दुनिया भर में पिघलते ग्लेशियरों के कारण और ज्यादा ज्वालामुखी विस्फोट हो सकते हैं : शोध

ग्लेशियर अपने नीचे स्थित ज्वालामुखियों के विस्फोटों की तीव्रता को दबा देते हैं। लेकिन जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियर पीछे हटते हैं, ये ज्वालामुखी अधिक बार और तेज विस्फोटक से फटते हैं।
ज्वालामुखी की गतिविधि में वृद्धि का दुनिया भर की जलवायु पर प्रभाव पड़ सकता है।
ज्वालामुखी की गतिविधि में वृद्धि का दुनिया भर की जलवायु पर प्रभाव पड़ सकता है।प्रतीकात्मक छवि, फोटो साभार: आईस्टॉक
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चिली के एंडीज पर्वतमाला में छह ज्वालामुखियों पर किए गए शोध के अनुसार, पिघलते ग्लेशियर भविष्य में और अधिक विस्फोटक और लगातार ज्वालामुखी विस्फोटों के लिए चुपचाप एक आधार तैयार कर रहे हैं।

एक नए अध्ययन से पता चलता है कि दुनिया भर में सैकड़ों निष्क्रिय ग्लेशियर के नीचे ज्वालामुखी विस्फोट हो सकता है। खासकर अंटार्कटिका में जलवायु परिवर्तन की वजह से ग्लेशियरों के पीछे हटने की गति बढ़ने के कारण इनके और अधिक सक्रिय होने की आशंका जताई गई है।

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1970 के दशक से इस बात की जानकारी है कि आइसलैंड में ग्लेशियरों के पीछे हटने और ज्वालामुखी गतिविधि में वृद्धि के बीच संबंध है। लेकिन यह महाद्वीपीय ज्वालामुखी प्रणालियों में इस तरह की घटना का पता लगाने वाले पहले अध्ययनों में से एक है। ये निष्कर्ष वैज्ञानिकों को ग्लेशियर से पटे क्षेत्रों में ज्वालामुखी गतिविधि को बेहतर ढंग से समझने और पूर्वानुमान लगाने में मदद कर सकते हैं।

शोधकर्ताओं ने दक्षिणी चिली के छह ज्वालामुखियों, जिनमें अब निष्क्रिय मोचो-चोशुएन्को ज्वालामुखी भी शामिल है, पर आर्गन डेटिंग और क्रिस्टल विश्लेषण का उपयोग करके यह पता लगाया कि पैटागोनियन हिम चादर के आगे बढ़ने और पीछे हटने ने अतीत में ज्वालामुखी के व्यवहार को कैसे प्रभावित किया।

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पिछले विस्फोटों की सटीक तिथि तय करके और विस्फोटित चट्टानों में क्रिस्टलों का विश्लेषण करके, शोधकर्ताओं ने पता लगाया कि ग्लेशियर की बर्फ का भार और दबाव जमीन के अंदर के मैग्मा की विशेषताओं को किस प्रकार बदलता है।

जर्नल ऑफ जियोफिजिकल रिसर्च में प्रकाशित शोध में कहा गया है कि शोधकर्ताओं ने पाया कि पिछले हिमयुग (लगभग 26,000-18,000 वर्ष पूर्व) के चरम के दौरान, घने हिम आवरण ने विस्फोटों की तीव्रता को दबा दिया जिससे सतह से 10 से 15 किलोमीटर नीचे सिलिका-समृद्ध मैग्मा का एक विशाल भंडार जमा हो गया।

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पिछले हिमयुग के अंत में जब बर्फ की चादर तेजी से पिघली, तो अचानक वजन कम होने से जमीन की पट्टी ढीली पड़ गई और मैग्मा में गैसें फैलने लगीं। इस दबाव के कारण गहरे भंडार से विस्फोटक ज्वालामुखी विस्फोट हुए, जिससे ज्वालामुखी का निर्माण हुआ।

शोध पत्र में शोधकर्ताओं के हवाले से कहा गया है कि ग्लेशियर अपने नीचे स्थित ज्वालामुखियों के विस्फोटों की तीव्रता को दबा देते हैं। लेकिन जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियर पीछे हटते हैं, ये ज्वालामुखी अधिक बार और तेज विस्फोटक से फटते हैं।

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बढ़ते विस्फोट के लिए मुख्य रूप से जरूरी मैग्मा कक्ष के ऊपर शुरू में बहुत मोटी ग्लेशियर की परत का होना है और इसे उत्तेजित करने वाला बिंदु वह होता है जब ये ग्लेशियर पीछे हटने लगते हैं, जिससे दबाव कम होता है, जो वर्तमान में अंटार्कटिका जैसी जगहों में हो रहा है।

अध्ययन बताता है कि यह घटना केवल आइसलैंड तक सीमित नहीं है, जहां ज्वालामुखी गतिविधि में वृद्धि देखी गई है, बल्कि अंटार्कटिका में भी हो सकती है। उत्तरी अमेरिका, न्यूजीलैंड और रूस के कुछ हिस्सों जैसे अन्य महाद्वीपीय क्षेत्रों पर भी अब गहन वैज्ञानिक अध्ययन की जरूरत है।

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भूवैज्ञानिक नजरिए से, ग्लेशियरों के पिघलने पर ज्वालामुखी की प्रतिक्रिया लगभग तुरंत होती है, लेकिन मैग्मा प्रणाली में बदलाव की प्रक्रिया धीरे-धीरे होती है और सदियों में होती है, जिससे निगरानी और पूर्व चेतावनी के लिए कुछ समय मिल जाता है।

शोध पत्र में शोधकर्ताओं के हवाले से यह भी कहा गया है कि ज्वालामुखी की गतिविधि में वृद्धि का दुनिया भर की जलवायु पर प्रभाव पड़ सकता है। छोटी अवधि में, विस्फोटों से एरोसोल (गैसों में मौजूद सूक्ष्म कण) निकलते हैं जो ग्रह को अस्थायी रूप से ठंडा कर सकते हैं।

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यह 1991 में फिलीपींस में माउंट पिनाटुबो के विस्फोट के बाद देखा गया था, जिससे दुनिया भर में तापमान लगभग 0.5 डिग्री सेल्सियस कम हो गया था। लेकिन कई विस्फोटों के साथ, प्रभाव उलट भी जाते हैं।

शोध के मुताबिक, समय के साथ, कई विस्फोटों का कुल मिलाजुला प्रभाव ग्रीनहाउस गैसों के जमा होने के कारण लंबे समय तक दुनिया भर में तापमान में और वृद्धि कर सकते हैं। इससे एक सकारात्मक प्रतिक्रिया चक्र बनता है, जहां पिघलते ग्लेशियर विस्फोटों को गति देते हैं और बदले में ये विस्फोट और अधिक तापमान वृद्धि और पिघलने में अहम भूमिका निभा सकते हैं।

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