जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ रहे ग्लेशियरों की ‘ठंडक’ अब ज्यादा देर टिक नहीं पाएगी

नया शोध बताता है कि जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभावों के सामने ग्लेशियर अपनी आखिरी लड़ाई लड़ रहे हैं
जैसे-जैसे जलवायु और गर्म होगी, ग्लेशियरों की सतह का तापमान तेजी से बढ़ेगा और उनका पिघलना और भी तेज हो जाएगा।
जैसे-जैसे जलवायु और गर्म होगी, ग्लेशियरों की सतह का तापमान तेजी से बढ़ेगा और उनका पिघलना और भी तेज हो जाएगा।फोटो साभार: विकिमीडिया कॉमन्स, डैकोल्जे
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सारांश
  • ग्लेशियर अपने आसपास की हवा को ठंडा करके खुद को अस्थायी रूप से सुरक्षित रखते हैं।

  • यह “स्वयं-शीतलन” प्रभाव 2030 के दशक तक चरम पर पहुंचेगा।

  • उसके बाद ग्लेशियर तेजी से पिघलेंगे और अपनी ठंडक खो देंगे।

  • दुनिया के 62 ग्लेशियरों से जुटाए गए आंकड़ों में यह प्रवृत्ति स्पष्ट दिखाई दी।

  • वैज्ञानिकों का सुझाव: अब समय है कार्बन उत्सर्जन घटाने और जल संसाधनों को बचाने का।

दुनिया भर के ग्लेशियर धीरे-धीरे अपनी ठंडक खोते जा रहे हैं। ऑस्ट्रिया के इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी (इस्ता) के शोधकर्ताओं ने हाल ही में एक नई रिपोर्ट जारी की है, जिसमें बताया गया है कि ग्लेशियर अब तक जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से खुद को बचाने की कोशिश करते रहे हैं, लेकिन यह प्राकृतिक बचाव तंत्र ज्यादा समय तक काम नहीं करेगा।

अस्थायी "स्वयं-शीतलन" प्रभाव

शोध में पाया गया कि ग्लेशियर अपने आसपास की हवा को ठंडा करके खुद को कुछ समय के लिए सुरक्षित रखते हैं। यह प्रक्रिया तब होती है जब बर्फ की ठंडी सतह के संपर्क में आने वाली गर्म हवा धीरे-धीरे ठंडी हो जाती है। इसे वैज्ञानिक “स्वयं-शीतलन प्रभाव कहते हैं। लेकिन यह प्रक्रिया स्थायी नहीं है।

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शोधकर्ताओं का कहना है कि आने वाले दस सालों में यह ठंडक प्रभाव अपनी चरम सीमा पर पहुंच जाएगा। इसके बाद, जैसे-जैसे जलवायु और गर्म होगी, ग्लेशियरों की सतह का तापमान तेजी से बढ़ेगा और उनका पिघलना और भी तेज होगा।

ग्लेशियरों पर बढ़ता खतरा

नेचर क्लाइमेट चेंज नामक पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन में कहा गया है कि साल 2022 में स्विट्जरलैंड के ग्लेशियर डे कॉर्बासिएर पर शोध करते हुए शोधकर्ताओं ने इस बदलाव को नजदीक से महसूस किया है। 2,600 मीटर की ऊंचाई पर स्थित इस ग्लेशियर पर उन्होंने 17 डिग्री सेल्सियस का तापमान दर्ज किया, जो बर्फ से ढके क्षेत्र के लिए बहुत असामान्य था।

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वैज्ञानिकों का कहना है कि हिमालय जैसे विशाल पर्वतीय क्षेत्रों में मौजूद बड़े ग्लेशियर अभी भी अपने आसपास की हवा को ठंडा रख रहे हैं। उनकी सतह से निकलने वाली ठंडी हवाएं नीचे की ओर बहती हैं और स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा करती हैं। इन हवाओं को काटाबेटिक विंड्स कहा जाता है।

लेकिन यह ठंडक स्थायी सुरक्षा नहीं है। यह केवल कुछ दशकों तक ही ग्लेशियरों को संभाले रख सकती है। जैसे-जैसे बर्फ का द्रव्यमान घटेगा, यह ठंडक भी खत्म हो जाएगी और ग्लेशियर तेजी से पिघलने लगेंगे

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दुनिया के आंकड़ों से चौंकाने वाले निष्कर्ष

शोधकर्ताओं ने दुनिया भर के 62 ग्लेशियरों से आंकड़े एकत्र किए, जिसमें 350 मौसम स्टेशनों के रिकॉर्ड शामिल थे। उन्होंने गर्मियों के दौरान लिए गए हजारों घंटे के तापमान आंकड़ों का विश्लेषण किया।

अध्ययन का निष्कर्ष था कि ग्लेशियरों की सतह का तापमान सामान्य वातावरण की तुलना में धीरे-धीरे बढ़ता है। औसतन जब आसपास का तापमान एक डिग्री बढ़ता है, तो ग्लेशियर की सतह पर केवल 0.83 डिग्री की वृद्धि होती है। यह अंतर ही ग्लेशियरों की ‘स्वयं ठंडक’ क्षमता को दर्शाता है।

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लेकिन जैसे-जैसे समय बीतेगा, यह अंतर घटता जाएगा। 2030 से 2040 के बीच, यह प्रभाव अपने उच्चतम स्तर पर पहुंचने के बाद घटने लगेगा। इसके बाद ग्लेशियर फिर से गर्म वातावरण से "जुड़" जाएंगे और उनका तेजी से पिघलना शुरू होगा।

मानवता के लिए चेतावनी

शोध पत्र में शोधकर्ताओं के हवाले से कहना है कि यह शोध केवल वैज्ञानिक महत्व का नहीं है, बल्कि मानव समाज के लिए भी एक बड़ी चेतावनी है। ग्लेशियर न केवल पृथ्वी की ठंडक बनाए रखते हैं, बल्कि अरबों लोगों के लिए मीठे या ताजे पानी का मुख्य स्रोत भी हैं

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अगर उनका पिघलना तेज हो गया, तो आने वाले दशकों में पानी की उपलब्धता पर गहरा असर पड़ेगा, विशेष रूप से एशिया, दक्षिण अमेरिका और यूरोप के पर्वतीय क्षेत्रों में।

क्या किया जा सकता है?

शोध में कहा गया है कि ग्लेशियरों की ‘स्वयं ठंडक’ हमें कुछ सालों की मोहलत दे सकती है। इस दौरान हमें जल संसाधन प्रबंधन को बेहतर बनाना चाहिए ताकि आने वाले जल संकट से निपटा जा सके।

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लेकिन यह मान लेना कि हम ग्लेशियरों को बचा सकते हैं, अवास्तविक है। वैज्ञानिकों के अनुसार, अब ग्लेशियरों के बड़े पैमाने पर पिघलने को रोका नहीं जा सकता। हमें इस हानि को स्वीकार करते हुए, आगे के नुकसान को सीमित करने पर ध्यान देना होगा।

शोध पत्र में शोधकर्ता के द्वारा सुझाव देते हुए कहा गया है कि क्लाउड सीडिंग या ग्लेशियरों को ढकने जैसी तकनीकें केवल अस्थायी समाधान हैं। ये एक गंभीर घाव पर महंगी पट्टी लगाने जैसा है। असली समाधान है कार्बन उत्सर्जन को घटाना और जलवायु परिवर्तन को रोकना है।

यह अध्ययन हमें एक स्पष्ट संदेश देता है कि समय बहुत कम है। ग्लेशियरों का पिघलना केवल प्राकृतिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि मानवजनित संकट है। यदि हम अभी भी अपने कार्बन उत्सर्जन, उद्योगों और उपभोग के तरीकों में परिवर्तन नहीं लाते, तो 21वीं सदी के मध्य तक कई बड़े ग्लेशियर गायब हो जाएंगे।

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