दादा-दादी की तुलना में दोगुने से अधिक गर्म दिनों का सामना करने को मजबूर है हर पांचवा बच्चा

100 देशों में, आधे से ज्यादा बच्चे छह दशक पहले की तुलना में दोगुनी से ज्यादा लू की घटनाओं का सामना कर रहे हैं
बच्चों के लिए आफत बनता बढ़ती गर्मी और लू का कहर; फोटो: आईस्टॉक
बच्चों के लिए आफत बनता बढ़ती गर्मी और लू का कहर; फोटो: आईस्टॉक
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दुनिया में  जलवायु परिवर्तन की धमक चारों और महसूस की जा रही है। बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक सब के लिए बढ़ता तापमान आसमानी आफत बनकर टूटा है। यहां तक की पशु-पक्षी और पेड़ पौधे भी इसके प्रभावों से सुरक्षित नहीं हैं।

बढ़ती गर्मी और लू के इन्हीं प्रभावों को उजागर करते हुए संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) ने अपने नए विश्लेषण में जानकारी दी है कि आज दुनिया में 46.6 करोड़ बच्चे उन इलाकों में रहने को मजबूर हैं, जहां अत्यंत गर्म दिनों की संख्या उनके दादा-दादी के समय की तुलना में दोगुनी हो गई है। मतलब की आज धरती का हर पांचवा बच्चा उन क्षेत्रों में रह रहा है, जहां छह दशक पहले की तुलना में अब सालाना गर्म दिनों की संख्या दोगुने से अधिक हो गई है।

अपने विश्लेषण में यूनिसेफ ने 1960 के दशक की तुलना 2020 से 2024 के औसत गर्म दिनों से की है। गौरतलब है कि यह वो दिन थे, जब औसत तापमान 35 डिग्री सेल्सियस या उससे ऊपर था। विश्लेषण के मुताबिक इन गर्म दिनों की संख्या लगातार तेजी से बढ़ रही है।

नतीजन इसका खामियाजा दुनिया के 46 करोड़ से ज्यादा बच्चों को भुगतना पड़ रहा है। इससे ज्यादा विडम्बना की बात क्या होगी कि इनमें से कई बच्चे ऐसे हैं, जिनके पास इस स्थिति से निपटने के लिए पर्याप्त बुनियादी ढांचा या सेवाएं भी नहीं हैं।

यूनिसेफ ने अपने विश्लेषण में देशों से जुड़े आंकड़ों की भी पड़ताल की है, जिसके मुताबिक 16 देशों में बच्चों को अब छह दशक पहले की तुलना में अब तीस दिनों से भी ज्यादा अतिरिक्त समय भीषण गर्म दिनों से जूझना पड़ रहा है। उदाहरण के लिए, दक्षिण सूडान में, बच्चों को अब सालाना 165 अत्यधिक गर्म दिनों का सामना करना पड़ रहा है, जबकि 1960 के दशक में ऐसे दिनों की संख्या 110 थी। ऐसा ही कुछ पैराग्वे में भी देखने को मिला है, जहां भीषण गर्म दिनों की यह संख्या 36 से बढ़कर 71 पर पहुंच गई है।

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विश्लेषण के अनुसार, पश्चिम और मध्य अफ्रीकी क्षेत्र में बच्चों को दुनिया के अन्य हिस्सों की तुलना में सबसे ज्यादा गर्म दिनों से दो-चार होना पड़ रहा है। देखा जाए तो समय के साथ वहां इन दिनों में सबसे ज्यादा बढ़ोतरी हुई है। आंकड़ों के मुताबिक इस क्षेत्र में रहने वाले 12.3 करोड़ बच्चे साल के एक तिहाई से भी ज्यादा समय भीषण गर्मी का सामना कर रहे हैं।

मतलब की यहां के 39 फीसदी बच्चे साल में कम से कम 95 दिन 35 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा तापमान में रहने को मजबूर हैं। कुछ देशों में तो स्थिति कहीं ज्यादा खराब है। उदाहरण के लिए माली में 212 दिन, नाइजर में 202, सेनेगल में 198 और सूडान में 195 दिन बच्चे इस भीषण गर्म का सामना करते हैं।

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दुनिया भर में बच्चों के लिए काल बनता बढ़ता तापमान

कुछ ऐसा ही दक्षिण अमेरिका और कैरिबियन क्षेत्र में देखने को मिला है जहां करीब 4.8 करोड़ बच्चे ऐसे इलाकों में रह रहे हैं जहां अत्यधिक गर्म दिनों की संख्या पहले पहले के मुकाबले दोगुनी से ज्यादा हो गई है।

लंबे समय तक भीषण गर्मी और भी ज्यादा खतरनाक है। आशंका है कि जिस तरह वैश्विक तापमान में इजाफा हो रहा है, उससे भीषण गर्मी का कहर लम्बे समय तक बना रह सकता है। विश्लेषण से पता चला है कि अब बच्चों को लंबे समय तक, लगातार भीषण गर्मी का सामना करना पड़ रहा है।

आंकड़े दर्शाते हैं कि 100 देशों में, आधे से ज्यादा बच्चे छह दशक पहले की तुलना में दोगुनी से ज्यादा लू की घटनाओं का सामना कर रहे हैं। उदाहरण के लिए अमेरिका में 3.6 करोड़ बच्चे छह दशक पहले की तुलना में लू की दोगुनी घटनाओं का सामना कर रहे हैं। वहीं 57 लाख बच्चे लू की तीन गुणी ज्यादा घटनाओं से जूझने को मजबूर हैं। 

यूनिसेफ के मुताबिक अत्यधिक तापमान से होने वाला हीट स्ट्रेस बच्चों और गर्भवती महिलाओं के लिए गंभीर जोखिम पैदा करता है। खासकर उन बच्चों के लिए जिनके पास शरीर को ठंडा रखने के लिए कूलिंग उपाय नहीं हैं। विश्लेषण के मुताबिक गर्भावस्था में भीषण गर्मी का सामना करने से स्वास्थ्य संबंधी जटिलताएं पैदा हो सकती हैं। इसमें गर्भ के दौरान होने वाली स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से लेकर, जन्म के समय वजन की कमी, समय से पहले जन्म या बच्चे का मृत पैदा होना तक शामिल है।

इतना ही नहीं भीषण गर्मी से बच्चों में कुपोषण, अतिसार, डेंगू, और मलेरिया जैसी कई बीमारियों के होने का खतरा बढ़ जाता है। इसके अतिरिक्त, साक्ष्य बताते हैं कि यह गर्मी का यह कहर बच्चों के मानसिक विकास, स्वास्थ्य और कल्याण को प्रभावित कर सकता है।

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इस बारे में यूनिसेफ की कार्यकारी निदेशक कैथरीन रसैल ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा है कि, “जिस तरह भीषण गर्मी का कहर बढ़ रहा है, उससे बच्चों का स्वास्थ्य, सेहत और रोजमर्रा की दिनचर्या प्रभावित हो रही है। बच्चों का शरीर वयस्कों की तुलना में कहीं ज्यादा सुकोमल होता है। इसकी वजह से वो भीषण गर्मी के प्रति कहीं अधिक संवेदनशील होते हैं।“ उनके मुताबिक भीषण गर्मी के दिन अब सामान्य बात होते जा रहे हैं।

उनके मुताबिक बच्चों का शरीर बड़ों की तुलना में अलग होता है और वो बहुत जल्द गर्म और उसकी तुलना में बहुत धीमी रफ्तार से ठंडा होता है। भीषण गर्मी से बच्चों की ह्रदय गति बढ़ जाती है जो उनके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है।

क्या है समाधान

देखा जाए तो जलवायु सम्बन्धी यह खतरे न केवल बच्चों को सीधे तौर पर नुकसान पहुंचा रहे हैं, बल्कि खाद्य और जल सुरक्षा के साथ-साथ बुनियादी ढांचे को भी प्रभावित कर रहे हैं। यह शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं में बाधा पैदा कर रहे हैं। इतना ही नहीं यह विस्थापन की वजह बनकर बच्चों के स्वास्थ्य और भविष्य पर भी आघात कर रहे हैं। हालांकि यह प्रभाव कितने गंभीर होंगें यह बच्चों की कमजोरियों और उनकी सामाजिक आर्थिक स्थिति के साथ-साथ, स्थान, स्वास्थ्य और लिंग पर भी निर्भर करता है।

गौरतलब है कि आने वाले कुछ महीनों में पेरिस समझौते में शामिल सभी देशों को अपनी अपडेट की हुई राष्ट्रीय जलवायु योजनाएं - एनडीसी 3.0 प्रस्तुत करनी हैं। यह योजनाएं अगले दशक के लिए जलवायु कार्रवाई को आकार देंगी।

ऐसे में यह पेरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण अवसर साबित हो सकता है। यही वजह है कि यूनिसेफ ने भी सरकारों और निजी क्षेत्रों से आग्रह किया है कि वो जलवायु में आते बदलावों के खिलाफ तत्काल साहसिक कदम उठाए, ताकि बच्चों के स्वस्थ, स्वच्छ और बेहतर पर्यावरण के अधिकार को सुरक्षित किया जा सके।

इसे ध्यान में रखते हुए जहां बढ़ते उत्सर्जन पर लगाम लगाना जरूरी है। वहीं साथ ही जलवायु परिवर्तन की वजह से बढ़ती चरम मौसमी घटनाओं से बच्चों के जीवन, स्वास्थ्य और भविष्य की रक्षा करना भी अहम है। इसमें स्वास्थ्य कर्मियों को बढ़ते गर्मी के तनाव से निपटने के लिए प्रशिक्षित करना, स्वास्थ्य और शिक्षा सुविधाओं को भीषण गर्मी के दौर के लिए भी तैयार करना शामिल है।

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