटिक्स के निर्माण के दौरान होने वाले प्रदूषण पर अंकुश लगाने के लिए अपनी तरह के पहले दिशानिर्देश जारी किए हैं। गौरतलब है कि यह दिशानिर्देश एंटीबायोटिक दवाओं के उत्पादन के दौरान पैदा होने वाले अपशिष्ट जल और ठोस कचरे के उचित प्रबंधन पर केंद्रित है।

बता दें कि 26 सितंबर, 2024 को एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध यानी एएमआर पर संयुक्त राष्ट्र महासभा किए एक उच्च स्तरीय बैठक होनी है। इस तरह उस बैठक से ठीक पहले डब्ल्यूएचओ ने इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर प्रकाश डाला है। हालांकि अब तक इस मुद्दे पर बहुत ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया है।

इस बारे में डब्ल्यूएचओ ने जानकारी साझा करते हुए लिखा है एंटीबायोटिक निर्माण के दौरान होने वाले इस प्रदूषण से रोगाणुरोधी प्रतिरोध (एएमआर) बढ़ सकता है। इसकी वजह से एंटीबायोटिक दवाएं उतनी प्रभावी नहीं रहेंगी। इनमें वो दवाएं भी शामिल हैं जो प्रदूषण पैदा करने वाले स्थानों पर बनाई जा रही हैं।

हालांकि हम इस बारे में स्पष्ट तौर पर जानते हैं कि एंटीबायोटिक दवाओं से जुड़ा प्रदूषण दुनिया के लिए एक बड़ी समस्या बनता जा रहा है, लेकिन इसके बावजूद इसे रोकने के लिए बहुत ज्यादा नियम नहीं हैं। गुणवत्ता मानकों में भी शायद ही कभी इनके पर्यावरणीय उत्सर्जन को शामिल किया जाता है। वहीं उपभोक्ताओं को भी अक्सर यह नहीं बताया जाता कि कोर्स पूरा होने के बाद यदि उनके पास जो एंटीबायोटिक्स बच जाते हैं या जो दवाएं एक्सपायर हो चुकी हैं उनका उचित तरीके से निपटान कैसे किया जाए।

डब्ल्यूएचओ में एएमआर मामलों की सहायक निदेशक डॉक्टर युकिको नाकातानी का इस बारे में कहना है कि "एंटीबायोटिक दवाओं को बनाने के दौरान पैदा होने वाला फार्मास्युटिकल कचरा दवा प्रतिरोधी बैक्टीरिया के पैदा होने में मददगार हो सकता है। यह बैक्टीरिया दुनिया भर में फैल सकते हैं और हमारे स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा सकते हैं।"

ऐसे में उनके मुताबिक इस प्रदूषण को नियंत्रित करने से इन जीवन रक्षक दवाओं को सभी के लिए प्रभावी बनाए रखने में मदद मिलेगी।

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विश्व स्वास्थ्य संगठन के पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य विभाग की निदेशक डॉक्टर मारिया नीरा के मुताबिक इस बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है कि दवाओं के निर्माण से पर्यावरण को किस तरह नुकसान पहुंचता है। ऐसे में विशेषज्ञों द्वारा तैयार यह नए दिशानिर्देश उद्योगों, नियामकों, खरीदारों और निरीक्षकों को यह समझने में मदद कर सकते हैं कि एंटीबायोटिक दवाओं से होने वाले प्रदूषण को कैसे रोका जाए। यह दिशानिर्देश प्रदूषण को नियंत्रित करने के बारे में स्पष्ट, वैज्ञानिक सलाह देते हैं।

इसके साथ ही पारदर्शिता पर ध्यान देने से खरीदारों, निवेशकों और आम जनता को ऐसे निर्माताओं को चुनाव करने में मदद मिलेगी जो एंटीबायोटिक प्रदूषण को कम करने के लिए बेहतर तरीके से काम कर रहे हैं।

डब्ल्यूएचओ कार्यकारी बोर्ड, जी7 स्वास्थ्य मंत्री और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम जैसे कई अंतरराष्ट्रीय संगठन इन दिशानिर्देशों की मांग करते रहे हैं। इस बारे में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम से जुड़ी जैकलीन अल्वारेज का प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से कहना है, “पर्यावरण, रोगाणुरोधी प्रतिरोध के बढ़ने और फैलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ऐसे में इसपर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। इस बात पर भी सहमति बढ़ रही है कि शहरों, दवा निर्माण से जुड़े उद्योगों, स्वास्थ्य सुविधाओं और खेतों से होने वाले प्रदूषण से निपटना इसके समाधान का हिस्सा होने चाहिए।“

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डब्ल्यूएचओ ने जानकारी दी है कि यह दिशानिर्देश शिक्षाविदों, नियामकों, निरीक्षकों और यूएनईपी जैसे संगठनों सहित अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों की मदद से बनाए गए हैं। इन पर सार्वजनिक तौर पर भी परामर्श किया गया है। जिसमें उद्योग और अन्य समुदायों से भी उनकी प्रतिक्रिया ली गई है। देखा जाए तो उद्योग पहले ही इस मुद्दे पर काम कर रहे है, ऐसे में नए मार्गदर्शन से मेल खाने के लिए उन्हें अपडेट किया जा सकता है।

सीएसई भी बढ़ते रोगाणुरोधी प्रतिरोध को लेकर करता रहा है आगाह

इन दिशानिर्दशों में स्वास्थ्य को सुरक्षित रखने के साथ रोगाणुरोधी प्रतिरोध (एएमआर) के प्रसार के जोखिम को कम करने के लिए लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं। इनमें जलीय पारिस्थितिकीतंत्र पर भी एंटीबायोटिक दवाओं के पड़ते प्रभावों को संबोधित किया गया है।

इसमें इंसानों के साथ-साथ पेड़-पौधों और जानवरों के लिए उपयोग होने वाली सभी एंटीबायोटिक दवाओं को शामिल किया गया है। यह दिशा-निर्देश दवा बनाने के हर चरण पर लागू होते हैं, इनमे सक्रिय अवयवों के उत्पादन से लेकर अंतिम उत्पादों की पैकेजिंग तक सभी कुछ शामिल है।

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आपकी जानकारी के लिए बता दें कि रोगाणुरोधी प्रतिरोध तब होता है जब बैक्टीरिया, वायरस, फंगी और परजीवी जैसे रोगजनक इन एंटीबायोटिक दवाओं पर प्रतिक्रिया करना बंद कर देते हैं। नतीजन संक्रमण का इलाज मुश्किल हो जाता है।

इस स्थिति में कहीं ज्यादा बीमारियां पैर पसार सकती हैं और मौतों का आंकड़ा बढ़ सकता है। देखा जाए तो रोगाणुरोधी प्रतिरोध मुख्य रूप से एंटीबायोटिक दवाओं के दुरुपयोग या बेतहाशा उपयोग के कारण होता है। वहीं दूसरी तरफ विडम्बना देखिए की दुनिया में आज भी एक बड़ी आबादी ऐसी है जिस तक बेहद आवश्यक रोगाणुरोधी दवाओं तक पहुंच नहीं है।

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) ने भी अपनी रिपोर्ट में एएमआर को एक 'मूक महामारी' बताया है, जो इंसानों और मवेशियों के स्वास्थ्य के साथ-साथ खाद्य सुरक्षा और विकास को भी गंभीर रूप से प्रभावित कर रही है। रोगाणुरोधी प्रतिरोध कितनी बड़ी समस्या है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यह दुनिया भर में सालाना 50 लाख से ज्यादा जिंदगियों को लील रहा है।

वहीं आशंका है कि अगले 26 वर्षों में एएमआर से होने वाली मौतों का आंकड़ा बढ़कर सालाना एक करोड़ पर पहुंच जाएगा। ऐसे में भारत को भी इस बढ़ते खतरे से निपटने के लिए तैयार रहने की जरूरत है।

विश्व बैंक द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक रोगाणुरोधी प्रतिरोध के इलाज की भागदौड़ में 2030 तक और 2.4 करोड़ लोग गरीबी के गर्त में जा सकते हैं। इतना ही नहीं बढ़ते प्रतिरोध की वजह से वैश्विक अर्थव्यवस्था को भी भारी नुकसान उठाना पड़ेगा।

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