भले ही देश-दुनिया में महिलाओं की समानता को लेकर कितनी भी बड़ी-बड़ी बाते की जाती हों लेकिन सच यही है कि अभी भी महिलाएं, पुरुषों के बराबर दर्जा पाने के लिए जद्दोजहद कर रही हैं। इसकी एक झलक सत्ता के गलियारों में भी देखी जा सकती है।
संयुक्त राष्ट्र ने अपनी नई रिपोर्ट में कहा है कि संसद में महिलाओं की बराबर की हिस्सेदारी किसी सपने से कम नहीं। यदि मौजूदा रफ्तार से देखें तो इस सपने को 2063 तक साकार करना सम्भव नहीं होगा।
महिला सशक्तिकरण और लैंगिक समानता के लिए काम कर रहे संगठन यूएन वीमेन और यूनाइटेड नेशंस डिपार्टमेंट ऑफ इकोनॉमिक एंड सोशल अफेयर्स ने अपनी नई रिपोर्ट में खुलासा किया है कि महिलाओं और पुरुषों के बीच असमानता की खाई अभी भी बहुत गहरी है, जिसे भरना आसान नहीं है।
‘प्रोग्रेस ऑन द सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स: द जेंडर स्नेपशॉट 2024’ नामक इस रिपोर्ट में बाल विवाह को भी लेकर चिंताजनक खुलासा किया है, जिसके मुताबिक बाल विवाह की कुप्रथा को दुनिया से दूर करने में सात दशकों से अधिक का समय बीत जाएगा। गौरतलब है कि आज भी हर पांच में से एक बच्ची का विवाह बालिग होने से पहले हो रहा है।
हालांकि रिपोर्ट में इस बात को भी स्वीकार किया गया है कि दुनिया लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण की दिशा में प्रगति कर रही है। अब, संसद में हर चार सीटों में से एक पर महिला सांसद काबिज है, जो 10 साल पहले की तुलना में बड़े सुधार का इशारा है।
इसी तरह आज दस फीसदी से भी कम महिलाएं और बच्चियां बेहद गरीबी के भंवर जाल में फंसी है, जोकि कोरोना महामारी के बाद एक बड़ा सुधार है। गौरतलब है कि महामारी के दौर में यह खाई कहीं ज्यादा गहरा गई थी।
वहीं पहली जेंडर स्नैपशॉट रिपोर्ट के बाद से, पुरुषों और महिलाओं के बीच के अंतर को भरने के लिए दुनिया भर में 56 नए कानून पारित किए गए हैं। यह अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है।
लेकिन इसके बावजूद महिलाओं को पुरुषों के बराबर दर्जा हासिल करने में अभी भी लम्बा सफर तय करना होगा। रिपोर्ट के मुताबिक इस दिशा में प्रगति तो हुई है, लेकिन उसकी रफ्तार बेहद सुस्त है।
क्या दुनिया में 2092 से पहले किया जा सकेगा बाल विवाह जैसी कुप्रथा का उन्मूलन
ऐसे में इन हालातों में महिलाओं और बच्चियों को गरीबी के गर्त से बाहर निकालने के लिए अभी 137 वर्षों का इन्तजार करना होगा। वहीं बाल विवाह के उन्मूलन में 70 वर्षों से अधिक का समय बीत जाएगा।
रिपोर्ट में जो आंकड़े साझा किए गए हैं, वो इस बात की पुष्टि करते हैं कि लैंगिक समानता हासिल करने के लिए निर्धारित सतत विकास के इस पांचवे लक्ष्य और उससे जुड़े सभी संकेतक फिलहाल पहुंच से काफी दूर हैं।
यह रिपोर्ट ऐसे समय में जारी की गई है जब वैश्विक नेता, 22 से 23 सितम्बर के बीच न्यूयॉर्क में भविष्य को ध्यान में रखकर होने वाली शिखर बैठक में हिस्सा लेने की तैयारी कर रहे हैं।
ऐसे में उनसे आग्रह किया गया है कि इस खाई को भरने और लैंगिक समानता को हासिल करने के लिए मिलकर काम करने की दरकार है। ताकि महिला हो या पुरुष सभी को समान अवसर, अधिकार और सम्मान मिल सके। इसके लिए अन्तरराष्ट्रीय सहमति को मूर्त रूप देना आवश्यक है। भले ही यह लक्ष्य दूर की कौड़ी नजर आता है, लेकिन इसे आपसी सहयोग से हासिल किया जा सकता है।
अपनी इस रिपोर्ट में लैंगिक असमानता को दूर करने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने सिफारिशों का पुलिन्दा भी प्रस्तुत किया है।
यूएन वीमेन की कार्यकारी निदेशक सीमा बहाउस ने इस बारे में प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से कहा है हम इस दिशा में प्रगति तो कर रहे हैं, लेकिन उसकी रफ्तार बेहद सुस्त है। उनके मुताबिक यह रिपोर्ट एक ऐसा सच बताती है, जिसे नकारा नहीं जा सकता।
उन्होंने जोर देकर कहा है कि, "हमें लैंगिक समानता को हासिल करने के लिए कड़ी मेहनत करते रहना होगा, जैसा कि वैश्विक नेताओं ने करीब तीन दशक पहले बीजिंग में महिला सम्मेलन और 2030 के लिए जारी एजेंडा में वादा किया था।" इसके मद्देनजर, उन्होंने महिलाओं व बच्चियों के समक्ष मौजूद सभी बाधाओं को दूर करने की अपील की है, और लैंगिक समानता को आकांक्षा से वास्तविकता में तब्दील करने का आह्वाहन किया है।
असमानता की चुकानी पड़ रही भारी कीमत
रिपोर्ट में इस बात पर भी प्रकाश डाला है कि हम लैंगिक असमानता की एक बड़ी कीमत चुका रहे हैं।
उदाहरण के लिए, जो देश अपने युवाओं को उचित शिक्षा देने में विफल रहे हैं, वो हर साल 10,00,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर से ज्यादा खो रहे हैं। वहीं निम्न और मध्यम आय वाले देश, यदि पुरुषों और महिलाओं के बीच डिजिटल माध्यमों तक पहुंच के बीच के अंतर को भरने में नाकाम रहते हैं, तो उन्हें अगले पांच वर्षों में 50,000 करोड़ डॉलर का नुकसान उठाना पड़ सकता है।
संयुक्त राष्ट्र के एक शीर्ष अधिकारी ली जुन्हुआ का कहना है, "लैंगिक समानता पर काम न करने की कीमत बहुत भारी है, और इसे प्राप्त करने के लाभ इतने अधिक हैं कि उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। हम अपने 2030 के लक्ष्यों को तभी प्राप्त कर सकते हैं, जब महिलाओं और बच्चियों को समाज के हर हिस्से में पूरी तरह शामिल किया जाए।"
रिपोर्ट में सतत विकास के सभी 17 क्षेत्रों में लैंगिक असमानता को समाप्त करने की सिफारिशें की गई हैं। इसमें कानूनी सुधार भी शामिल हैं। उदाहरण के लिए जिन देशों में घरेलू हिंसा के खिलाफ कानूनी प्रावधान हैं, वहां अन्तरंग साथी द्वारा हिंसा को अंजाम देने की दर कम है। जिन देशों में इसके लिए कानून हैं वहां यह दर साढ़े नौ फीसदी है, जबकि जिन देशों में ऐसे कानून नहीं है वहां यह दर 16.1 फीसदी है।
ऐसे में रिपोर्ट के मुताबिक 22 से 23 सितंबर को भविष्य के लिए होने वाले शिखर सम्मेलन तथा 2025 में बीजिंग घोषणा की 30वीं वर्षगांठ पर निर्णायक कदम उठाने होंगें। संयुक्त राष्ट्र ने अपनी रिपोर्ट में इस बात पर भी जोर दिया है कि महिलाओं और बच्चियों के विरुद्ध होते भेदभाव का अन्त करना होगा। साथ ही उनके बेहतर भविष्य के लिए निवेश किया जाना होगा ताकि सतत विकास के 2030 के एजेंडा को साकार किया जा सके।
यदि भारत की बात करें तो यूनाइटेड नेशन डेवलपमेंट प्रोग्राम (यूएनडीपी) और यूएन वीमेन ने अपनी रिपोर्ट "द पाथ्स टू इक्वल" में भारत को महिला सशक्तीकरण और लैंगिक समानता के मामले में पिछड़े देशों की लिस्ट में शामिल किया है। भारत को महिला सशक्तिकरण सूचकांक (डब्ल्यूईआई इंडेक्स) में 0.52 अंक दिए गए हैं वहीं वैश्विक लिंग समानता सूचकांक (जीजीपीआई इंडेक्स) में कुल 0.56 अंक मिले हैं। इस लिस्ट में भारत के साथ उसके पड़ोसी देश पाकिस्तान, नेपाल और श्रीलंका भी शामिल हैं।
भारत में महिलाओं की स्थिति इसी बात से स्पष्ट हो जाती है कि जहां 2023 के दौरान संसद में महिलाओं की हिस्सेदारी केवल 14.72 फीसदी थी वहीं स्थानीय सरकार में उनकी हिस्सेदारी 44.4 फीसदी दर्ज की गई।
हालांकि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में राष्ट्रपति के रूप एक महिला का चुनाव महिला सशक्तीकरण की गाथा का एक अंश है। जो दर्शाता है कि समाज जागरूक हो रहा है। लेकिन अभी भी इस क्षेत्र में काफी कुछ किया जाना बाकी है।
यदि शिक्षा की बात करें तो जहां 2022 में केवल 24.9 फीसदी महिलाओं ने माध्यमिक या उच्चतर शिक्षा हासिल की थी वहीं पुरुषों में यह आंकड़ा 38.6 फीसदी दर्ज किया गया। इसी तरह यदि 2012 से 2022 के आंकड़ों को देखें तो केवल 15.9 फीसदी महिलाएं ही मैनेजर पदों पर थी।