
170 साल पहले नीलगिरी की वादियां घास के मखमली बिछोने से लहलहाती थीं और उन पर झुंडों में रंग-बिरंगे पक्षी चहचहाते थे। लेकिन आज, वहां एक ऐसा सन्नाटा पसरा है, जो बताता है कि प्रकृति से की गई एक भूल कैसे सदियों तक अपना बदला लेती है।
ब्रिटिश शासन के दौरान 'बेकार जमीन' समझकर जिन घास के मैदानों को चाय के बागानों और लकड़ी की भूख के लिए बदल दिया गया, उन्होंने नीलगिरी की पारिस्थितिकी की रीढ़ ही तोड़ दी।
यह ब्रिटिश काल की उस सोच का ही नतीजा है कि आज भारत में नीलगिरि के 80 फीसदी घास के मैदान गायब हो चुके हैं। जमीन में की तब्दीलियों का असर अब नीलगिरी की जैव विविधता पर साफ दिखने लगा है। इसकी वजह से वहां घासभूमि में पाए जाने वाली पक्षियों की आबादी में भारी गिरावट आई है। यह कहानी सिर्फ पक्षियों की नहीं, बल्कि उस सोच की है जिसने हरे-भरे जीवन को बेकार मान लिया।
यह अध्ययन कोलंबिया यूनिवर्सिटी, कॉर्नेल यूनिवर्सिटी और इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च (आईआईएसईआर) तिरुपति सहित दुनिया के अन्य 10 संस्थानों से जुड़े वैज्ञानिकों द्वारा मिलकर किया गया है। इस अध्ययन के नतीजे अंतराष्ट्रीय जर्नल ग्लोबल चेंज बायोलॉजी में प्रकाशित हुए हैं।
अतीत से लेकर आज, दो सदियों की तुलना
अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 1848 के ऐतिहासिक भू-मानचित्रों की तुलना 2021 की सैटेलाइट तस्वीरों और पक्षियों के अवलोकनों से की है। इस बारे में अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता विजय रमेश ने प्रेस विज्ञप्ति में बताया, "हमने दो सौ साल पुराने शिकार से जुड़े रिकॉर्ड, संग्रहालयों में रखे नमूनों और नक्शों की मदद से यह अनुमान लगाया कि उस समय पर्यावरण की स्थिति कैसी थी, और उसकी तुलना आज के हालात से की है।"
खतरे में घासभूमि पर निर्भर पक्षी
शोध में पाया गया कि 1850 के दशक से अब तक घास के मैदानों में रहने वाले 90 फीसदी पक्षियों की आबादी में भारी गिरावट आई है। इस दौरान जिन 9 प्रमुख प्रजातियों का अध्ययन किया गया, उनमें से 8 की संख्या में साफ तौर पर गिरावट देखी गई।
इनमें नीलगिरी पिपिट और मालाबार लार्क जैसी पक्षियों की संख्या में सबसे ज्यादा गिरावट आई है। शोधकर्ताओं के मुताबिक यह गिरावट उस दौर से जुड़ी है जब ब्रिटिश शासन के दौरान घास के मैदानों को चाय और लकड़ी की बढ़ती जरूरत को पूरा करने के लिए खत्म कर दिया गया। इस दौरान लकड़ी की भूख को शांत करने के लिए यूकेलिप्टस, पाइन और एशिया से लाई गई अकासिया जैसी प्रजातियों पर जोर दिया गया। इससे इन पक्षियों के प्राकृतिक आवास नष्ट हो गए।
शोधकर्ता विजय रमेश का कहना है, "ब्रिटिश शासन के दौरान घास के मैदानों को 'बेकार' समझ वहां बड़े पैमाने पर चाय और लकड़ी के लिए खेती शुरू की गई। इस दौरान वहां बबूल, सफेदा और चीड़ के जंगल लगाए गए। इसका नतीजा यह हुआ कि आज ये क्षेत्र अपनी मूल जैव विविधता खो रहे हैं।"
जंगलों में पक्षियों की स्थिति थोड़ी बेहतर
अध्ययन में चौंकाने वाली बात यह रही कि जंगलों में रहने वाले पक्षियों की आबादी में उतनी तेजी से गिरावट नहीं हुई, जितनी घास के मैदानों में देखी गई। अध्ययन के दौरान जंगलों में रहने वाले 53 फीसदी पक्षियों की आबादी 200 वर्षों में उतनी नहीं गिरी। कुछ पक्षी तो प्लांटेशन क्षेत्रों में भी देखे गए, हालांकि अध्ययन में यह भी स्पष्ट किया गया है कि ये कृत्रिम वन प्राकृतिक जंगलों जैसे जटिल आवास नहीं दे सकते।
शोधकर्ताओं ने स्पष्ट किया है कि यह नतीजा भारत के खास ऐतिहासिक संदर्भ में है और इसका मतलब यह नहीं कि जंगलों में रहने वाले सभी पक्षियों के लिए ये बागान सही विकल्प हैं।
घास के मैदानों के लिए नहीं कोई विकल्प
वहीं दूसरी तरफ शोधकर्ताओं के मुताबिक घास के मैदानों में पाए जाने वाले पक्षियों के पास ऐसा कोई "बैकअप" नहीं है। उनके लिए वैकल्पिक आवास बेहद सीमित हैं। शोधकर्ता विजय रमेश के मुताबिक आज भी हम घास के मैदानों को तेजी से खो रहे हैं। इसका असर उन सभी जीवों पर पड़ रहा है, जो इन खुले प्राकृतिक आवासों पर निर्भर हैं।
उन्होंने जोर देकर कहा है कि "हमें जंगलों की सुरक्षा के साथ-साथ घासभूमियों के संरक्षण और बहाली को भी उतनी ही प्राथमिकता देनी चाहिए। यह जरूरी है कि नीति निर्माता घास के मैदानों को केवल 'खाली जमीन' न समझें, बल्कि इसे जैव विविधता के खजाने के रूप में देखें।"
देखा जाए तो घास के मैदानों को अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है, लेकिन यह अध्ययन बताता है कि ये खुले प्राकृतिक क्षेत्र जैव विविधता के अनमोल केंद्र हैं। यदि अब भी ध्यान न दिया गया, तो हम सिर्फ पक्षियों को ही नहीं, बल्कि एक पूरे पारिस्थितिक तंत्र को खो देंगे।